कुछ सिक्खों ने सिक्खिस्तान बनाने की मांग की!
पंजाब सदियों से हिन्दुओं की भूमि थी। ई.1881 की जनगणना में पंजाब की कुल जनसंख्या 1.76 करोड़ थी जिसमें से 43.8 प्रतिशत हिन्दू, 8.2 प्रतिशत सिक्ख, 47.6 प्रतिशत मुस्लिम, 0.1 प्रतिशत ईसाई तथा शेष अन्य धर्मों के लोग थे।
ई.1941 की जनगणना में पंजाब की कुल आबादी 3.43 करोड़ थी जिनमें से हिन्दू केवल 29.1 प्रतिशत पाए गए। मुस्लिम 53.2 प्रतिशत, सिक्ख 14.9 प्रतिशत, ईसाई 1.9 प्रतिशत तथा शेष 1.3 प्रतिशत पाए गए।
इस प्रकार 60 साल में हिन्दुओं की संख्या में 14.7 प्रतिशत की गिरावट आई, जबकि मुसलमानों की जनसंख्या में 5.6 प्रतिशत, सिक्खों की जनसंख्या में 6.7 प्रतिशत और ईसाइयों की जनसंख्या में 1.8 प्रतिशत की वृद्धि हुई थी।
इस अवधि में पंजाब के लाखों हिन्दू कहाँ चले गए, इसका कोई हिसाब गोरी सरकार के पास नहीं था।
पंजाब की भूमि पर यदि किसी का अधिकार हो सकता था तो वह हिन्दुओं एवं सिक्खों का सम्मिलित रूप से हो सकता था किंतु अब जबकि पंजाब का विभाजन होने जा रहा था, मुस्लिम लीग गुण्डागर्दी करके पंजाब पर अधिकार जमाना चाहती थी ताकि हिन्दुओं एवं सिक्खों को पंजाब से बेदखल करके पूरा पंजाब पाकिस्तान में मिलाया जा सके।
सिक्खों की वीर जाति को यह सहन नहीं हुआ। उनके नेता मास्टर तारासिंह ने अलग सिक्खिस्तान की मांग की तथा सरे आम सिक्खों का आह्वान किया कि वे मुस्लिम लीग को समाप्त कर दें। मास्टर तारासिंह के आह्वान पर सिक्खों ने 4 मार्च 1947 को लाहौर में मुस्लिम लीग एवं पाकिस्तान के विरुद्ध विशाल प्रदर्शन किया। मुस्लिम लीग के गुण्डों ने इस जुलूस पर हमला कर दिया जिससे बलवा मच गया।
मास्टर तारासिंह के सिक्खों को सिक्खिस्तान तो नहीं मिला किंतु उनकी बेवकूफी भरी कार्यवाहियों की सजा पूरी सिक्ख कौम को भुगतनी पड़ी। लाहौर, अमृतसर, तक्षशिला एवं रावलपिण्डी सहित पंजाब के लगभग सभी बड़े शहरों में मार-काट मच गई। सरकारी आंकड़ों के अनुसार 2,049 आदमी मारे गए, 1000 से अधिक लोग बुरी तरह से घायल हुए।
प्रेस रिपोर्टों के अनुसार इन दंगों में मुस्लिम लीग द्वारा मशीनगनें एवं राइफलें भी काम में ली गईं। अर्थात् पंजाब की मुस्लिम लीग सरकार ने पुलिस एवं सैनिक शास्त्रागारों के मुँह मुस्लिम लीग के गुण्डों के लिए खोल दिए थे।
जनवरी 1947 से पूरे पंजाब में मुस्लिम लीग द्वारा गुप्त-रैलियां आयोजित होती रही थीं। हिन्दुओं की मक्कारी और निर्दयता के शिकार लोगों की खोपड़ियां और तस्वीरें उन रैलियों में प्रदर्शित होतीं। यदाकदा, जिन्दा और घायल मनुष्यों को भी एक रैली से दूसरी रैली में घुमाया जाता जो सबके सामने अपने घाव दिखाते और बयान करते कि वे घाव उन्हें किस प्रकार मक्कार और निर्दय हिन्दुओं के कारण लगे।
ये रैलियां कभी गुप्त होतीं तो कभी सार्वजनिक, उस क्षेत्र की धार्मिक उदारता का भक्षण करती जा रही थीं। हिन्दुओं, मुसलमानों और सिक्खों की जिस मिली-जुली राज्य सरकार ने दस वर्षों तक सफलतापूर्वक शासन चलाया था, उसे एकाएक जो इस्तीफा देना पड़ा, उसके पीछे धार्मिक उदारता में पड़ चुकी दरारें ही थीं।
