सामाजिक एवं धार्मिक आंदोलनों के प्रमुख कारण
मध्यकाल में मुस्लिम आक्रांताओं के अत्याचारों तथा बाद में मुस्लिम शासकों के निरंतर चलने वाले युद्ध अभियानों के कारण हिन्दू समाज ने अपने सामाजिक एवं धार्मिक ढांचे को सुरक्षित रखने के लिए जाति-प्रथा के बन्धनों को कठोर कर दिया। स्त्रियों के बचाव के लिए पर्दा-प्रथा तथा बाल-विवाह जैसी कठोर प्रथाएं अनिवार्य कर दी गईं। 18वीं शताब्दी में जब भारतीयों का पाश्चात्य संस्कृति से निकट सम्पर्क होने लगा तब भारतीय समाज में नवीन सामाजिक-धार्मिक दृष्टिकोण विकसित करने की आवश्यकता अनुभव होने लगी। इस आवश्यकता को पूरा करने के लिये राममोहन राय, केशवचन्द्र सेन, स्वामी दयानन्द सरस्वती, स्वामी रामकृष्ण परमहंस, स्वामी विवेकानन्द, ज्योति बा फूले आदि कई समाज सुधारक आगे आये।
19वीं शताब्दी में आरम्भ, समाजिक एवं धर्मिक आन्दोलनों के कई कारण थे-
(1.) हिन्दू समाज और धर्म में व्याप्त दोष: मध्यकाल में मुस्लिम आक्रांताओं से हिन्दू धर्म तथा समाज को बचाने के लिये किये गये उपायों से हिन्दुओं में कूप-मण्डूकता की स्थिति उत्पन्न हो गई तथा हिन्दू धर्म में अनेक कुरीतियां अंधविश्वास एवं कुप्रथाएं उत्पन्न हो गईं। जब 17वीं शताब्दी में ईसाई पादरियों को भारत में धर्म-प्रचार की छूट दी गई तो ईसाई मिशनरियों ने अपने धर्म का प्रचार करने के लिये हिन्दू धर्म की कटु आलोचना की। उन्होंने वेदों को गड़रियों के गीत कहकर उनका उपहास उड़ाया। वेदों तथा पुराणों में वर्णित बहुदेववाद, अवतारवाद और मूर्तिपूजा की निंदा की और विभिन्न प्रकार की कुरीतियों के लिए हिन्दू धर्म पर आक्षेप लगाये। इस प्रकार ईसाई मिशनरियों के दुष्प्रचार ने भारतीयों के लिये चुनौती खड़ी कर दी। 19वीं शताब्दी के भारत में अनेक सामाजिक एवं धार्मिक आन्दोलन ईसाई धर्मप्रचारकों की प्रतिक्रिया में आरम्भ हुए। इन आंदोलन का नेतृत्व कर रहे लोगों को यह चिंता थी कि ईसाई धर्म से हिन्दू धर्म की रक्षा किस प्रकार की जाये! प्राचीन हिन्दू धर्म को पुनः स्थापित करके पाश्चात्य सभ्यता और संस्कृति से कैसे बचा जाये! भारतीयों में व्याप्त अन्धविश्वास समाप्त करके आध्यात्मिक चिन्तन की प्रक्रिया कैसे विकसित किया जाये! आदि।
(2.) पश्चिमी शिक्षा का प्रभाव: पश्चिमी शिक्षा के प्रभाव से भारतीयों के दृष्टिकोण में व्यापक परिवर्तन आया। देश में यूरोपीय विधान, दर्शन और साहित्य का अध्ययन आरम्भ होने से भारतीयों को यूरोपीय दार्शनिकों के उत्तेजक विचारों की जानकारी हुई। वे यूरोप की उदारवादी विचारधारा से प्रभावित हुए तथा भारतीय धर्म एवं समाज को आलोचक की तरह देखने लगे। यूरोपीय दर्शन के प्रभाव से भारतीय युवक सोचने लगे कि मानवीय संबंधों का आधार परम्परागत व्यवस्था अथवा सत्ता न होकर तर्क होना चाहिए। वे, धर्म और समाज की व्यवस्थाओं के औचित्य को परखने लगे तथा परम्परागत रीति-रिवाजों के अन्धानुकरण का विरोध करने लगे। ऐसी विद्रोही मनोदशा में भारत में समाज और धर्म सुधार आंदोलन होने स्वाभाविक ही थे।
(3.) वैज्ञानिक शिक्षा का प्रभाव: 19वीं शताब्दी में हुई पश्चिम की वैज्ञानिक प्रगति से भारतीयों के चिंतन को नई दिशा मिली। वे पोंगापंथी की बातों से दूर हटने लगे। शिक्षित समाज में, विज्ञान की प्रगति से अन्धविश्वासों एवं रूढ़ियों का अन्धेरा छंटने लगा और वे अपने धर्म और समाज की बुराइयों को दूर करके, उनकी अच्छाइयों को पुनर्स्थापित करने के लिये अग्रसर हुए।
(4.) पश्चिमी सभ्यता का प्रभाव: पश्चिमी सभ्यता, भारत में शासक वर्ग की सभ्यता थी। इस कारण उसका भारतीय समाज पर प्रभाव पड़ना अवश्यम्भावी था। अँग्रेजी पढ़े-लिखे युवकों के लिए पश्चिमी सभ्यता आदर्श बन गई। पश्चिमी जीवन शैली, पश्चिम के व्यक्तिवादी विचारों, तड़क-भड़क युक्त वेशभूषा तथा ठाठदार खान-पान से भारतीय युवक इतने प्रभावित हुए कि उनकी नकल करने में गौरव समझने लगे। भारतीय धर्म और समाज से उनका विश्वास उठ गया। ऐसी स्थिति में हिन्दू बौद्धिक वर्ग ने अनुभव किया कि यदि धर्म और समाज में आवश्यक सुधार नहीं किये गये तो भारतीय धर्म और जीवन शैली समाप्त हो जाएंगे।
(5.) पश्चिमी विद्वानों द्वारा भारतीय संस्कृति की प्रशंसा: 1784 ई. में स्थापित बंगाल की एशियाटिक सोसायटी ने भारत में धर्म और समाज सुधार आन्दोलनों के विकास में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया। इस सोसायटी के तत्त्वावधान में प्राचीन भारतीय ग्रन्थों तथा यूरोपीय साहित्य का भारतीय भाषाओं में अनुवाद हुआ। पश्चिमी विद्वानों ने प्राचीन भारतीय साहित्य का अध्ययन करके, उनका अँग्रेजी भाषा में अनुवाद किया और बताया कि प्राचीन भारतीय साहित्य, विश्व सभ्यता की अमूल्य निधि है। पश्चिमी विद्वानों ने भारतीय सभ्यता के प्राचीन स्थलों एवं स्थापत्यों की खोज करके प्राचीन भारतीय सभ्यता की श्रेष्ठता स्थापित की। मैक्समूलर, विलियम जॉन्स, मानियर, विल्सन आदि विद्वानों ने प्राचीन भारतीय संस्कृति, कला और साहित्य को विश्व के समक्ष रखा जिससे भारतीयों को अपनी प्राचीन गौरमवमयी सभ्यता और संस्कृति का ज्ञान हुआ। कुछ यूरोपीय विद्वानों ने प्राचीन भारतीय आदर्शों की भूरि-भूरि प्रशंसा की जिससे भारतीयों ने अनुभव किया कि हम अपने मूल धर्म और परम्पराओं को भूल गये हैं जिससे हमारा पतन हुआ है। जब तक धर्म और समाज की बुराइयों को दूर नहीं किया जाता, भारतीयों का कल्याण असम्भव है।
(6.) भारतीय समाचार पत्रों का योगदान: भारतीय समाचार पत्र, पत्रिकाओं साहित्य आदि ने भी धार्मिक एवं सामाजिक सुधार आन्दोलनों में सक्रिय योगदान किया। भारतीयों द्वारा अँग्रेजी भाषा में पहला समाचार पत्र 1780 ई. में बंगाल गजट प्रकाशित हुआ। इसमें धार्मिक विरोध पर अधिक विचार-विमर्श होता था। 1818 ई. में बंगाली भाषा में दिग्दर्शन तथा समाचार दर्पण प्रकाशित हुए। ये भी धर्म से अधिक प्रभावित थे। 1821 ई. में राजा राममोहन राय ने साप्ताहिक संवाद कौमुदी प्रकाशित किया जिसमें उनके धार्मिक और सामाजिक विचार प्रकाशित होते थे। राजा राममोहन राय के विचारों का विरोध करने के लिए मार्च 1822 में समाचार चन्द्रिका प्रकाशित होने लगा। अप्रैल 1822 में राजा राममोहन राय ने फारसी भाषा में एक साप्ताहिक मिरातउल अखबार तथा अँग्रेजी में ब्रह्मनिकल मैगजीन निकालना प्रारम्भ किया। इस प्रकार 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में भारतीय समाचार पत्रों ने सामाजिक, शैक्षिक और धार्मिक विषयों पर चर्चा करके भारतीय जन-मानस को उद्वेलित किया तथा भारतीयों ने हिन्दू धर्म एवं समाज के उत्थान हेतु प्रयत्न आरम्भ किये। उपर्युक्त कारणों से 19वीं शताब्दी में अनेक सुधारक पैदा हुए जिन्होंने भारतीय धर्म और समाज सुधार आन्दोलनों का नेतृत्व किया।