सिक्ख गुरुओं का महान जीवन
सिक्ख धर्म में गुरु नानक से लेकर गुरु गोविन्दसिंह तक दस गुरु हुए जिनके नाम क्रमशः (1.) नानक, (2.) अंगद, (3.) अमरदास, (4.) रामदास, (5.) अर्जुनदेव, (6.) हरगोविन्द, (7.) हरराय, (8.) हरकृष्णराय, (9.) तेग बहादुर और (10.) गोविन्दसिंह है। प्रत्येक गुरु अपने अन्तिम समय में अपने उत्तराधिकारी को अपना पद सौंपकर उसे पंथ का गुरु घोषित कर दिया करते थे।
गुरु गोविन्दसिंह जब स्वर्गवासी होने लगे, तब उन्होंने ‘ग्रन्थ साहिब’ को ही पंथ का गुरु घोषित कर दिया और यह आज्ञा दी कि अब से कोई ‘व्यक्ति’ गुरु नहीं होगा। इस प्रकार दस गुरुओं के नेतृत्व में सिक्ख धर्म का विकास हुआ। इन सभी गुरुओं का जीवन सहज, सरल, सादा और परम्परागत भारतीय जीवन मूल्यों पर आधारित था।
उन्होंने तत्कालीन राजनैतिक, सामाजिक, धार्मिक, आर्थिक एवं सांस्कृतिक जीवन को गहरई तक प्रभावित किया। उन्होंने भक्ति, ज्ञान, उपासना, अध्यात्म एवं दर्शन को उच्च जातियों के संकीर्ण दायरे से निकालकर समाज के प्रत्येक वर्ग तक पहुँचाया।
सिक्ख गुरुओं ने मनुष्य को उद्यम करते हुए जीवन जीने, कमाते हुए सुख प्राप्त करने और ध्यान करते हुए निरंकार ईश्वर को प्राप्त करने की बात कही। उनका मानना था कि परिश्रम करने वाला व्यक्ति सभी चिन्ताओं से मुक्त रहता है। गुरु नानक के अनुसार जो व्यक्ति मेहनत करके कमाता है और उसमें कुछ दान-पुण्य करता है, वही सही मार्ग को पहचानता है।
सिक्ख गुरुओं द्वारा प्रारंभ की गई ‘लंगर’ (निःशुल्क भोजन) प्रथा विश्व-बन्धुत्व, मानव-प्रेम, समानता एवं उदारता की मिसाल है। सिक्ख गुरुओं ने अन्धी नकल के खिलाफ वैकल्पिक चिन्तन पर जोर दिया। शारीरिक-अभ्यास एवं विनोदशीलता को जीवन का आवश्यक अंग माना। पंजाब के लोकगीतों, लोकनृत्यों एवं ‘होला-महल्ला’ पर शास्त्रधारियों के प्रदर्शित करतबों के मूल में सिक्ख गुरुओं के प्रेरणा-बीज ही हैं।
गुरु अंगद के समय में सिक्ख धर्म
गुरु नानक के वचनों को सर्वप्रथम गुरु अंगद ने ‘गुरुमुखी’ लिपि में लिखा। तभी से गुरुओं के उपदेशों का संकलन आरम्भ हुआ तथा गुरुमुखि लिपि आरम्भ हुई। गुरु अंगद ने सिक्ख धर्म में लंगर को प्रधानता दी।
गुरु अमरदास के समय में सिक्ख धर्म
तीसरे गुरु अमरदास ने प्रत्येक आगंतुक के लिए ‘गुरु के लंगर’ में भोजन करना आवश्यक किया। उन्होंने औरतों में पर्दे और सती-प्रथा की निन्दा की तथा धर्म-प्रचार के लिए ‘बाईस मज्झी’ ( बाईस गद्दी) कायम की।
गुरु रामदास के समय में सिक्ख धर्म
चौथे गुरु रामदास ने अमृतसर की स्थापना की, जो पहले रामदासपुर कहलाता था और कालान्तर में सिक्ख धर्म का प्रमुख तीर्थ स्थान बना।
गुरु अर्जुन देव के समय में सिक्ख धर्म
पाचँवे गुरु अर्जुनदेव (ई.1581-1606) ने अमृतसर के तालाब को पूरा करवाया और उसके बीच में प्रसिद्ध सूफी संत मियां मीर के हाथ से हरमन्दर साहब की बुनियाद रखवाई। इस मन्दिर के चारों तरफ दरवाजे थे, जिसका अर्थ था कि यह चारों दिशाओं के मनुष्यों और चारों वर्णों की जातियों के लिए खुला था। इसमें ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र समान रूप से आ सकते थे। उन्होंने जलन्धर दोआब में करतारपुर भी बसाया और तरनतारन में गुरुद्वारा स्थापित किया।
उनके समय ‘आदि ग्रन्थ साहिब’ का संकलन एवं सम्पादन किया गया जिसमें गुरुवाणी को इकट्ठा कराकर रागबद्ध रूप से सज्जित किया गया। इससे सिक्खों के शास्त्र को मूर्तरूप मिल गया। एक बार किसी ने अकबर से शिकायत की कि इस ग्रन्थ में इस्लाम और अन्य धर्मों की निन्दा की गई है। इस पर अकबर ने गुरु को बुलाकर इस बारे में पूछा। गुरु ने ग्रन्थ खोलकर कहा कि इस चाहे जहाँ से पढ़वा लो।
अकबर ने ग्रंथ में एक जगह अपना हाथ रखा। वह भाग पढ़ा गया। इस पंक्ति में निराकार ईश्वर की स्तुति की गई थी। अकबर ने प्रसन्न होकर ग्रन्थ साहिब पर इक्यावन मोहरें भेंट कीं और गुरु को वस्त्र देकर सम्मानित किया। एक बार अकबर ने दिल्ली लौटते हुए गोइन्द्रवाल में गुरु के लंगर में भोजन भी किया।
जहाँगीर, अकबर जैसा सहिष्णु नहीं था। वह गुरु की तहरीक पसन्द नहीं करता था तथा इसे कुफ्र समझता था। अकबर की मृत्यु के बाद जहाँगीर का पुत्र खुसरो भाग कर गुरु अर्जुनदेव की शरण में आया। गुरु ने पांच हजार रुपए देकर शहजादे की सहायता की। जहाँगीर ने गुरु को दिल्ली बुलवाया और उन पर दो लाख रुपयों का जुर्माना लगाया तथा आज्ञा दी कि ग्रन्थ साहिब में से वे समस्त पंक्तियाँ निकाल दें जिनसे इस्लाम का थोड़ा भी विरोध होता है।
गुरु ने दोनों आज्ञाओं को मानने से इन्कार कर दिया। इस पर जहाँगीर ने गुरु पर आमानुषिक अत्याचार किए। उन पर जलती हुई रेत डाली गई, उन्हें जलती हुई लाल कड़ाही में बैठाया गया और उन्हें उबलते हुए गर्म जल से नहलाया गया। गुरु ने समस्त उत्पीड़न सहन कर लिया। इसके बाद गुरु रावी-स्नान के बहाने कैद से बाहर आए और रावी के तट पर जाकर अपने प्राण-त्याग दिए।
इस प्रकार ई.1606 में गुरु अर्जुनदेव की हत्या के बाद सिक्खों का इतिहास पूरी रह बदल गया। अब वे भजन-कीर्तन करने वाले शांत लोग नहीं रहे, अपितु अपने सिद्धांतों के लिए लड़-मरने वाले समूहों में संगठित होने लगे। वे अवसर मिलते ही मुगलों को क्षति पहुँचाने का प्रयास करते थे। अतः मुसलमानों की हिंसा का सामना करने के लिए शांतिप्रिय सिक्ख जाति ने स्वयं को लड़का समूहों में संगठित कर लिया।
गुरु हरगोविंद के समय में सिक्ख धर्म
गुरु अर्जुनदेव के बाद छठे गुरु हरगोविन्द हुए। गुरु अर्जुनदेव के साथ जो अमानुषिक अत्याचार हुए, उससे सिक्खों में नई जागृति उत्पन्न हुई। वे समझ गए कि केवल जप और माला से धर्म की रक्षा नहीं की जा सकती। इसके लिए तलवार भी धारण करनी चाहिए और उसके पीछे राज्य-बल भी होना चाहिए। इसलिए गुरु हरगोविन्द ने ‘सेली’ (साधु का चोगा) फाड़कर गुरुद्वारे में डाली और शरीर पर राजा और योद्धा का परिधान धारण किया।
यहीं से सिक्ख-पंथ की प्रेम और भक्ति की परम्परा ने सैनिक चोला पहन लिया। गुरु हरगोविन्द ने माला और कण्ठी के बजाए दो तलवारें रखनी शुरू कीं, एक आध्यात्मिक शक्ति के प्रतीक के रूप में और दूसरी लौकिक प्रभुत्व के प्रतीक के रूप में। उन्होंने समस्त ‘मज्झियों’ के ‘मसण्डो’ (धर्म प्रचारकों) को आदेश दिया कि अब से भक्त, गुरुद्वारे में चढ़ाने के लिए द्रव्य नहीं भेजेंगे अपितु अश्व और अस्त्र-शस्त्र भेजेंगे।
उन्होंने पाँच सौ सिक्खों की एक फौज तैयार की और उन्हें सौ-सौ सिपाहियों के दस्तों में संगठित किया। उन्होंने अमृतसर में लोहागढ़ का किला बनवाया तथा लौकिक कार्यों की देख-रेख के लिए हर मन्दिर के सामने अकाल तख्त स्थापित किया।
गुरु हरगोविन्द के समय सिक्खों की मुगलों से तीन लडाइयाँ हुईं और हर लडाई में मुगलों को मुँह की खानी पडी। इससे सिक्खों की प्रतिष्ठा में वृद्धि हुई और सारा हिन्दू समाज उन्हें धर्म और संस्कृति के रक्षक के रूप में देखने लगा। सिक्खों की संख्या बढ़ाने को पूरे पंजाब में प्रायः यह परम्परा चल पड़ी कि हर हिन्दू परिवार अपने ज्येष्ठ पुत्र को गुरु की शरण में समर्पित कर दे। अभी भी पंजाब में ऐसे हिन्दू परिवार हैं जिनका एक सदस्य सिक्ख होता है और शेष पुरुष मौना सिक्ख कहलाते हैं।
ई.1628 में शाहजहाँ, अमृतसर के निकट आखेट खेल रहा था। उसका एक बाज गुरु के डेरे में चला गया। जब बादशाह के सिपाहियों ने सिक्खों से बाज लौटाने की मांग की तो सिक्खों ने शरण में आए हुए बाज को लौटाने से मना कर दिया। इस पर बादशाह की सेना ने सिक्खों पर आक्रमण कर दिया परन्तु गुरु के नेतृत्व में सिक्खों ने मुगल सेना को मार भगाया।
इस पर वजीर खाँ तथा गुरु के अन्य शुभचिंतकों ने बादशाह के क्रोध को शान्त किया। कुछ समय बाद गुरु हरगोविंद ने पंजाब में व्यास नदी के किनारे एक नए नगर का निर्माण आरम्भ किया जो आगे चल कर श्री हरगोविन्दपुर के नाम से प्रसिद्ध हुआ। पंजाब के मध्य में इस नगर का निर्माण मुगल सल्तनत के लिए हितकर नहीं समझा गया।
इसलिए बादशाह ने गुरु को आदेश दिया कि वे नगर का निर्माण नहीं करें किंतु सिक्खों ने इस आदेश की उपेक्षा करके नगर का निर्माण पूर्ववत् जारी रखा। सिक्खों के विरुद्ध पुनः एक सेना भेजी गई जिसे गुरु हरगोविंद के सिक्खों ने मार भगाया। इस बार पुनः मामला किसी तरह शांत किया गया।
गुरु का मुगलों से तीसरा संघर्ष एक चोरी के कारण हुआ। बिधीचन्द्र नामक एक कुख्यात डाकू गुरु का परम भक्त था। उसने शाही अस्तबल से दो घोड़े चुराकर गुरु को भेंट कर दिए। गुरु ने अनजाने में वे घोड़े स्वीकार कर लिए। इसलिए ई.1631 में गुरु के विरुद्ध मुगल सेना भेजी गई परन्तु सिक्खों ने उसे खदेड़ दिया तथा सात मस्जिदों पर अधिकार जमाकर उन्हें अपने काम में लेने लगे। शाहजहाँ ने सेना भेजकर उन्हें मस्जिदों से बाहर निकाला।
मुगलों से निरन्तर संघर्ष के कारण सिक्ख गुरु द्वारा किए जाने वाले धर्म-प्रचार के कार्य में बाधा उत्पन्न होने लगी तथा सिक्खों को बड़ा कष्ट उठाना पड़ा। गुरु हरगोविंद जानते थे कि सिक्खों की शक्ति एवं साधन अत्यंत सीमित हैं जबकि मुगल सल्तनत की शक्ति एवं साधन असीमित हैं, सिक्ख बहुत दिनों तक इस संघर्ष में नहीं टिक सकेंगे। इसलिए गुरु हरगोविंद आध्यात्मिक चिन्तन के लिए काश्मीर की पहाड़ियों में चले गए और कीरतपुर नामक स्थान पर निवास करने लगे। माना जाता है कि गुरु हरगोविन्द ने ही सिक्खों को मांस खाने की अनुमति प्रदान की। ई.1645 में गुरु हरगोविंद का निधन हो गया।
गुरु हरराय के समय में सिक्ख धर्म
सातवें गुरु हरराय की भी औरंगजेब से नहीं बनी किंतु उनके समय में मुगलों से कोई लड़ाई नहीं हुई और सिक्ख धर्म के संगठन का काम जारी रहा।
गुरु हरकिशन के समय में सिक्ख धर्म
आठवें गुरु हरकिशन के समय भी सिक्ख धर्म के संगठन का कार्य निरंतर चलता रहा। उन्होंने बुद्धिमत्ता से काम लेते हुए अपने निकटतम सम्बन्धी की बजाए गुरु अर्जुन के पौत्र तेग बहादुर को अपना उत्तराधिकारी बनाया, जो सिक्ख धर्म के नौवें गुरु बने।
गुरु तेगबहादुर के समय में सिक्ख धर्म
जिस समय तेगबहादुर (ई.1664-75) सिक्खों के गुरु बने, औरंगजेब का दमन-चक्र जोरों पर था तथा हिन्दुओं को बलपूर्वक मुसलमान बनाया जा रहा था। औरंगजेब ने हिन्दू-मन्दिरों की भाँति सिक्ख-गुरुद्वारों को भी तुड़वाना आरम्भ कर दिया। इस पर गुरु तेगबहादुर ने विद्रोह का झण्डा बुलंद किया। जब कश्मीर के कुछ पण्डितों को इस्लाम ग्रहण करने के लिए मजबूर किया गया तो वे आनन्दपुर आकर गुरु तेगबहादुर से मिले।
गुरु ने कहा- ‘किसी महापुरुष के बलिदान के बिना धर्म की रक्षा असम्भव है।’ उस समय उनके पुत्र गोविन्दसिंह ने कहा- ‘पिताजी, आपसे बढ़कर दूसरा महापुरुष कौन होगा?’ गुरु तेगबहादुर को यह परामर्श उचित लगा। उन्होंने कश्मीरी पंडितों से कहा कि औरंगजेब को समाचार भेज दो कि- ‘यदि तेग बहादुर इस्लाम स्वीकार कर ले तो समस्त हिन्दू खुशी-खुशी मुसलमान बन जाएंगे।’
औरंगजेब ने गुरु तेगबहादुर को अपने दरबार में बुलावया। गुरु वहाँ हाजिर तो हुए किंतु उन्होंने इस्लाम स्वीकार करने से इन्कार कर दिया। इस पर 11 नवम्बर 1675 को दिल्ली के चाँदनी चौक में उनकी हत्या कर दी गई। इससे सिक्खों की क्रोधाग्नि और भड़क उठी।
गुरु गोबिंदसिंह के समय में सिक्ख धर्म
जब गुरु तेगबहादुर पूर्वी भारत में दौरा कर रहे थे और उनका परिवार पटना में ठहरा हुआ था तब ई.1666 में पटना में गोविन्दसिंह का जन्म हुआ। पाँच वर्ष वहाँ रहकर वे आनन्दपुर आए और सातवें वर्ष में पढ़ने बैठे। साहिबचन्द ग्रन्थी ने उन्हें संस्कृत और हिन्दी तथा काजी पीर मुहम्मद ने फारसी सिखाई। उन्होंने शीघ्र ही इन भाषाओं पर अधिकार कर लिया।
आरम्भ से ही उन्हें साहित्य का जो व्यसन लगा, वह अन्त तक रहा। नौ वर्ष की आयु में जब उनके पिता दिल्ली में शहीद हुए तब पंथ का भार गोविन्दसिंह के कन्धों पर आ गया। गोविन्दसिंह सिक्खों के दसवें गुरु हुए। उन्होंने सिक्खों को सैनिक जाति में परिवर्तित कर दिया।
गुरु गोविन्दसिंह ने आनन्दपुर के वैशाखी मेले मे सिक्खों को एकत्रित किया। उन्होंने एक बड़े चबूतरे पर चारों ओर से कनात खड़ी करवाकर उसके भीतर कुछ बकरे बँधवा दिए। त्तपश्चात वे तलवार खींच कर कनात से बाहर आए और कहा कि धर्म की रक्षा के लिए चण्डी बलिदान चाहती है। तुममें से जो प्राण देने को तैयार हो वह कनात में आए। मैं अपने हाथों महाचण्डी के आगे उसका बलिदान करूँगा।
गुरु के पुकारने पर एक आदमी कनात में जाता, गुरु उसे वहीं बिठा देते और एक बकरे की गरदन काटकर रक्त-भरी तलवार लिए बाहर निकल आते। इस प्रकार पाँच वीर कनात के भीतर पहुँचे। गुरु ने फिर पुकार लगाई किंतु जब कोई और व्यक्ति बलिदान के लिए प्रस्तुत नहीं हुआ, तब गुरु ने उन पाँच वीरों को बाहर निकाला और कहा ये ‘पाँच प्यारे धर्म के खालिस अर्थात् शुद्ध सेवक हैं और उन्हें लेकर मैं आज से खालसा-धर्म की नींव डालता हूँ।’
उसी समय, उन्होंने एक कड़ाह में पवित्र जल भरवाया, उनकी धर्मपत्नी ने उसमें बताशे घोले और गुरु ने तलवार से उस जल को आलोड़ित किया तथा तलवार से ही उसे ‘पाँच प्यारों’ पर छिड़का। इसी अमृत को पीकर लोग खालसा-धर्म की सेवा में प्रवृत्त हुए। इस प्रकार गुरु गोविंदसिंह ने ‘खालसा’ की स्थापना की। खालसा का अर्थ होता है- ‘शुद्ध’।
उन्होंने 30 मार्च 1699 के दिन खालसा पंथ की शिक्षाओं को अंतिम रूप दिया। तब से यह पंथ खालसा धर्म कहलाने लगा। इस पंथ के अनुयाई, हिन्दू-धर्म की रक्षा के लिए प्रत्येक समय प्राणोत्सर्ग करने के लिए तैयार रहते थे।
गुरु गोबिंदसिंह अपने शिष्यों को उपदेश देते थे कि केवल ‘शाप’ ही नहीं ‘शर’ का भी प्रयोग करना चाहिए। उनकी कविताओं में अद्भुत तेज था। जिस परमात्मा को गुरु नानक ‘निरंकार पुरुख’ कहते थे, उस परमात्मा के नाम गुरु गोविन्दसिंह ने असिध्वज, महाकाल और महालौह रखे। सिक्ख-धर्म का वर्तमान संगठन काफी अंशों तक गुरु गोविन्दसिंह द्वारा ही किया गया।
उन्होंने सिक्खों में पगड़ी बाँधने की प्रथा प्रारम्भ की तथा ‘पंच-ककारों’ को धारण करना समस्त सिक्खों के लिए अनिवार्य बनाया। ये पाँच ककार हैं- (1.) कंघी (बाल सुलझाने के लिए) (2.) कच्छ (फुर्ती के लिए) (3.) कड़ा (यम, नियम और संयम का प्रतीक) (4.) कृपाण (आत्मरक्षा के लिए) तथा (5.) केश (जिसे प्रायः समस्त गुरु धारण करते आए थे)।
गुरु गोविन्दसिंह ने सिक्ख धर्म में मदिरा और तम्बाकू को वर्जित किया। सिक्खों के लिए जो कर्म निषिद्ध हैं उनका उल्लेख ‘रहतनामा’ में मिलता है। रहतनामा में केश-कर्तन को महान् अपराध माना गया है।
गुरु गोविन्दसिंह की तैयारियों से औरंगजेब घबरा गया। उसने गुरु की राजधानी आनन्दपुर पर जबरदस्त घेरा डाला किन्तु गुरु हाथ नहीं आए। आनन्दपुर से भागते हुए उनके दो पुत्र जोरावर सिंह और फतेहसिंह, गायब हो गए। किसी ने उनके दोनों पुत्रों को सरहिन्द के शासक वजीरखाँ के हाथों में सौंप दिया। वजीर खाँ ने उन बालकों से इस्लाम स्वीकार करने के लिए कहा परन्तु उन बालकों ने भी अपने दादा की भांति, इस घृणित प्रस्ताव को ठुकरा दिया। इस पर वजीर खाँ ने उन्हें जीवित ही दीवार में चुनवा दिया गया।
गुरु गोविन्द सिंह ने औरंगजेब की धर्मान्ध नीति के विरुद्ध उसे फारसी भाषा में एक लम्बा पत्र लिखा जिसे ‘ज़फ़रनामा’ कहा जाता है। इस पत्र में औरंगजेब के शासन-काल में हो रहे अन्याय तथा अत्याचारों का मार्मिक उल्लेख है। इस पत्र में नेक कर्म करने और मासूम प्रजा का खून न बहाने की नसीहतें, धर्म एवं ईश्वर की आड़ में मक्कारी और झूठ के लिए चेतावनी तथा योद्धा की तरह युद्ध के मैदान में आकर युद्ध करने की चुनौती दी गई है।
औरंगजेब ने एक विशाल सेना गुरु के विरुद्ध भेजी। गुरु परास्त हो गए। औरंगजेब ने सन्धि करने के लिए गुरु को दक्षिण में आमंत्रित किया। गुरु गोविंदसिंह दक्षिण की तरफ रवाना हुए किंतु गुरु द्वारा औरंगजेब से भेंट किए जाने से पहले ही औरंगजेब का निधन हो गया। गुरु गोविन्दसिंह ने उत्तराधिकार के युद्ध में औरंगजेब के पुत्र बहादुरशाह के प्रति सहानुभूति प्रदर्शित की और उसके साथ दक्षिण की तरफ गए परन्तु गोदावरी के किनारे नानदेड़ नामक स्थान पर दो अफगान पठानों ने छुरे से वार करके गुरु को घायल कर दिया। गुरु ने अपनी मृत्यु से पहले ही घोषणा की कि मेरे बाद सिक्ख धर्म में कोई गुरु नहीं होगा तथा ‘ग्रंथ साहब’ को ही गुरु माना जाएगा।