महाभारत एवं अनेक पुराणों में में नहुष एवं विरजा के पुत्र राजा ययाति की कथा आई है जिसमें कहा गया है कि राजा ययाति प्रजापति ब्रह्मा से दसवाँ पुरुष था। उसने दैत्यगुरु शुक्राचार्य की पुत्री देवयानी और दैत्यराज वृषपर्वा की पुत्री शर्मिष्ठा से विवाह किए थे। देवयानी ब्राह्मण-पुत्री थी किंतु उसका विवाह एक क्षत्रिय राजा से हुआ, इसके पीछे एक रोचक कथा छिपी हुई है।
जिस समय देवों एवं दानवों में त्रिलोक पे अधिकार करने के लिए युद्ध चल रहा था। तब देवताओं ने आङ्गिरस बृहस्पति को और दैत्यों ने भार्गव शुक्राचर्य को अपना गुरु बनाया। बृहस्पति एवं शुक्राचार्य ब्राह्मण होते हुए भी परस्पर प्रतिद्वंद्विता रखते थे।
जब युद्ध में देवताओं ने असुरों को मार दिया, तो, शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या का उपयोग करके युद्ध में मृत असुरों को पुनर्जीवित कर दिया। बृहस्पति को संजीवनी विद्या नहीं आती थी। इस कारण असुरों ने जिन देवताओं को युद्ध में मारा था, उन्हें बृहस्पति जीवित नहीं कर पाये। इससे देवताओं को बड़ा दुख हुआ।
इसलिए सभी देवता देवगुरु बृहस्पति के पुत्र कच के पास गए और उससे आग्रह किया- ‘हे भगवन्! आप दैत्यगुरु शुक्राचार्य के पास जाकर उनसे संजीवनी विद्या सीख लीजिये। हम आपको यज्ञ में भागीदार बना लेंगे। शुक्राचार्य आजकल दैत्यराज वृषपर्वा के साथ रहते हैं।’
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देवताओं के अनुरोध पर देवगुरु बृहस्पति के पुत्र कच दैत्यगुरु शुक्राचार्य के पास गए और उनसे कहा- ‘महाराज! मैं महर्षि अङ्गिरा का पौत्र और देवगुरु बृहस्पति का पुत्र कच हूँ। मैं आपकी शरण में रहकर, एक हज़ार वर्षों तक, आपकी सेवा करना चाहता हूँ। आप कृपया मुझे शिष्य के रूप में स्वीकार कर लीजिए।’
इस पर शुक्राचार्य ने कहा- ‘मैं तुम्हारा स्वागत करता हूँ। तुम बृहस्पति के पुत्र हो, तुम्हारा सत्कार करना बृहस्पति के सत्कार करने के सामान है। तुम मेरे पूजनीय हो। मैं तुम्हें शिष्य बनाना स्वीकार करता हूँ।’
इसके बाद कच शुक्राचार्य के आदेशानुसार ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करते हुए, वहीं रह कर, शुक्राचार्य की सेवा करने लगे। वे अपने गुरु शुक्राचार्य के साथ-साथ गुरुपुत्री देवयानी को भी अपनी सेवा से प्रसन्न रखते। इस तरह पांच सौ वर्ष बीत गए।
एक दिन असुरों को बृहस्पति-पुत्र कच के शुक्राचार्य के पास रहने का कारण पता चल गया। इसलिए असुरों ने कच को मारने की योजना बनाई ताकि बृहस्पति से बदला लिया जा सके और संजीवनी विद्या की रक्षा की जा सके। एक दिन जब कच गौएं चराने के लिए जंगल में गया तब असुरों ने कच को मारकर उसके मृत शरीर के टुकड़े कर दिए और वे टुकड़े भेड़ियों को खिला दिए।
संध्या में जब गायें बिना कच के वापस आईं तब गुरुपुत्री देवयानी को अनिष्ट की आशंका हुई। उसने अपने पिता शुक्राचार्य से कहा- ‘पिताजी। आपने अग्निहोत्र कर लिया, सूर्यास्त हो गया किन्तु गायें बिना अपने रक्षक के हीं लौट आयीं। कहीं कच के साथ कुछ अनिष्ट तो नहीं हो गया!’
इस पर शुक्राचार्य ने ध्यान लगाकर कच को ढूंढा। उन्हें कच के टुकड़े भेड़ियों के पेट में दिखाई दिए। शुक्राचार्य ने देवयानी को बता दिया कि कच को भेड़ियों ने खा लिया है।
इस पर देवयानी विलाप करते हुए बोली- ‘पिताजी! मैं सौगंध खाकर कहती हूँ, मैं कच के बिना जीवित नहीं रह सकती।’
शुक्राचार्य ने कहा- ‘तू घबराती क्यों है! मैं अभी उसे जीवित किये देता हूँ।’
शुक्राचार्य ने संजीवनी विद्या का प्रयोग करके कच को पुकारा- ‘आओ पुत्र कच!’
गुरु की आवाज सुनकर कच का एक-एक अंग भेड़ियों को छेदते हुए बाहर निकल आया तथा फिर से जुड़कर एक हो गया। इस तरह कच दुबारा जीवित होकर पुनः शुक्राचार्य की सेवा में उपस्थित हो गया। देवयानी के पूछने पर कच ने समस्त वृत्तान्त उसे सुना दिया। जब असुरों ने देखा कि कच फिर से जीवित हो गया है तो उन्होंने कच को फिर से मार डाला किंतु शुक्राचार्य ने उसे पुनः जीवित कर दिया। ऐसा कई बार हुआ।
एक दिन असुरों ने कच को मारकर उसकी देह को जला दिया और वह राख वारुणी में मिलाकर शुक्राचार्य को पिला दी। जब कच घर नहीं लौटा तो देवयानी पुनः अपने पिता शुक्राचार्य के पास गयी और कहने लगी- ‘पिताजी कच फूल लेने गया था किंतु अभी तक नहीं लौटा। कहीं दैत्यों ने उसे फिर से तो नहीं मार दिया?’
शुक्राचार्य ने कहा- ‘बेटी मैं क्या करूँ। ये असुर उसे बार-बार मार देते हैं।’
देवयानी के हठ करने पर शुक्राचार्य ने पुनः संजीवनी विद्या का प्रयोग करके कच को आवाज लगाई। इस पर कच ने डरते-डरते शुक्राचार्य के पेट के अंदर से ही मंद स्वर में अपनी स्थिति बताई।
शुक्राचार्य ने उसकी आवाज़ सुनकर कहा- ‘पुत्र! तुम सिद्ध हो इस कारण अब तक मेरे पेट के भीतर जीवित हो। देवयानी तुम्हारी सेवा से बहुत प्रसन्न है। यदि तुम इंद्र नहीं हो तो मैं तुम्हें संजीवनी विद्या सिखाता हूँ। मैं जानता हूँ कि निश्चित रूप से तुम इंद्र नहीं, ब्राह्मण हो, इसीलिए इतनी देर तक मेरे पेट के अंदर जीवित हो! तुम यह विद्या मुझसे सीख कर मेरा पेट फाड़कर बाहर निकल आना और संजीवनी विद्या से मुझे जीवित कर देना।’
कच ने कहा- ‘मैं आपके पेट में रह रहा हूँ और आपके पुत्र के सामान हूँ। मैं आपसे कृतघ्नता नहीं करूँगा। जो मनुष्य वेदगामी गुरु का आदर नहीं करता, वह मनुष्य नर्क का भागी होता है।’
इस पर शुक्राचार्य ने कच को संजीवनी विद्या का ज्ञान दिया जिसे सीखकर कच अपने गुरु शुक्राचार्य का पेट फाड़कर बाहर निकल आया। पेट फट जाने के कारण शुक्राचार्य की मृत्यु हो गई किंतु कच ने संजीवनी विद्या का प्रयोग करके अपने गुरु को फिर से जीवित कर दिया। शुक्राचार्य को यह जानकर बड़ी ग्लानि हुई कि धोखे में मदिरा पिलाए जाने के कारण शुक्राचार्य का विवेक इतना मर गया कि वे ब्राह्मण-कुमार कच की राख को मदिरा में मिलाकर पी गए। तब से शुक्राचार्य ने ब्राह्मणों के लिए यह मर्यादा बनाई कि यदि कोई भी ब्राह्मण शराब पियेगा, तो उसका धर्म नष्ट हो जाएगा। उसे ब्रह्महत्या का पाप लगेगा और वह इस लोक में तो कलंकित होगा ही, उसका परलोक भी बिगड़ जाएगा।
इसके बाद कच ने पुनः एक हजार वर्ष तक शुक्राचार्य की सेवा की। जब वह शुक्राचार्य से विदा लेकर अपने पिता बृहस्पति के पास लौटने लगा तब देवयानी ने कच से कहा- ‘अब तुम स्नातक हो गए। मैं तुमसे प्रेम करती हूँ, अतः मेरे पिता से कहकर विधिपूर्वक मेरा पाणिग्रहण करो।’
इस पर कच ने कहा- ‘तुम्हारे पिता मेरे गुरु हैं तथा मेरे पिता के समान हैं। हम दोनों उनके अंदर रह चुके हैं, मैं तुम्हारे साथ बहुत वात्सल्य के साथ गुरु के घर में रहा हूँ, तुम मेरी बहिन के सामान हो। तुम मुझे पवित्र भाव से, जब चाहो, याद कर लो, मैं आ जाऊँगा। तुम मुझे वापस लौटने का आशीर्वाद दो और यहाँ रहकर सावधानी से मेरे गुरु और अपने पिता की सेवा करो।’
देवयानी ने कहा- ‘मैंने तुमसे प्रेम-निवेदन किया था, यदि तुम धर्म और अपने लक्ष्य के लिए मेरा त्याग करते हो, तो जाओ तुम्हारी संजीवनी विद्या कभी सफल नहीं होगी।’
इस पर कच ने कहा- ‘मैंने तुम्हें गुरुपुत्री होने के कारण स्वीकार नहीं किया था, कोई दोष देखकर नहीं। मेरे गुरु ने भी मुझे ऐसी आज्ञा नहीं दी थी। तुम्हारी जो इच्छा हो श्राप दे दो किंतु मैंने तो केवल ऋषि-धर्म का पालन किया है। मैं श्राप के योग्य नहीं था, फिर भी काम के वशीभूत होकर तुमने मुझे श्राप दिया है। मैं भी तुम्हें श्राप देता हूँ कि अब तुम्हें कोई ब्राह्मण-पुत्र स्वीकार नहीं करेगा। मेरी विद्या भले ही सफल न हो परन्तु जिसे मैं सिखाऊंगा उसकी विद्या तो सफल होगी!’ इतना कहकर कच पुनः स्वर्गलोग आ गया। देवताओं ने कच का बहुत सत्कार किया तथा उसे यज्ञ का भागीदार बना लिया। कच के श्राप के कारण देवयानी का विवाह एक ब्राह्मण से न होकर एक क्षत्रिय राजा ययाति से हुआ। इस कथा पर हम अगली कथा में चर्चा करेंगे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता