स्वामी श्रद्धानंद का शुद्धि आंदोलन
महात्मा मुन्शीराम ही स्वामी श्रद्धानन्द के नाम से विख्यात हुए। स्वामी श्रद्धानन्द ने जब कांग्रेस के कुछ प्रमुख नेताओं को मुस्लिम-तुष्टीकरण की नीति अपनाते हुए देखा तो उन्हें लगा कि यह नीति आगे चलकर राष्ट्र के लिए विघटनकारी सिद्ध होगी। इस कारण कांग्रेस से उनका मोहभंग हो गया। उस काल में बहुत से कट्टरपंथी मुस्लिम तथा ईसाई हिन्दुओं का मतान्तरण कराने में लगे हुए थे।
स्वामीजी ने हिन्दू धर्म छोड़कर जा चुके लोगों को पुनः अपने मूल धर्म में लाने के लिये शुद्धि-आन्दोलन चलाया। असंख्य व्यक्तियों को आर्य समाज के माध्यम से पुनः हिन्दू धर्म में लाया गया। किया। स्वामी श्रद्धानन्द ने स्वयं के आर्यसमाजी होने पर भी सनातनी विचारधारा के पंडित मदनमोहन मालवीय तथा पुरी के शंकराचार्य स्वामी भारतीकृष्ण तीर्थ को गुरुकुल में आमंत्रित कर छात्रों के बीच उनका प्रवचन कराया।
23 दिसम्बर 1926 को नया बाजार स्थित उनके निवास स्थान पर अब्दुल रशीद नामक एक युवक ने धर्म-चर्चा के बहाने उनके कक्ष में प्रवेश करके गोली मारकर उनकी हत्या कर दी।
आर्य समाज के अथक प्रयासों से भारत में कई स्थानों पर अनाथालयों, विधवा-आश्रमों तथा गौ-शालाओं आदि की स्थापना हुई। इस प्रकार धार्मिक, सामाजिक, शैक्षणिक और राजनैतिक क्षेत्र में आर्य समाज ने जो अद्भुत सफलता प्राप्त की उसकी तुलना किसी भी अन्य सुधार आन्दोलन से नहीं की जा सकती।
थियोसॉफिकल सोसायटी
थियोसॉफिकल सोसायटी भारत का एक महत्त्वपूर्ण सांस्कृतिक आन्दोलन था जिसने देश के धार्मिक तथा सामाजिक जीवन को प्रभावित किया। थियोसॉफी का अर्थ होता है- ‘ईश्वर का ज्ञान।’ संस्कृत में इसे ‘ब्रह्मविद्या’ कहते हैं। थियोसॉ फी शब्द का सर्वप्रथम प्रयोग तीसरी शताब्दी ईस्वी में एलेक्जेण्ड्रिया के ग्रीक विद्वान इम्बीकस ने किया था।
आधुनिक काल में इस शब्द का प्रयोग थियोसॉफिकल सोसायटी ने किया। यह एक अन्तर्राष्ट्रीय संस्था थी जिसकी स्थापना कर्नल एच. एम. आलकाट और सुश्री एच. पी. ब्लेवटास्की ने 7 सितम्बर 1876 को अमरीका के न्यूयार्क शहर में की। इस संस्था के उद्देश्य इस प्रकार से थे-
(1.) प्रकृति के नियमों की खोज करना तथा मनुष्य की दैवी शक्तियों का विकास करना।
(2.) किसी भी धर्म की कट्टरता को प्रश्रय न देकर समस्त धर्मों में समन्वय स्थापित करना।
(3.) प्राचीन धर्म, दर्शन और विज्ञान जो संसार में कहीं भी पाया जा सकता है, उसके अध्ययन में सहयोग देना।
(4.) विश्व बन्धुत्व अथवा विश्व मान्यता का विकास करना।
(5.) पूर्वी देशों के धर्मों तथा दर्शन का अध्ययन तथा प्रसार करना।
थियोसॉफिकल सोसायटी का भारत में आगमन
आलकाट व ब्लेवटास्की ई.1879 में स्वामी दयानन्द के निमन्त्रण पर भारत आए। उन्होंने हिन्दू-धर्म के गुणों पर प्रकाश डालते हुए भारतीयों को उपदेश दिया कि यह सब धर्मों से श्रेष्ठ है तथा इसमें सम्पूर्ण सत्य निहित है। थियोसॉफिकल सोसायटी का लक्ष्य भारतीयों को उनके प्राचीन गौरव और महानता की याद दिलाना है ताकि भारत अपनी खोई हुई प्रतिष्ठा को पुनः प्राप्त कर सके।
सात साल तक आलकाट व ब्लेवटास्की आर्य समाज के साथ मिलकर ईसाई धर्म के प्रभाव को कम करने का प्रयत्न करते रहे। स्वामी दयानन्द वेदों को ईश्वरीय ज्ञान मानते थे, जो थियोसॉफिस्ट्स विचारकों को स्वीकार्य नहीं था। ई.1886 में उन्होंने मद्रास के उपनगर आडियार में थियोसॉफिकल सोसायटी का केन्द्र स्थापित किया। अब इस संस्था का कार्यक्षेत्र भारत हो गया तथा यहीं से अन्य देशों में इसके विचारों का प्रचार होने लगा।
