सिक्ख धर्म के प्रमुख ग्रंथ
आदि ग्रंथ (पोथी साहिब अथवा ज्ञान गुरु ग्रंथ साहिब)
सिक्खों का धार्मिक ग्रन्थ ‘श्री आदि ग्रंथ’ या ‘ज्ञान गुरु ग्रंथ साहिब’ है। इसे ‘आदि गुरु दरबार’ या ‘पोथी साहिब’ भी कहा जाता है। मूलतः भाई गुरदास जी ने पुराने पूर्ववर्ती गुरुओं एवं भक्त कवियों की पोथियों से रचनाएं लेकर यह ग्रंथ तैयार किया। गुरु अर्जुनदेव इस ग्रंथ के दिशा निर्धारक बने तथा गुरु अर्जुनदेव ने अपनी वाणी भी ग्रंथ में संकलित करवाई।
इस ग्रंथ की कई प्रतिलिपियां भी तैयार हुईं। ई.1604 में गुरु अर्जुन-देव ने ‘आदि ग्रन्थ’ का संपादन किया। इसमें 5 सिक्ख-गुरुओं, 15 संतों एवं 14 कवियों की रचनाओं को सम्मिलित किया। इन पाँच गुरुओं के नाम हैं- गुरु नानक, गुरु अंगद देव, गुरु अमरदास, गुरु रामदास और गुरु अर्जुनदेव।
15 संतों के नाम हैं- शेख़ फरीद, जयदेव, त्रिलोचन, सधना, नामदेव, वेणी, रामानंद, कबीर, रविदास, पीपा, सैठा, धन्ना, भीखन, परमानन्द और सूरदास। 14 कवियों के नाम हैं- हरिबंस, बल्हा, मथुरा, गयन्द, नल्ह, भल्ल, सल्ह, भिक्खा, कीरत, भाई मरदाना, सुन्दरदास, राइ बलवंड एवं सत्ता डूम, कलसहार, जालप।
बाद में गुरु गोविन्द सिंह ने अपने पिता गुरु तेग बहादुर की वाणी भी गुरुग्रंथ साहब में शामिल करके आदि ग्रन्थ को अन्तिम रूप दिया। एक दोहा गुरु गोविन्दसिंह का भी है। इस प्रकार आदि ग्रंथ में 7 सिक्ख-गुरुओं, 15 संतों एवं 14 कवियों की रचनाएं सम्मिलित हो गईं। आदि-ग्रन्थ में 15 संतों के कुल 778 पद हैं। इनमें 541 कबीर के, 122 शेख फरीद के, 60 नामदेव के और 40 संत रविदास के हैं।
अन्य संतों के एक से चार पद लिए गए हैं। गुरु गोविन्द सिंह ने अपने बाद गुरु-परम्परा समाप्त कर दी तथा सिक्खों के आध्यात्मिक मार्गदर्शन के लिए ‘आदि ग्रन्थ’ को समूचे खालसा पंथ के ‘गुरु पद’ पर आसीन कर दिया। उस समय से आदि ग्रन्थ, ‘गुरु साहब’ के रूप में स्वीकार किया जाने लगा। खालसा द्वारा आदि ग्रंथ के 1430 पृष्ठ मानकित किए गए।
इसे ‘आदि ग्रंथ’ इसलिए कहते हैं क्योंकि इसमें ‘आदि’ का ज्ञान है। ‘जप बानी’ के अनुसार ‘सत्य’ ही ‘आदि’ है। इसका ज्ञान करवाने वाले ग्रंथ को ‘आदि ग्रंथ’ कहते हैं। कुछ विद्वानों के अनुसार जब इस ग्रंथ में गुरु तेग बहादुर की बानी नहीं थी तब यह आदि ग्रंथ था और जब गुरु गोबिंद सिंह ने 9वें महले की ‘बानी’ (वाणी) चढ़ाई तब इसे आदि ग्रंथ की जगह ‘गुरु ग्रंथ’ कहा जाने लगा।
दसम ग्रंथ
आदि ग्रंथ का ज्ञान लेना ही सिक्खों के लिए सर्वोपरि है परंतु सिक्ख हर उस ग्रंथ को सम्मान देते हैं, जिसमें ‘गुरमत’ का उपदेश है। गुरु गोबिंदसिंह ने अनेक रचनाएँ लिखीं जिनकी छोटी-छोटी पोथियाँ बना दीं। उन की मृत्यु के बाद उन की धर्मपत्नी ‘सुन्दरी’ की आज्ञा से भाई मनीसिंह खालसा और अन्य खालसा शिष्यों ने गुरु गोबिंदसिंह की समस्त रचनाओं को एकत्रित करके एक जिल्द में चढ़ा दिया जिसे ‘दसम ग्रन्थ’ कहा जाता है।
दसम ग्रंथ की वाणियाँ, यथा जाप साहिब, तव परसाद सवैये और चोपाई साहिब सिक्खों के दैनिक ‘सजदा’ एवं ‘नितनेम’ का हिस्सा हैं। ये वाणियाँ ‘खंडे बाटे की पहोल’ अर्थात् ‘अमृत छकने’ के अवसर पर पढ़ी जाती हैं। तखत हजूर साहिब, तखत पटना साहिब और निहंग सिंह आदि गुरुद्वारों में दसम ग्रन्थ का गुरु ग्रन्थ साहिब के साथ प्रकाश होता है और रोज़ हुकम्नामे भी लिया जाता है।
सरब्लोह
‘सरब्लोह’ ग्रन्थ में ‘खालसा महिमा’ संकलित है जो कि गुरु गोबिंदसिंह की प्रमाणित रचना है। इसके साथ ही सरब्लोह ग्रन्थ में कर्म कांड, व्यक्ति पूजा इत्यादि विषय पर भी कुछ रचनाएं हैं जो गुरमत के मूल सिद्धांतों के विरुद्ध हैं।
भाई गुरदास की वारों
भाई गुरदास (ई.1551-1636) गुरु अमरदास के भतीजे थे। वे चार गुरुओं के साथ रहे। उन्होंने ही सर्वप्रथम ई.1604 में ‘आदि ग्रंथ’ संकलित किया। ‘भाई गुरदास की वारों’ में मूर्ति-पूजा तथा कर्म-सिद्धांत पर आधारित कई रचनाएं हैं जो ‘गुरमत’ के विरुद्ध हैं। फिर भी गुरु अर्जुनदेव ने उनकी रचना को ‘गुरबानी की कुंजी’ कहकर सम्मान दिया।
श्री गुर सोभा
सिक्ख इतिहास को जानने के लिए जिन ग्रंथों का सहारा लिया जा सकता है, उनमें से अधिकतर ग्रंथ ई.1750 के बाद लिखे गए। सिक्ख धर्म का इतिहास के लिए कोई भी ग्रंथ पूरी तरह विश्वसनीय नहीं माना जाता। ‘श्री गुर सोभा’ ही ऐसा ग्रन्थ है जो गुरु गोबिंदसिंह के निकटवर्ती शिष्य द्वारा लिखा गया है किन्तु इसमें तिथियां नहीं दी गई हैं। सिक्खों के और भी इतिहास विषयक ग्रन्थ हैं।
श्री गुर परताप सूरज ग्रन्थ, गुर-बिलास पातशाही 10, महीमा परकाश, पंथ परकाश, जनम-सखियाँ इत्यादि। श्री गुर परताप सूरज ग्रन्थ की व्याख्या गुरद्वारों में होती है। कभी ‘गुर-बिलास पातशाही दस’ की व्याख्या भी होती थी। सिक्खों का इतिहास लिखने वाले प्रायः सनातनी विद्वान थे। इस कारण उनकी पुस्तकों में गुरुओं एवं भक्तों के चमत्कार लिखे गए हैं जो गुरमत-दर्शन के अनुकूल नहीं हैं। ‘जम्सखिओं’ और ‘गुर-बिलास’ में गुरु नानक का हवा में उड़ना, मगरमच्छ की सवारी करना, माता गंगा को बाबा बुड्ढा द्वारा गर्भवती करना इत्यादि घटनाएं लिखी हैं।
गुरुद्वारा
सिक्खों के धार्मिक स्थान को ‘गुरुद्वारा’ कहते हैं। इसमें किसी गुरु या ईश्वर की प्रतिमा नहीं होती अपितु गुरुग्रंथ साहब की प्रति रखी हुई होती है जिसे गुरु मानकर सेवा, प्रणाम किया जाता है तथा उसके समक्ष मत्था टेका जाता है। ग्रंथियों द्वारा ‘शबद-कीर्तन’ आयोजित किए जाते हैं। देश में कई प्रसिद्ध गुरुद्वारे हैं जिनमें आनन्दपुर साहब, शीशगंज, तरनतारन, कर्तारपुर साहब, रकाबगंज, बुड्ढा जोहड़ आदि प्रमुख हैं।
स्वर्णमंदिर
चौथे गुरु रामदास ने पंजाब में अमृतसर नामक सरोवर की स्थापना की थी। इसके चारों ओर एक नगर बस गया। इस नगर को भी अमृतसर कहा गया। पांचवें गुरु अर्जुनदेव ने अमृतसर में अकाल तख्त की स्थापना की तथा स्वर्ण मंदिर बनवाया। यह सिक्खों का सबसे बड़ा तीर्थ है। इसे श्री हरिमन्दिर साहिब, हरमंदिर साहिब, दरबार साहिब एवं स्वर्ण मन्दिर भी कहते हैं। यह सिक्खों का सबसे प्रमुख गुरुद्वारा है। यह गुरुद्वारा अमृतसर सरोवर के मध्य में स्थित है।
गुरुद्वारे तक पहुँचने के लिए पुल से होकर जाना होता है। गुरु अर्जुनदेव ने दिसंबर 1588 में हरमंदिर साहिब की नींव लाहौर के सूफी संत साईं मियां मीर से रखवाई थी जो कि गुरु अर्जुनदेव का शिष्य भी था। इस गुरुद्वारे का नक्शा स्वयं गुरु अर्जुन देव ने तैयार किया था। गुरुद्वारे के चारों ओर दरवाजे हैं, जो चारों दिशाओं (पूर्व, पश्चिम, उत्तर, दक्षिण) में खुलते हैं। ये दरवाजे समाज के चारों वर्णों के लोगों के गुरुद्वारे में आने का संकेत करते हैं।
पूरा गुरुद्वारा सफेद संगमरमर से बना हुआ है और इसकी बाहरी दीवारों पर सोने की पर्त चढ़ाई गई है। इसलिए इसे स्वर्ण मंदिर कहते हैं। मंदिर परिसर में पत्थर का एक स्मारक है जो शहीद सिक्ख सैनिकों को श्रद्धाजंलि स्वरूप लगाया गया है। श्री हरिमन्दिर साहिब के चार द्वारों में से एक द्वार गुरु रामदास सराय की ओर खुलता है। इसमें चौबीस घंटे लंगर चलता है, जिसमें लगभग 40 हजार लोग प्रतिदिन प्रसाद ग्रहण करते हैं। श्री हरिमन्दिर साहिब परिसर में बेरी का एक वृक्ष है जिसे बेर बाबा बुड्ढा कहते हैं। जब स्वर्ण मंदिर बन रहा था तब बाबा बुड्ढा इसी वृक्ष के नीचे बैठकर मंदिर का निर्माण कार्य देखते थे।
स्वर्ण मंदिर से 100 मीटर की दूरी पर स्वर्ण जड़ित, अकाल तख्त है। इसमें एक भूमिगत तल है और पांच अन्य तल हैं। इसमें एक संग्रहालय और सभागार भी बनाया गया है। यहाँ पर सरबत खालसा की बैठकें होती हैं। सिक्ख पंथ से जुड़ी हर समस्या का समाधान इसी सभागार में होता है।
गुरुद्वारे के बाहर दाईं ओर अकाल तख्त है जिसका निर्माण ई.1606 में किया गया था। अकाल तख्त के दर्शन करने के बाद श्रद्धालु, स्वर्ण मंदिर में प्रवेश करते हैं। यहाँ दरबार साहिब स्थित है। उस समय यहाँ महत्वपूर्ण फैसले लिए जाते थे। इसके पास शिरोमणि गुरुद्वारा प्रबंधक समिति का कार्यालय है। वर्तमान समय में यह समिति सिक्ख पंथ से जुड़े महत्वपूर्ण निर्णय लेती है।
मुसलमानों ने स्वर्णमंदिर को कई बार नष्ट करने का प्रयास किया किंतु सिक्खों ने इसे हर बार पुनः बना लिया। 18वीं सदी में अहमदशाह अब्दाली ने इस गुरुद्वारे पर हमला करके इसे बुरी तहर क्षतिग्रस्त कर दिया। सरदार जस्सा सिंह अहलुवालिया ने इसका पुनर्निर्माण करवाया।
ई.1757 में मुसलमानों ने पुनः स्वर्ण मंदिर पर अधिकार कर लिया। तब ई.1761 में बाबा दीपसिंह ने मुसलमानों से भयानक संघर्ष करके गुरुद्वारे को मुक्त करवाया। 19वीं शताब्दी में अफगा़न हमलावरों ने स्वर्णमंदिर को पूरी तरह नष्ट कर दिया। तब महाराजा रणजीतसिंह (ई.1801-39) ने इसे फिर से बनवाया और इसकी बाहरी दीवारों पर सोने की परत चढ़वाई।