बंदा बैरागी के समय में सिक्ख धर्म
गुरु गोबिंदसिंह जब घायल होकर मृत्यु शैय्या पर लेटे हुए थे तब माधवदास नामक एक वैरागी उनसे भेंट करने आया। उसने स्वयं को गुरु का बन्दा (दास) कहा। गुरु ने उसे बन्दा बहादुर के नाम से पुकारा। गुरु ने बन्दा बहादुर को सिक्खों की सुरक्षा का दायित्व सौंपा तथा अपने पाँच मुख्य अनुयाई तथा कुछ अन्य सिक्ख अनुयाई उसके साथ करके उसे पंजाब जाने का आदेश दिया। बन्दा जब दिल्ली पहुँचा तभी उसे गुरु की मृत्यु का समाचार मिला। उसने गुरु के आदेश को मानकर सिक्खों को नेतृत्व प्रदान किया।
वह इतिहास में बंदा बैरागी के नाम से प्रसिद्ध हुआ। उसने सिक्खों से मुगलों के अत्याचार के विरुद्ध संघर्ष करने का आह्नान किया तथा सोनीपत से मुगल अधिकारियों के विरुद्ध सशस्त्र संघर्ष आरम्भ किया और वहाँ के मुगल फौजदार को युद्ध में परास्त किया। उसने शाहबाद, मुस्तफाबाद आदि स्थानों को जीतते हुए सरहिन्द पर आक्रमण किया जहाँ के फौजदार वजीर खाँ ने गुरु के दो पुत्रों को दीवार में जिन्दा चुनवाया था। वजीर खाँ युद्ध में मारा गया। उसकी अपार सम्पत्ति बन्दा के हाथ लगी।
बन्दा ने सरहिन्द के 28 परगने अपने अधीन कर लिये। बन्दा की इन सफलताओं ने उसे अत्यन्त लोकप्रिय बना दिया। बन्दा का उद्देश्य पंजाब में एक स्वतंत्र सिक्ख राज्य की स्थापना करना था। इसके लिए उसने लौहगढ़ को राजधानी बनाया, गुरु नानक और गुरु गोविन्दसिंह के नाम के सिक्के चलाए और सिक्ख राज्य की एक सील या मुहर भी बनवायी।
बन्दा ने सरहिन्द क्षेत्र में मुगल अधिकारियों को हटाकर सिक्ख अधिकारियों को नियुक्त किया। इस प्रकार उसने सबसे पहले सिक्ख राज्य की स्थापना की किंतु बन्दा बहादुर ने स्वयं न तो कोई पदवी धारण की और न कभी दरबार लगाया। उसने सभी कार्य गुरु के नाम से किए। मुगल बादशाह पहले तो राजपूत शासकों के विरोध को दबाने में और फिर दक्षिण भारत के राज्यों के विरोध दबाने में व्यस्त रहा।
इसका लाभ उठाते हुए बन्दा बहादुर ने पंजाब से बाहर निकलकर गंगा-यमुना दोआब में सहारपुर और उसके निकट के क्षेत्रों तक आक्रमण किए। बहादुरशाह ने अपने प्रमुख अमीरों को सिक्खों का दमन करने का उत्तरदायित्त्व सौंपा। उसने स्वयं भी पंजाब की तरफ प्रस्थान किया। दिसम्बर 1710 में मुगलों ने बन्दा के केन्द्र लौहगढ़ पर अधिकार कर लिया परन्तु बन्दा भाग निकला। इससे पहले कि सिक्ख विद्रोह पूर्ण रूप से कुचल दिया जाता, फरवरी 1712 में बहादुरशाह की मृत्यु हो गई तथा जहांदारशाह बादशाह हुआ।
जहांदारशाह ने गुरु गोविन्दसिंह के दत्तक पुत्र अजीतसिंह को मान्यता देकर सिक्खों में फूट का बीज बोया किंतु बंदा बैरागी का मुगलों के विरुद्ध संघर्ष चलता रहा। जहाँदारशाह केवल 10 माह के शासन के बाद अपने भतीजे फर्रूखसीयर द्वारा मार दिया गया। फर्रूखसीयर ने फीरोज खाँ के नेतृत्व में एक सेना बन्दा के विरुद्ध भेजी। बन्दा भागकर पहाड़ों में छिप गया।
उसकी राजधानी लौहगढ़ पर मुगलों का अधिकार हो गया। बन्दा बहादुर ने साहस नहीं छोड़ा। वह निरन्तर मुगलों से संघर्ष करता रहा। ई.1716 में गुरुदास-नांगल नामक स्थान पर बन्दा बहादुर को मुगल सेना ने घेर लिया। आठ माह तक मुगल सेना से घिरे रहने के बाद विवश होकर बन्दा बहादुर ने आत्म-समर्पण कर दिया। उसे तथा उसके साथियों को दिल्ली ले जाया गया, जहाँ उसे इस्लाम स्वीकार करने को कहा गया।
उसकी अस्वीकृति के बाद उसे तथा उसके साथियों का निर्ममता से हत्या की गई। बन्दा की मृत्यु के बाद सिक्ख नेतृत्व-विहीन हो गए। जब सिक्खों के सामने न गुरु रहा, न गुरु का बन्दा, तब सिक्खों ने सरबत खालसा और गुरुमत्ता की प्रथाएँ आरम्भ कीं। वर्ष में दो बार- बैशाखी और दीवाली पर, सिक्खों ने विशाल सभाएँ करनी आरम्भ कीं जिन्हें सरबत खालसा कहा जाता था। सरबत खालसा में लिये गए निर्णयों को ‘गुरुमत्ता’ कहा जाता था। बन्दा बहादुर के पश्चात् भी सिक्खों और मुगलों के बीच संघर्ष चलते रहे।
सिक्खों द्वारा दल खालसा का गठन
ई.1737 में नादिरशाह ने दिल्ली पर आक्रमण किया। उसके बाद मुगल सत्ता का बिखराव चरम पर पहुँच गया था। नादिरशाह के आक्रमण के बाद सिक्खों ने स्वयं को 100-100 व्यक्तियों के छोटे दलों में संगठित कर लिया। प्रत्येक दल का एक नेता होता था। दल के सभी सदस्य अपने नेता के आदेश का पालन करते थे। ई.1748 में सभी दलों ने मिलकर दल खालसा का गठन किया।
दल खालसा में सम्मिलित सभी दलों को पुनः 11 जत्थों में विभाजित किया, जो बाद में ‘मिसलों’ के नाम से विख्यात हुए। इन मिसलों के पराक्रमी और योग्य सिक्ख नेताओं ने पंजाब के भिन्न-भिन्न भागों में अपने-अपने राज्य स्थापित कर लिये। धीरे-धीरे सम्पूर्ण पंजाब में 12 छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गए। आगे चलकर महाराजा रणजीतसिंह (ई.1801-39) ने इन मिसलों को जीतकर पंजाब में एक शक्तिशाली राज्य स्थापित किया। इस प्रकार पंजाब मुगल सल्तनत से बाहर हो गया।
सिक्ख धर्म पर हिन्दू-धर्म का प्रभाव
सिक्ख धर्म भले ही आध्यात्मिक रूप से एवं बाह्य रूप से स्वयं को हिन्दू-धर्म से अलग दिखाता है किंतु व्यावहारिक रूप में सिक्ख धर्म पर हिन्दू-धर्म का गहरा प्रभाव है। गुरु ग्रंथ साहब में कई ऐसे पद हैं जिनमें हिन्दू देवी-देवताओं के नाम हैं। भाई गुरदास ने ‘आदि ग्रंथ साहब’ का संकलन किया था जिसे आगे चलकर ‘गुरुग्रंथ साहब’ कहा गया।
उन्हीं भाई गुरदास द्वारा रचित ‘भाई गुरदास की वारों’ में मूर्ति-पूजा तथा कर्म-सिद्धांत पर आधारित कई रचनाएं हैं जो ‘गुरमत’ के विरुद्ध हैं। फिर भी गुरु अर्जुनदेव ने उनकी रचना को ‘गुरबानी की कुंजी’ कहकर सम्मान दिया।
राष्ट्रकवि रामधारीसिंह दिनकर के अनुसार सिक्ख-धर्म और हिन्दुत्व, ये दो नहीं, एक ही धर्म हैं। हिन्दुत्व का स्वभाव है कि उस पर जैसी विपत्ति आती है तब वह वैसा ही रूप अपने भीतर से प्रकट करता है। इस्लामी हमले से बचने के लिए अथवा उनका उत्तर देने के लिए हिन्दुत्व ने इस्लाम के अखाड़े में अपना जो रूप प्रकट किया, वही सिक्ख या खालसा-धर्म है।
सिक्ख गुरुओं ने हिन्दू-धर्म की रक्षा के लिए अपनी गर्दने कटवाईं। उन्होंने अपना जो सैनिक संगठन खड़ा किया, उसका लक्ष्य भी हिन्दू-धर्म को जीवित एवं जागरूक रखना था। यद्यपि सिक्ख गुरुओं ने निराकार ईश्वर की भक्ति पर जोर दिया किन्तु सिक्खों ने कभी भी सगुण-साकार उपासना का विरोध नहीं किया।
गोविन्दसिंह ने ‘किसुन-विसुन’ के अस्तित्त्व से इन्कार किया किन्तु ‘चण्डी’ की स्तुति भी की। रामकथा पर भी उन्होंने सुन्दर खण्डकाव्य लिखा। व्यवाहारिक रूप में सिक्ख गुरु, अवतारों तथा हिन्दू देवी-देवताओं में श्रद्धा रखते थे। सिक्ख ग्रन्थों में लिखा है-
रामकथा जुग जुग अटल, जो कोई गावे नेत।
स्वर्गवास रघुवर कियो, सगली पुरी समेत।
सैद्धांतिक रूप में भले ही सिक्ख धर्म जांति-पांति में विश्वास नहीं करता किंतु व्यववारिक रूप में सिक्ख समाज ने हिन्दू समाज की बहुत सी कुरीतियाँ स्वीकार कर लीं जिनमें जाति-पांति भी है। सिक्खों में भी जटसिक्ख, माली सिक्ख, कुम्हार सिक्ख, चमार सिक्ख सहित कई जातियाँ है तथा छुआछूत भी मौजूद है।
विवाह सम्बन्धों पर वैसे ही नियन्त्रण हैं, जैसे हिन्दू समाज में हैं। जटसिक्ख आदि जातियां बन गई हैं। बहुत से सिक्ख गंगाजी नहाते हैं तथा हिन्दू-मंदिरों में जाते हैं। बहुत से सिक्ख देवी के भक्त हैं। इस प्रकार सिक्ख सम्प्रदाय, हिन्दू-धर्म के काफी निकट बना हुआ है।
सिक्ख मत की हिन्दू-धर्म, सूफी मत और इस्लाम से तुलना
एक पाश्चात्य लेखक ने लिखा है- ‘सिक्ख धर्म सनातन धर्म की अरबी टीका और आर्य समाज इस्लाम का संस्कृत में अनुवाद है।’ यदि इस टिप्पणी पर विचार किया जाए तो स्पष्ट हो जाएगा कि सिक्ख धर्म और कुछ नहीं हिन्दू-धर्म का ही बदला हुआ रूप है।
गुरु नानक की शिक्षाओं से स्पष्ट होता है कि वे वेदान्त दर्शन से अत्यंत प्रभावित थे। उन पर सूफियों की धर्म-साधना का भी प्रभाव पड़ा था किन्तु इस्लामी दर्शन का नहीं। हजरत मुहम्म्द तथा गुरु नानक दोनों ही एकेश्वरवादी थे किन्तु इन दोनों के ईश्वर के स्वरूप में बहुत अंतर था।
मुहम्मद के अनुसार अल्लाह सातवें आसमान पर रहता है एवं मनुष्यों के सुख-दुःख तथा भक्ति-अभक्ति से उसका सम्बन्ध है किन्तु गुरु नानक का ‘एक-ओंकार’, ‘निराकार पुरुष’ है। सिक्ख धर्म के दर्शन और इस्लाम के दर्शन में, विशेषतः ईश्वर के स्वरूप को लेकर वही भिन्नता है जो वेदान्त और कुरान के बीच मिलती है। इस प्रकार सिक्ख धर्म और इस्लाम की नींव ही बिल्कुल अलग है। इस्लाम की अपेक्षा वह वेदानत के अधिक निकट है।
गुरु नानक का सृष्टि विकास का सिद्धान्त, वेदान्त का सिद्धान्त है। वे कर्म को मानते थे, पुनर्जन्म को मानते थे, निर्वाण और माया को मानते थे तथा ब्रह्मा, विष्णु और महेश के त्रिदेवत्व में विश्वास करते थे। उनका गुरु-परम्परा में, जो विश्वास था, वह हिन्दू-धर्म तथा सूफी मत दोनों से प्रेरित है। इस्लाम में वैराग्य का कोई स्थान नहीं है जबकि हिन्दू-धर्म एवं सूफी मत दोनों में वैराग्य की बड़ी महिमा है।
इस्लाम में नाम जप, ध्यान, समाधि और योग बिल्कुल अलग तरह का है जबकि सिक्ख धर्म का नाम जप, ध्यान, समाधि और योग बिल्कुल हिन्दुओं जैसा है। गुरु नानक की सबसे बड़ी शिक्षा यह थी कि परमात्मा विश्व के कण-कण में व्याप्त है। इसलिए निखिल सृष्टि को ब्रह्ममय समझकर उसे प्रणाम करो। हिन्दू-धर्म भी इस सिद्धांत पर सर्वाधिक विश्वास करता है जबकि इस्लाम में केवल अल्लाह के अलावा और किसी की इबादत स्वीकार्य नहीं है।
गुरु नानक स्वयं को न हिन्दू मानते थे, न मुसलमान। वे जिसे ‘सिक्ख धर्म’ कहते थे, वह उनकी दृष्टि में ‘सुधरा हुआ हिन्दू’ और ‘सुधरा हुआ मुसलमान’ दोनों हो सकते थे। आरम्भ में उनके पंथ में बहुत-से मुसलमान भी दीक्षित हुए। कालान्तर में सिक्खों का मुसलमानों से राजनीतिक वैर हो गया जिसके कारण मुसलमानों ने सिक्ख बनना छोड़ दिया। ‘रहतनामा’ में गुरु की स्पष्ट आज्ञा है कि खालसा-धर्म (अर्थात् शुद्ध धर्म) हिन्दू और मुस्लिम, दोनों धर्मों से अलग हैं।
सिक्ख धर्म के प्रगतिशील तत्त्व
सिक्ख धर्म आरम्भ से ही प्रगतिशील रहा। जाति-पांति, मूर्ति-पूजा और तीर्थ के साथ वह सती-प्रथा, शराब और तम्बाकू को भी निषिद्ध मानता है। इस धर्म ने पर्दा-प्रथा का घोर विरोध किया। कहा जाता है कि सिक्खों के तीसरे गुरु अमरदास से एक रानी मिलने आई किन्तु वह पर्दे में थी। अतः गुरु ने उससे मिलने से इन्कार कर दिया।
सिक्ख धर्म के गुरु, वैराग्य को उच्च-जीवन के लिए आवश्यक मानते थे किंतु उसे वे गृहस्थों पर जबरदस्ती लादने के विरुद्ध थे। खान-पान में खालसा-धर्म में वैष्णवों जैसी कट्टरता नहीं है। एक हिन्दू पंडित प्रतापमल का पुत्र जब मुसलान बनने लगा, तब उससे कहा गया कि यदि तुम खान-पान की स्वतंत्रता के लिए हिन्दू-धर्म को छोड़ना चाहते हो तो अच्छा है कि मुसलमान न होकर सिक्ख हो जाओ।
गुरुओं ने सभी धर्मों और जातियों के लोगों को सिक्ख धर्म में दीक्षित किया। उन्होंने आने वाली शताब्दियों के लिए नए मनुष्य का सृजन किया जो जातियों एवं धर्मों में विभक्त न होकर धर्म, मानव एवं देश के संरक्षण के लिए तत्त्पर रहने वाला था। सबको साथ लेकर चलने की सामाजिक संचरना, सिक्ख धर्म की सबसे बड़ी विशेषता है।