श्रीमती एनीबीसेण्ट का भारत में आगमन
श्रीमती एनीबीसेण्ट उच्च शिक्षा प्राप्त, कुलीनवंशी, आयरिश महिला थीं। 16 नवम्बर 1873 को 46 वर्ष की आयु में वह भारत आईं और भारत के सांस्कृतिक आन्दोलन में सक्रिय हो गईं। उन्होंने थियोसॉफिकल सोसायटी के कार्य को फैलाने में बड़ा योगदान दिया। वे जन्म से आयरिश थीं किन्तु उन्होंने भारत को अपनी मातृभूमि मान लिया। उन्हें भारतीयता, हिन्दू-धर्म और हिन्दू समाज से अगाध प्रेम था।
उनकी मान्यता थी कि भारत का भविष्य हिन्दू-धर्म और संस्कृति से जुड़ा हुआ है। अनेक विद्वान् और नेता, उनके महान् व्यक्तित्व से प्रभावित होकर थियोसॉफिकल सोसायटी में सम्मिलित हो गये। एनीबीसेण्ट की मान्यता थी कि वे पूर्व जन्म में हिन्दू थीं। इसलिए उन्होंने भारत आते ही स्वयं को पूर्ण रूप से हिन्दुत्व के रंग में रंग लिया तथा भारतीय वेश-भूषा और खानपान को अपना लिया।
वे हिन्दू तीर्थों में घूमती रहती थीं। उन्होंने अपना अधिकांश समय काशी में व्यतीत किया जहाँ उन्होंने सेण्ट्रल हिन्दू कॉलेज की स्थापना की जो आगे चल कर हिन्दू विश्वविद्यालय के रूप में विकसित हुआ। बनारस में रहते हुए उन्होंने रामायण और महाभारत की कथाएँ लिखीं और गीता का अनुवाद किया। उन्होंने हिन्दू-धर्म और संस्कृति के पक्ष में ओजस्वी भाषण दिये।
श्रीमती एनीबीसेण्ट द्वारा हिन्दू-धर्म की सेवा
श्रीमती एनीबीसेण्ट का सबसे महत्त्वपूर्ण कार्य हिन्दू-धर्म की सेवा था। राजा राममोहन राय एवं स्वामी दयानन्द ने निराकार ईश्वर की उपासना पर बल दिया तथा मूर्ति-पूजा, अवतारवाद, तीर्थ, व्रत-अनुष्ठान एवं पौराणिक बातों का खण्डन किया किंतु एनीबीसेण्ट ने वेद और उपनिषदों के महत्त्व को मान्यता देते हुए मूर्ति-पूजा, बहुदेववाद, योग, पुनर्जन्म, कर्मवाद, तीर्थ, व्रत, गीता, स्मृति, पुराण, धर्मशास्त्र और महाकाव्य आदि के द्वारा हिन्दुत्व के समग्र रूप का तर्कपूर्ण एवं वैज्ञानिक ढंग से समर्थन किया।
वे अपने भाषणों में प्रायः यह बात कहती थीं- ‘हिन्दुत्व ही भारत का प्राण है, हिन्दुत्व वह मिट्टी है जिसमें भारत का मूल गड़ा हुआ है। यदि वह मिट्टी हटा ली गई तो भारत रूपी वृक्ष सूख जायेगा। हिन्दुत्व के बिना भारत के सामने कोई भविष्य नहीं है…….. हिन्दुत्व की रक्षा भारतवासी और हिन्दू ही कर सकते हैं। भारत में प्रश्रय पाने वाले अनेक धर्म हैं, अनेक जातियाँ हैं किन्तु इनमें किसी की भी शिरा भारत के अतीत तक नहीं पहुँची है। इनमें से किसी में भी यह दम नहीं कि भारत को एक राष्ट्र के रूप में जीवित रख सके। इनमें से प्रत्येक भारत से लोप हो जाये तब भी भारत, भारत ही रहेगा किन्तु यदि हिन्दुत्व लोप हो गया तो शेष कुछ भी नहीं बचेगा…….. हिन्दुत्व के जागरण से ही विश्व का कल्याण हो सकता है।’
ई.1914 में एक भाषण में उन्होंने कहा था- ‘चालीस वर्ष के गम्भीर चिन्तन के बाद मैं इस निष्कर्ष पर पहुँची हूँ कि विश्व के समस्त धर्मों में मुझे हिन्दुत्व के समान कोई धर्म इतना पूर्ण, वैज्ञानिक, दर्शनयुक्त एवं आध्यात्मिकता से परिपूर्ण दिखाई नहीं देता। जितना अधिक तुमको इसका भान होगा, उतना ही अधिक तुम इससे प्रेम रखोगे।’
थियोसॉफिकल सोसायटी के धार्मिक सुधार
थियोसॉफिकल सोसायटी ने हिन्दू-धर्म की अनेक रहस्यमयी तथा आस्थापूर्ण बातों का वैज्ञानिक ढंग से समर्थन किया। जिस समय एनीबीसेण्ट भारत आईं, उस समय अँग्रेजी पढ़े-लिखे भारतीयों का, हिन्दू-धर्म तथा संस्कृति से विश्वास उठने लगा था। ऐसे समय में एनीबीसेण्ट ने भारतीय आदर्शों को पुनर्जीवित करने का बीड़ा उठाया। एनीबीसेण्ट ने स्वयं हिन्दू तीर्थों की यात्रा की।
उन्होंने नंगे पैर अमरनाथ की यात्रा की और वहाँ शीतल जल से स्नान करके मन्दिर में प्रवेश किया। एक विदेशी महिला को ऐसा करते देखकर हिन्दुओं के मस्तिष्क में यह बात बैठ गई कि उनका धर्म अन्य धर्मों से श्रेष्ठ है। एनीबीसेण्ट ने काशी में रहकर गीता का अनुवाद किया, रामायण तथा महाभारत पर संक्षिप्त भाष्य लिखे।
यूरोप और अमरीका के लोगों के सामने हिन्दू-धर्म तथा संस्कृति की महत्ता और गौरवगान किया। जब भारत के अँग्रेजी पढ़े लिखे लोगों ने एक अँग्रेज महिला के मुँह से हिन्दू-धर्म और संस्कृति का गौरवगान सुना तो उन्हें अपने धर्म में पुनः आस्था जागृत होने लगी। एनीबीसेण्ट के भाषणों से भारतीयों में आत्मसम्मान की भावना उत्पन्न हुई।
वेलेन्टाइन शिरोल ने लिखा है- ‘जब अतिश्रेष्ठ बौद्धिक शक्तियों तथा अद्भुत वक्तृत्व शक्ति से सुसज्जित यूरोपियन, भारत जाकर भारतीयों से यह कहे कि उच्चतम ज्ञान की कुँजी यूरोप वालों के पास नहीं, तुम्हारे पास है तथा तुम्हारे देवता, तुम्हारे दर्शन तथा तुम्हारी नैतिकता की छाया भी यूरोप वाले नहीं छू सकते, तब यदि भारतवासी हमारी सभ्यता से मुँह मोड़ लें तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है!’
थियोसॉफिकल सोसायटी द्वारा राष्ट्रीय सुधार
थियोसॉफिकल सोसायटी तथा इसके संस्थापकों ने अपनी श्रेष्ठता के बारे में प्रचार किया किंतु सदस्यों के सम्बन्ध में अनेक झूठी-सच्ची बातें जनता के सामने प्रकट हुईं तो लोगों को इस सोसायटी के प्रति श्रद्धा कम होने लगी। इससे एनीबीसेण्ट को अत्यन्त दुःख हुआ और ई.1914 में उन्होंने अपना क्षेत्र धर्म से बदलकर राजनीति कर लिया।
वे लोकमान्य तिलक द्वारा चलाये गये होमरूल आन्दोलन में सम्मिलित हो गईं। ई.1917 में मद्रास सरकार ने एनीबीसेण्ट को नजरबन्द कर दिया किन्तु प्रबल जन-आन्दोलन के कारण सरकार ने उन्हें तत्काल मुक्त कर दिया। वे भारतीय राष्ट्रीय काँग्रेस के सभापति पद पर चुन ली गईं। काँग्रेस की सक्रिय सदस्य के रूप में उन्होंने भारत में राजनीतिक चेतना जागृत करने का महत्त्वपूर्ण कार्य किया।
थियोसॉफिकल सोसायटी ने अनेक स्कूल, कॉलेज और छात्रावास स्थापित किये। इस संस्था ने बाल-विवाह, कन्या-वर-विक्रय, छुआछूत आदि कुरीतियों का विरोध कर समाज सुधार के कार्य किये। सोसायटी के कार्यों से न केवल धर्म एवं समाज सुधार आन्दोलन को बल प्राप्त हुआ, अपितु राष्ट्रीय आन्दोलन में भी नई जान आई। श्रीमती एनीबीसेण्ट ने हिन्दू जागरण के लिए जितना कार्य किया, किसी हिन्दू ने भी उतना काम नहीं किया।
गाँधीजी ने उनके बारे में लिखा है- ‘जब तक भारत वर्ष जीवित है, एनीबीसेण्ट की सेवाएं भी जीवित रहेंगी। उन्होंने भारत को अपनी जन्मभूमि मान लिया था। उनके पास देने योग्य जो कुछ भी था, उन्होंने भारत के चरणों में अर्पित कर दिया। इसलिए भारतवासियों की दृष्टि में वे इतनी प्यारी और श्रद्धेय हो गई हैं।’