हिंसा की पहली लहर मार्च में आई जब एक सिक्ख नेता (मास्टर तारासिंह) ने मुस्लिम लीग के झण्डे को ‘पाकिस्तान मुर्दाबाद’ के नारे के साथ नीचे गिरा दिया। 3000 लोग जिनमें अधिकांश सिक्ख थे इन दंगों में मारे गए जो नगर-नगर, देहात-देहात में फूट पड़े, क्योंकि लीग के अपमान का बदला लेने के लिए मुसलमानों ने हथियार उठाकर घर से निकलने में कोई देरी नहीं की।
लगभग 1 लाख व्यक्ति लाहौर छोड़कर भाग गए। बेहद जरूरी काम से ही लोग घरों से बाहर निकलते। घर से बाहर गया हुआ मनुष्य वापस लौट कर आएगा भी या नहीं कभी भरोसा नहीं होता। जैसा कि एक पुलिस अधिकारी ने लिखा है- ‘लाहौर में मौत बिजली की तरह आया करती। यों आई, यों गई। इससे पहले कि कोई चिल्ला सके, बचाओ! लाश गिर चुकी होती। हर दरवाजा बंद, हर गली सूनी, पता ही नहीं चलता, कातिल कौन था और कहाँ चला गया।’ सिक्ख और मुसलमान दोनों, एक-दूसरे से बढ़कर हिंसा कर रहे थे। सिक्खिस्तानकी मांग का इतना भयंकर परिणाम होगा, ऐसा किसी ने नहीं सोचा था।
मार्च 1947 में मुसलमानों ने पंजाब के सिक्खों का जो संहार किया, उसकी प्रतिक्रिया में सिक्खों को भी तुरंत हथियार लेकर निकल पड़ना चाहिए था। जब ऐसा न हुआ तो सुरक्षा अधिकारियों और राजनीतिज्ञों के लिए यह घोर आश्चर्य की बात थी। उन्होंने यही समझा कि सिक्खों जैसी वीर और युद्ध-प्रिय कौम ने अपनी गर्म-जोशी खो दी है। दौलत ने उन्हें आरामपसंद बना दिया है। लेकिन सिक्खों के मानस का यह मूल्यांकन पूर्णतः गलत था।
जून के प्रारंभिक दिनों में लाहौर के एक होटल में सिक्ख नेताओं की गुप्त बैठक हुई। ये नेता तय करना चाहते थे कि यदि सचमुच विभाजन हो गया तो सिक्खों की मोर्चाबन्दी क्या हो। सिक्खों को सिक्खिस्तान कैसे मिले?
उस बैठक में मास्टर तारासिंह ने कहा- ‘जैसे जापानियों और नाजियों ने आत्म-बलिदान दिया, वैसे ही हमें भी आत्म-बलिदान के लिए तैयार हो जाना है। वह दिन दूर नहीं, जब हमारी धरती पर आक्रमण होगा और हमारी औरतों की इज्जत दांव पर लग जाएगी। उठो! इन मुगल आक्रमणकारियों को एक बार फिर तबाह कर दो। हमारी जन्मभूमि खून मांग रही है। धरती माता की प्यास हम जरूर बुझाएंगे- अपने खून से और दुश्मनों के खून से।’
कहा नहीं जा सकता कि लैरी कांलिन्स एवं दॉमिनिक लैपियर ने तारासिंह के भाषण के उक्त अंश किस स्रोत से लिए हैं! क्योंकि उन्होंने कोई स्रोत नहीं बताया है। वे लिखते हैं-
‘भारत के साठ लाख सिक्खों में से पचास लाख उन दिनों अकेले पंजाब में बसे हुए थे। भले ही वे पंजाब की कुल आबादी के मात्र 13 प्रतिशत थे किंतु 40 प्रतिशत भूमि उन्हीं के कब्जे में थी। पंजाब की अनोखी फसलों का दो-तिहाई हिस्सा सिक्खों के ही हाथों पैदा होता था। हथियारों के प्रति उनके आकर्षण का अनुमान इसी से लगाया जा सकता है कि भारतीय सशस्त्र फौज के एक तिहाई सदस्य सिक्ख थे और दोनों विश्व-युद्धों में भारतीय सेना ने जो पदक जीते, उनमें से आधे सिक्खों के ही कारण जीते।’
कुछ ही दिनों में सिक्ख जाति सिक्खिस्तान की बात भूलकर केवल इस बात पर ध्यान केन्द्रित करने वाली थी कि उनका गांव भारत में ही रह गया है या फिर पाकिस्तान में चला गया है?
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता