महाराजा सूरजमल की हत्या के बाद दिल्ली और उसके आसपास के क्षेत्रों से जाटों की पकड़ ढीली पड़ने लगी। इसका लाभ उठाकर सिक्खों ने दिल्ली तक धावे मारने आरम्भ कर दिए। एक दिन सिक्ख लाल किले में घुसकर बैठ गए।
पाठकों को स्मरण होगा कि ई.1761 में एक लाख मराठों का विनाश करने के बाद अहमदशाह अब्दाली अफगानिस्तान लौट गया था। इसके बाद पंजाब में राजनीतिक शून्यता उत्पन्न हो गई थी। इस शून्यता को भरने के लिए पंजाब के सिक्ख समूह आगे आए। उन्होंने दल खालसा के नेतृत्व में बड़ी तेजी से अपनी शक्ति का विस्तार किया। वे सिंध नदी के पूर्व से लेकर यमुना के पश्चिम तक के क्षेत्र में बड़ी तेजी से फैलने लगे।
ई.1783 में सिक्खों के 12 मिसलों ने सरबत खालसा के दौरान आयोजित गुरुमत्ता में, यमुना पार करके दिल्ली पर चढ़ाई करने का निर्णय लिया। इनका नेतृत्व सरदार बघेल सिंह ने किया। बघेल सिंह दक्षिण-पूर्वी पंजाब में करोड़-सिंघिया मिसल का मुखिया था। उस काल की समस्त प्रमुख शक्तियों- मुगलों, मराठों, रोहिलों, जाटों तथा अंग्रेजों से उसके अच्छे सम्बन्ध थे। उसके पास 12 हजार घुड़सवारों की सेना थी।
जब सिक्खों की 12 मिसलें उसके झण्डे के नीचे आ गईं तो सिक्खों के चालीस हजार घुड़सवार एक विशाल सेना की तरह दिखाई देने लगे। सरदार बघेल सिंह ने यमुना पार करके गंगा-यमुना के दो-आब में प्रवेश किया तथा मेरठ, खुर्जा, अलीगढ़, टूंडला, शिकोहाबाद, फर्रूखाबाद, आगरा सहित दिल्ली से दो-आब के बीच के विस्तृत क्षेत्र पर अधिकार कर लिया।
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इस पूरे क्षेत्र में उस काल में छोटे-छोटे राजा और नवाब बन गए थे। सरदार बघेल सिंह ने इन सब राजाओं एवं नवाबों से राखी अर्थात् कर वसूल किया। ई.1775 में उसने रोहिलों की जागीर सहारनपुर पर अधिकार कर लिया। मार्च 1776 में सरदार बघेल सिंह ने मुजफ्फरनगर के निकट मुसलमानों की एक बड़ी सेना को परास्त किया जिसके बाद गंगा-यमुना के लगभग सम्पूर्ण दो-आब पर सिक्खों का अधिकार हो गया।
8 जनवरी 1778 को सरदार बघेल सिंह ने दिल्ली पर आक्रमण किया तथा शहादरा तक का क्षेत्र अपने अधीन कर लिया। 17 जुलाई 1778 को सरदार बघेल सिंह ने पहाड़गंज तथा जयसिंहपुरा तक के क्षेत्र पर अधिकार कर लिया। जहाँ आज नई दिल्ली बसी हुई है, वहीं पर सिक्खों के सैनिक शिविर स्थापित किए गए। सिक्खों की योजना लाल किले पर अधिकार करके उस पर निशान साहिब लगाना था किंतु दुर्भाग्य से सिक्खों को अनाज की आपूर्ति मिलनी बंद हो गई और उन्हें अपना अभियान बीच में छोड़कर पंजाब लौट जाना पड़ा किंतु उन्होंने लाल किले को जीतने का लक्ष्य छोड़ा नहीं।
ई.1783 के आरम्भ में सिक्खों की सेनाओं ने दोबारा यमुना नदी पार की और वे लाल किले तक आ धमके। सरदार जस्सा सिंह अहलूवालिया एवं सरदार बघेल सिंह के नेतृत्व में 60 हजार सिक्खों ने दिल्ली को घेर लिया। 8 मार्च 1783 को सिक्खों ने मलकागंज तथा सब्जी मण्डी पर अधिकार कर लिया। बादशाह शाहआलम (द्वितीय) का पुत्र मिर्जा शिकोह थोड़े से मुस्लिम सैनिकों को लेकर सिक्खों का मार्ग रोकने के लिए आगे आया किंतु सिक्खों ने उसे बड़ी आसानी से परास्त कर दिया। शहजादा युद्ध क्षेत्र से भाग खड़ा हुआ।
9 मार्च को सिक्खों ने अजमेरी गेट पर अधिकार कर लिया। दिल्ली की जनता भाग कर लाल किले में चली गई। बघेलसिंह के 30 हजार सिक्ख सैनिक तीस हजारी क्षेत्र में जाकर बैठ गए। इसी समय जस्सासिंह रामगढ़िया भी 10 हजार सिक्ख सैनिकों को लेकर आ गया। 11 मार्च 1783 को सिक्खों ने लाल किले पर धावा बोला। बादशाह के मुट्ठी भर सिपाहियों ने लाल किले के दरवाजों को भीतर से बंद कर लिया किंतु सिक्खों को लाल किले के कुछ ऐसे कमजोर स्थानों का पता लग गया जहाँ से दीवार टूटी हुई थी और उसे लकड़ी के तख्तों से बंद किया गया था।
वहीं से सिक्ख लाल किले में घुसे। इस स्थान को अब मोरी गेट कहा जाता है। सिक्खों को लाल किले पर अधिकार करवाने में लाल किले के पूर्व मीरबख्शी नजीबुद्दौला के पुत्र जाबिता खाँ का भी हाथ था जिसने स्वयं को मीरबख्शी घोषित कर रखा था।
सिक्खों ने लाल किले से मुगलों का झण्डा उतारकर अपना केसरिया झण्डा ‘निशान साहब’ चढ़ा दिया और दीवाने आम में अपना डेरा लगाया। सिक्खों ने जस्सासिंह अहलूवालिया को दीवाने आम में एक तख्त पर बैठाकर हिन्दुस्तान का बादशाह घोषित कर दिया। जब जस्सासिंह रामगढ़िया तथा उसके साथियों ने जस्सासिंह अहलूवालिया के बादशाह बनने का विरोध किया तो अहलूवालिया ने सिक्ख एकता बनाए रखने के लिए सिंहासन खाली कर दिया।
सिक्ख लाल किले में घुस तो गए किंतु उनके लिए लाल किले पर सदा के लिए अधिकार करके बैठे रहना संभव नहीं था। उन्होंने बादशाह शाहआलम (द्वितीय) के पास संधि का एक प्रस्ताव भेजा। बादशाह ने सिक्खों द्वारा भेजी गई शर्तें स्वीकार करके उनके साथ शांति स्थापित करने की संधि कर ली। इस संधि के अनुसार बादशाह शाहआलम (द्वितीय) ने सिक्खों को तीन लाख रुपया नजराना देना स्वीकार कर लिया तथा कोटवाली को सिक्खों की सम्पत्ति मान लिया। इसके बदले में सिक्खों ने लाल किला खाली करने का वचन दिया।
इस दौरान बघेलसिंह दिल्ली एवं उसके आसपास के क्षेत्र में अपने चार हजार सिपाहियों की सहायता से गुरुद्वारों का निर्माण करवाने में लगा रहा। जब सिक्खों और बादशाह के बीच संधि हो गई तो सिक्खों ने लाल किला खाली कर दिया तथा दिल्ली से निकल कर फिर से पंजाब लौट गए।
जिस लाल किले ने नादिरशाह को 70 करोड़ रुपए और ढेरों शहजादियां तथा अहमदशाह अब्दाली को नौ करोड़ रुपए और रूप से दमदमाती शहजादियों के साथ ढेरों बेगमें भी दी थीं, उसी लाल किले ने सिक्खों को केवल 3 लाख रुपए देकर अपनी जान छुड़ाई।
सिक्ख लाल किले में इससे अधिक की रुचि नहीं रखते थे। उन्हें न तो मुगलों की औरतें चाहिए थीं और न लाल किले की सत्ता! वे तो लाल किले का मान-मर्दन करके अपने गुरुओं एवं गुरु-पुत्रों की हत्याओं का बदला ले रहे थे!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता