मुस्लिम सुधार आन्दोलन
19वीं शताब्दी में भारत के मुसलमानों में भी सुधार आन्दोलन आरम्भ हुए। मुस्लिम समाज इस देश में आने से पहले ही दो प्रमुख वर्गों में विभाजित था- पहला, उच्च अभिजात्य वर्ग जिसमें बादशाह, अमीर तथा उनके परिवार के लोग थे और दूसरा, जन-साधारण जिसमें सैनिक, श्रमिक, सेवक तथा छोटे कार्य करने वाले मुसलमान थे। दूसरे वर्ग में वे मुसलमान भी थे जो मूलतः हिन्दू थे तथा अनेकानेक कारणों से मुसलमान बन गये थे। धर्म-परिवर्तन के बाद भी उनके सामाजिक स्तर में विशेष परिवर्तन नहीं हुआ था। उच्च मुस्लिम अभिजात्य वर्ग 18वीं एवं 19वीं शताब्दी में राजनीतिक प्रभुत्व खो चुका था किंतु हाथ से काम करने का अभ्यस्त नहीं होने के कारण तेजी से पिछड़ता जा रहा था। 19वीं शताब्दी के पूर्वार्द्ध में यह वर्ग दिखावे के रूप में अपनी प्रतिष्ठा बनाये रखने का प्रयास करता रहा जिससे इस वर्ग का खोखलापन और अधिक बढ़ता चला गया। 1857 ई. की सशस्त्र क्रांति की विफलता के बाद इस वर्ग की रही-सही प्रतिष्ठा भी समाप्त हो गयी, क्योंकि अँग्रेजों ने इस विप्लव के लिये उच्च वर्ग के मुसलमानों को उत्तरदायी माना था।
उच्च वर्ग के मुसलमान परिवर्तित परिस्थितियों से तारतम्य बैठाने को तैयार नहीं थे। इस कारण लागातार पिछड़ते जा रहे थे। अतः मुस्लिम समाज सुधार आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य इस वर्ग को परिवर्तित परिस्थितियों से परिचित कराना तथा पाश्चात्य शिक्षा की ओर ध्यान दिलाना था। इस कारण मुसलमानों का समाज सुधार आन्दोलन हिन्दुओं के समाज सुधार आन्दोलन से कई अर्थों में भिन्न था। मुसलमानों का सामाजिक और धार्मिक जीवन कुरान पर आधारित था। अतः प्राचीन सामाजिक और धार्मिक जीवन पद्धति में परिवर्तन करने के लिए यह आवश्यक था कि कुरान की सामयिक व्याख्या की जाये अथवा यह बताया जाये कि प्रचलित सामाजिक एवं धार्मिक पद्धति, कुरान या हदीस के अनुसार नहीं है। कुछ मुस्लिम सुधारकों ने यह भी बताने का प्रयत्न किया कि सामाजिक जीवन कुरान पर आधारित नहीं होना चाहिए। ऐसे सुधारकों का प्रभाव बहुत ही कम पड़ा, क्योंकि कुरान पर आधारित जीवन पद्धति मुस्लिम समाज में गहराई तक प्रवेश कर चुकी थी जिसे त्यागने के लिए कोई मुसलमान तैयार नहीं था।
वहाबी आंदोलन
पाश्चात्य प्रभावों के प्रति मुसलमानों की पहली प्रतिक्रिया वहाबी आंदोलन अथवा वलीउल्लाह आंदोलन के रूप में हुई। शाह वलीउल्लाह (1703-63 ई.) मुसलमानों के प्रथम नेता थे जिन्होंने इस्लाम की उदारतापूर्ण व्याख्या करने तथा मुस्लिम समाज में व्याप्त कुरीतियों को दूर करने की बात कही। उन्होंने इस्लाम की तर्कसंगत व्याख्या करने और उसे समकालीन सामाजिक व्यवस्था के अनुरूप ढालने का समर्थन किया। वलीउल्लाह ने मुस्लिम समुदाय में व्याप्त भेदभवों को समाप्त करने के लिये सुधार आन्दोलन चलाया। वलीउल्लाह के पुत्र शाह अब्दुल अजीज, उनके भतीजे मोहम्मद इस्माइल और उनके शिष्य अहमद बल्लवी ने वलीउल्लाह के विचारों को लोकप्रिय बनाने के साथ-साथ इस आंदोलन को राजनीतिक रंग भी दिया। सैयद अहमद बरेलवी के नेतृत्व में वहाबी आंदोलन ने पूर्णतः राजनीतिक स्वरूप धारण कर लिया। उनका कहना था कि अनुकूल राजनीतिक और सामाजिक परिस्थितियों से ही इस्लाम फल-फूल सकता है। उन्होंने घोषणा की कि भारत एक दार-उल हर्ब (काफिरों का देश) है और इसे दार-उल-इस्लाम (मुसलमानों का देश) बनाने हेतु समस्त गैर इस्लामी शासकों का तख्ता पलटना आवश्यक है। प्रारंभ में यह अभियान पंजाब में सिक्खों के विरुद्ध था किंतु 1849 ई. में अँग्रेजों द्वारा पंजाब का विलय कर लिये जाने के बाद, इस आंदोलन ने अँग्रेजों के विरुद्ध जेहाद खोल दिया। यह आंदोलन 1870 ई. तक सीमांत प्रदेशों, पंजाब तथा बंगाल के कई हिस्सों में जारी रहा किंतु अँग्रेज सरकार ने इसे सैनिक बल की सहायता से कुचल दिया।
अलीगढ़ आन्दोलन
सर सैयद अहमदखाँ (1817-98 ई.) ने मुसलमानों में आत्मनिर्भर बनने, अपनी सहायता आप करने तथा अँग्रेजी शिक्षा ग्रहण कर आधुनिक बनने की भावना उत्पन्न की। उनके द्वारा चलाया गया अलीगढ़ आन्दोलन उनके कार्यक्षेत्र का केन्द्र बिन्दु रहा। सर सैयद अहमदखाँ का जन्म 1817 ई. में दिल्ली में हुआ था। 20 वर्ष की आयु में वे सरकारी सेवा में चले गये। 1857 ई. के सैनिक विप्लव के समय उन्होंने अँग्रेजों की विशेष सेवा की जिससे उन्होंने अँग्रेजों की सद्भावना प्राप्त कर ली। इस सद्भावना का उपयोग उन्होंने भारतीय मुसलमानों के हित में किया। उस समय तक भारतीय मुसलमानों ने स्वयं को अँग्रेजी शिक्षा और सभ्यता से दूर बनाये रखा था। अँग्रेजों से उनके सम्बन्ध भी अच्छे नहीं थे और यही उनकी अवनति का मुख्य कारण था। सर सैयद अहमदखाँ ने अपने जीवन के दो प्रमुख उद्देश्य बनाये-
(1.) अँग्रेजों और मुसलमानों के सम्बन्ध ठीक करना।
(2.) मुसलमानों में आधुनिक शिक्षा का प्रसार करना।
अपने पहले उद्देश्य की पूर्ति के लिए सर सैयद अहमदखाँ ने मुसलमानों को समझाया कि सरकार के प्रति वफादार रहने से उनके हितों की पूर्ति हो सकती है। उन्होंने अँग्रेजों को समझाया कि मुसलमान उनके शासन के विरुद्ध नहीं हैं, अँग्रेजों द्वारा दिखाई गई थोड़ी-सी सहानुभूति से वे सरकार के प्रति वफादार हो जायेंगे। अँग्रेजों ने भी मुसलमानों का समर्थन प्राप्त करने के लिये मुसलमानों के प्रति सद्भावना प्रकट करना उचित समझा। ऐसा करके वे हिन्दुओं में बढ़ती हुए राष्ट्रीयता के विरुद्ध मुस्लिम साम्प्रदायिकता का प्रयोग कर सकते थे। इस कारण सैयद अहमदखाँ को सरलता से अपने उद्देश्य में सफलता मिल गयी।
अपने दूसरे उद्देश्य की पूर्ति के लिए सर सैयद अहमदखाँ ने 1864 ई. में गाजीपुर में एक अँग्रेजी शिक्षा का स्कूल स्थापित किया। एक वर्ष बाद अँग्रेजी पुस्तकों का उर्दू अनुवाद करने के लिए विज्ञान समाज की स्थापना की। तत्पश्चात् वे लन्दन चले गये और 1869 ई. में लन्दन यात्रा के बाद मुसलमानों की सामाजिक स्थिति को सुधारने के लिए एक आन्दोलन आरम्भ किया। दिसम्बर 1870 में उन्होंने तहजीब-उल-अखलाक नामक पत्रिका का प्रकाशन आरम्भ कर मुसलमानों को बदलती हुई परिस्थितियों से अवगत कराया। सर सैयद अहमदखाँ मुसलमानों के प्राचीन सामाजिक मूल्यों तथा रहन-सहन के तरीकों को समय के अनुकूल नहीं मानते थे। चूँकि मुसलमान अपने सामाजिक जीवन को कुरान तथा हदीस पर आधारित समझते थे, इसलिए सर सैयद अहमदखाँ को धर्म सम्बन्धी विवाद आरम्भ करना पड़ा।
सर सैयद अहमद खाँ ने कुरान का अर्थ समझाने के लिए उसकी नई व्याख्या की जिसका मुख्य आधार यह था कि समस्त सृष्टि का निर्माता अल्लाह है और वही कुरान का रचियता है। अतः कुरान वास्तविक स्थिति से भिन्न नहीं हो सकती। हदीस भी न तो कुरान के विरुद्ध हो सकती है और न वास्तविकता से भिन्न हो सकती है। कुरान की नई व्याख्या करने के लिए उन्होंने तफसील-उल-कुरान लिखना आरम्भ किया जो पूरी नहीं हो सकी। सर सैयद अहमदखाँ ने अपने समाचार पत्र तहजीब-उल-अलखाक का उद्देश्य मुसलमानों को सभ्य बनाना बताया। उन्होंने कहा कि मुस्लिम समाज तब तक सभ्य नहीं बन सकता, जब तक वह प्राचीन परम्पराओं को छोड़कर नई परम्पराओं को न अपना ले। उनकी मान्यता थी कि प्रत्येक परम्परा समय और परिस्थितियों के अनुसार अपनाई जानी चाहिए क्योंकि बदलती हुई परिस्थितियों में परम्पराएँ भी अनुपयोगी सिद्ध हो जाती हैं। उन्होंने हज करने, जकात बाँटने, मस्जिद बनवाने आदि कार्यों की कटु आलोचना की तथा मुसलमानों को पश्चिमी सभ्यता एवं पद्धति अपनाने की सलाह दी।
अलीगढ़ आन्दोलन का मुख्य उद्देश्य मुसलमानों में पश्चिमी शिक्षा को लोकप्रिय बनाना था जबकि मुसलमान अरबी, फारसी तथा धार्मिक शिक्षा को आवश्यक मानते थे तथा अँग्रेजी पढ़ना अच्छा नहीं समझते थे। अतः जिस किसी संस्था का सम्बन्ध अँग्रेजी राज्य से जुड़ा हुआ था, उससे वे अपने आपको अलग रखते थे। कुछ मुल्ला-मौलवी भी अरबी, फारसी व धार्मिक शिक्षा को ही आवश्यक मानते थे। सर सैयद अहमदखाँ ने अँग्रेजी शिक्षा प्रणाली के दोषों को मुसलमानों की अरुचि का कारण बताया। 1882 ई. में उन्होंने हण्टर कमीशन के समक्ष गवाही देते हुए कहा- ‘मुसलमान ऐसी शिक्षण संस्थाओं में नहीं जाना चाहते, जहाँ अन्य सम्प्रदाय के लोग भी पढ़ते हों, क्योंकि मुसलमान उन्हें अपने से निम्न-स्तर का मानते हैं।’ मुसलमानों की मान्यता थी कि पश्चिमी शिक्षा प्राप्त करने से अधर्म बढ़ता है तथा अँग्रेजी पढ़ना ईसाई धर्म स्वीकार करने के समान है। इस कारण अँग्रेजी शिक्षा ग्रहण करके वे काफिर कहलाये जा सकते हैं।
सर सैयद अहमदखाँ ने 1875 ई. में अलीगढ़ में मोहम्मडन एंग्लो ओरियण्टल कॉलेज की स्थापना की, जिसका आरम्भिक रूप एक प्राइमरी स्कूल था। जनवरी 1877 में लॉर्ड लिटन ने इस कॉलेज का विधिवत् उद्घाटन किया तथा उत्तर प्रदेश के गवर्नर विलियम म्यूर ने इस कॉलेज के लिए भूमि प्रदान की। इस प्रकार आरम्भ से ही इस संस्था पर अँग्रेजों की कृपा दृष्टि रही। यही कॉलेज आगे चलकर अलीगढ़ विश्वविद्यालय बना। इसमें आधुनिक विचारधारा के मुसलमानों ने शिक्षा प्राप्त की और यह अलीगढ़ आन्दोलन का केन्द्र बन गया। सर सैयद अहमदखाँ ने मोहम्मडन एजूकेशनल कांफ्रेंस की स्थापना करके ऐसे अनेक मुसलमानों को अपने साथ जोड़ लिया जो मुसलमानों को पाश्चात्य सभ्यता के सम्पर्क में लाने के उत्सुक थे।
अलीगढ़ मोहम्मडन कॉलेज मुसलमानों की शिक्षण संस्था होने के साथ-साथ सामाजिक और राजनीतिक स्थिति सुधारने का केन्द्र भी बन गया। सर सैयद अहमदखाँ की मान्यता थी कि यहाँ से अध्ययन करके निकले हुए विद्यार्थी समाज में परिवर्तन लायेंगे। इस कॉलेज में विद्यार्थी के सर्वांगीण विकास पर अधिक बल दिया जाता था। वाद-विवाद प्रतियोगिता, खेलकूद, छात्रावास में अनिवार्य रूप से निवास तथा अँग्रेज अध्यापकों व अधिकारियों से मेल-जोल बढ़ाना, कॉलेज शिक्षा के अंग थे। सर सैयद अहमदखाँ ने अँग्रेजी शिक्षा पर अधिक बल दिया, क्योंकि सरकारी नौकरी प्राप्त करने के लिए यह आवश्यक था। उनकी मान्यता थी कि किसी समुदाय में किसी व्यक्ति की प्रतिष्ठा इसी आधार पर आँकी जा सकती है कि राजकीय सेवा में उसे क्या स्थान प्राप्त है। वे प्रारम्भिक शिक्षा की अपेक्षा उच्च शिक्षा पर अधिक बल देते थे। अलीगढ़ मोहम्मडन कॉलेज के विद्यार्थी मुस्लिम सम्प्रदाय के हितों के लिए अधिक प्रयत्नशील रहते थे।
19वीं शताब्दी में मुसलमानों में समाज सुधार का मुख्य कार्य पुरुषों की अँग्रेजी शिक्षा तक सीमित था। सर सैयद अहमदखाँ मुस्लिम स्त्रियों के लिए शिक्षा को अनावश्यक तथा पर्दा-प्रथा को अनिवार्य मानते थे। वे बहु-विवाह को तर्क-संगत मानते थे। वे स्त्रियों को कुशल माताएँ व गृहणियाँ बनाने के पक्षधर थे न कि नौकरी करने वाली औरत। अतः अलीगढ़ आन्दोलन स्त्रियों के लिए परम्परागत शिक्षा तथा जीवन पद्धति को बदलने के पक्ष में नहीं था।
अलीगढ़ आन्दोलन एक ओर तो मुसलमानों में पश्चिमी सभ्यता के प्रति नया दृष्टिकोण लाने में सफल रहा किन्तु दूसरी ओर इसने मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बहुत बढ़ावा दिया। अलीगढ़ कालेज के प्रथम प्रिंसिपल थियोडोर बेक की प्रेरणा से 1893 ई. में मुसलमानों का एक संगठन बना जिसका लक्ष्य भारतीय मुसलमानों को राजनीति से पृथक् रखना था। बेक के बाद जब मौरिसन, कॉलेज का प्रिन्सिपल बना तो उसने राष्ट्रीय काँग्रेस का विरोध करने के लिए मुसलमानों को संगठित करना आरम्भ किया। स्वयं सर सैयद अहमदखाँ भी काँग्रेस के कट्टर विरोधी हो गये। अधिकांश अवसरों पर उन्होंने साम्प्रदायिक कट्टरता से ओत-प्रोत विचार प्रकट किये। अलीगढ़ कॉलेज के प्रिन्सिपल आर्किबॉल्ड तथा अलीगढ़ कॉलेज के मन्त्री नवाब मोशी-उल-मुल्क की प्रेरणा से 1906 ई. में मुस्लिम लीग की स्थापना हुई। अलीगढ़ आन्दोलन भारतीय राष्ट्रीयता और राजनीति का विरोधी रहा। इस विरोध के कई कारण थे-
(1.) सर सैयद अहमदखाँ तथा उनका अलीगढ़ आन्दोलन प्रारम्भ से ही अँग्रेजों की सहानुभूति पर निर्भर थे। अतः यह आवश्यक था कि वे प्रगतिशील एवं राष्ट्रीय हिन्दुओं के विरुद्ध ब्रिटिश कूटनीति का समर्थन करें।
(2.) सर सैयद अहमदखाँ पश्चिमी सभ्यता से अत्यधिक प्रभावित थे इसलिए वे अँग्रेजों के बहुत बड़े समर्थक थे।
(3.) सर सैयद अहमदखाँ को भय था कि अल्पसंख्यक मुसलमान, बहुसंख्यक हिन्दुओं का मुकाबला नहीं कर सकेंगे। अतः अँग्रेजों का समर्थन करना तथा उनकी सहायता पर निर्भर रहना मुसलमानों के हितों के लिए आवश्यक था।
सर सैयद अहमदखाँ द्वारा प्रकट किये गये विचारों के अनुसार अलीगढ़ आन्दोलन के मुख्य रूप से चार आधार थे-
(1.) हिन्दु और मुसलमान दो अलग-अलग राजनीतिक इकाइयाँ हैं जिनके हितों और दृष्टिकोणों में काफी अन्तर है।
(2.) भारत में जनतन्त्र के आधार पर प्रतिनिधि सभाओं की स्थापना करने तथा असैनिक सेवाओं की परीक्षा भारत में करने से मुसलमानों के हितों की सुरक्षा सम्भव नहीं हो सकेगी, क्योंकि इससे अल्पसंख्यक मुसलमान, बहुसंख्यक हिन्दू सत्ता के अधीन हो जायेंगे, जो अँग्रेजी शासन से भी बुरा होगा।
(3.) मुसलमानों को अँग्रेजी साम्राज्य के अन्तर्गत ही अपने हितों को सुरक्षित समझना चाहिये। अतः मुसलमानों को अँग्रेजों के विरुद्ध किसी भी राजनैतिक आन्दोलन में भाग नहीं लेना चाहिये।
(4.) चूँकि मुसलमानों के हित अँग्रेजों के हाथों में सुरक्षित हैं, अतः उन्हें राजनीति से पृथक् रह कर अपने सांस्कृतिक विकास का प्रयत्न करना चाहिये। राजनीति से पृथक् रहकर वे हिन्दुओं के राजनीतिक आन्दोलन को दुर्बल कर सकेंगे।
इस प्रकार अलीगढ़ आन्दोलन मुस्लिम साम्प्रदायिकता को बढ़ाने में सहायक सिद्ध हुआ। यह सदैव भारतीय राष्ट्रीय आन्दोलन के विरोध में रहा। पाकिस्तान के निर्माण में उसका बड़ा योगदान रहा। साथ ही यह भी सच है कि अलीगढ़ आन्दोलन ने भारतीय मुसलमानों को अँग्रेजी शिक्षा से जोड़कर निराशा से बचाया तथा उन्हें मध्य युग से आधुनिक युग में लाने में सहायता दी।
देवबंद शाखा
1867 ई. में मौलाना मुहम्मद कासिम के नेतृत्व में उलमा के एक दल ने उत्तर प्रदेश के सहारनपुर जिले के देवबंद कस्बे में एक मदरसे की स्थापना की। इस आंदोलन का मुख्य उद्देश्य कुरान तथा हदीस की शुद्ध शिक्षा का प्रसार करना था। अलीगढ़ आंदोलन पश्चिमी शिक्षा तथा अँग्रेजी सरकार का समर्थन करता था, उसके विपरीत देवबंद आंदोलन परम्परागत शैली में इस्लाम के प्रचार का काम करता था। इस आंदोलन ने ब्रिटिश सरकार का जमकर विरोध किया। जहाँ सर सैयद अहमदखाँ ने कांग्रेस का विरोध करते हुए आम मुसलमान को राजनीति से दूर रहने की सलाह दी, वहीं देवबंद शाखा ने कांग्रेस का स्वागत करते हुए मुसलमानों का आह्वान किया कि वे आम राजनीतिक आंदोलन में भाग लें। अबुल कलाम आजाद देवबंद से जुड़े हुए थे, उन्होंने राष्ट्रीय आंदोलन में प्रमुखता से हिस्सा लिया। देवबंद आंदोलन ने गांधीजी द्वारा आरम्भ किये गये असहयोग आंदोलन को समर्थन दिया।