डिसमिस दावा तोर है सुन उर्दू बदमास (16)
जब उत्तर भारत में हिन्दी-उर्दू विवाद को लेकर साम्प्रदायिक तनाव चरम पर पहुंचने लगा तो सरकार कुछ झुकी। अप्रैल 1900 में उत्तर-पश्चिमी प्रान्त की औपनिवेशिक सरकार ने नागरी और फारसी-अरबी दोनों लिपियों को समान दर्जा देने का आदेश जारी किया।
इस आदेश का उर्दू समर्थकों ने काफी विरोध किया और हिन्दी समर्थकों ने समर्थन किया। हालाँकि आदेश में उससे भी अधिक प्रतीकात्मक संदेश यह था कि नागरी लिपि के उपयोग के लिए कोई विशेष प्रावधान नहीं किया गया था। इस कारण फारसी-अरबी ने उत्तर-पश्चिमी प्रान्त में अपना प्रमुख स्थान बनाये रखा और अवध राज्य में स्वतंत्रता तक इसे मुख्य लेखन भाषा के रूप में जारी रखा।
ई.1902 में अंग्रेज सरकार ने ‘नॉर्थ वेस्ट प्रोविंस’ का नाम बदलकर ‘यूनाइटेड प्रोविंस ऑफ आगरा एण्ड अवध’ कर दिया। इसके बाद भी इस प्रांत में हिन्दी और उर्दू का भाषायी विवाद बढ़ता चला गया क्योंकि हिन्दी में फारसी-व्युत्पन्न शब्दों के तुल्य औपचारिक और शैक्षिक शब्दावली के चयन का आधार संस्कृत भाषा में प्रयुक्त होने वाले शब्दों को बनाया गया। इससे हिन्दू-मुस्लिम मतभेद बढ़ने लगे।
जब ब्रिटिश सरकार ने अपने कार्यालयों एवं न्यायालयों में फारसी-अरबी लिपि के साथ-साथ देवनागरी लिपि को भी मान्यता दे दी तो भी हिन्दी के प्रयोग की स्थिति में व्यावहारिक रूप से अधिक अंतर नहीं आया। इस कारण अगले तीन दशकों में उत्तर भारत में हिन्दी को उर्दू की तुलना में मजबूत बनाने के लिए कुछ और संस्थाओं का गठन हुआ। इनमें ई.1918 में गठित दक्षिण भारत प्रचार सभा और ई.1926 में गठित राष्ट्रभाषा प्रचार समिति प्रमुख हैं।
बालगंगाधर तिलक का हिन्दी को समर्थन
मदनमोहन मालवीय की तरह बाल गंगाधर तिलक ने राष्ट्रवादी आन्दोलन के आवश्यक अंग के रूप में देवनागरी लिपि का समर्थन किया। इस काल में कांग्रेसी नेतओं और विभिन्न संस्थाओं के स्वतन्त्रता आन्दोलनकारियों ने अंग्रेजों से मांग की कि वे सरकारी भाषा नीति में हिन्दी का प्रयोग वैकल्पिक भाषा के रूप में करने का प्रावधान करें। बहुत से स्वतन्त्रता सेनानियों का मानना था कि हिन्दी के आन्दोलन से स्वतंत्रता प्राप्ति हेतु किए जा रहे आंदोलन को बल मिलता है।
इसलिए हिन्दुओं को सरकारी कार्यालयों में हिन्दी के प्रयोग की अनुमति प्राप्त करने के लिए आंदोलन चलाना चाहिए। हिन्दी आंदोलन के इस महत्व को पहचानकर उस काल की बहुत से धार्मिक नेताओं, राजनीतिक कार्यकर्ताओं, समाज सुधारकों, लेखकों और बुद्धिजीवियों ने भी हिन्दी का समर्थन किया।
मोहनदास कर्मचंद गांधी का ढुलमुल रवैया
ई.1920 में बालगंगाधर तिलक की मृत्यु के बाद कांग्रेस का नेतृत्व मोहनदास कर्मचंद गांधी के हाथों में आ गया और वे कांग्रेस के सबसे प्रभावशाली नेता बन गए। उन्होंने हिन्दी भाषा के मानकों का पुनः शुद्धीकरण करके पारम्परिक शब्द हिन्दुस्तानी के अन्दर उर्दू अथवा देवनागरी लिपि काम में लेने का सुझाव दिया। इसका कांग्रेस के कुछ सदस्यों तथा भारत के स्वतन्त्रता आन्दोलन में सम्मिलित कुछ नेताओं ने भी समर्थन किया किंतु हिन्दू जनता गांधी के इस सुझाव के विरोध में उतर आई। इस कारण गांधी ने अपने विचार बदल लिए तथा भारत राष्ट्र के लिए मानक हिन्दी का समर्थन करने लगे जिसे देवनागरी लिपि में लिखा जाता था।
हिन्दी और उर्दू दोनों में भाषायी और सांस्कृतिक दूरियाँ बढ़ रही थी। भाषायी आधार पर हिन्दी में संस्कृत से तथा उर्दू में फ़ारसी, अरबी और तुर्की से शब्द लिए जाते रहे। सांस्कृतिक रूप से उर्दू को मुस्लिमों की भाषा के रूप में तथा हिन्दी को हिन्दुओं की भाषा के रूप में देखा जाने लगा।
1920 के दशक में गांधीजी ने इस स्थिति पर दुःख व्यक्त किया और उन्होंने दोनों भाषाओं के पुनः विलय करके हिन्दुस्तानी को नागरी और फारसी दोनों लिपियों में लिखने का आह्वान किया। एक ओर तो गांधीजी हिन्दुस्तानी बैनर तले हिन्दी और उर्दू को लाने के अपने प्रयास में असफल रहे तथा दूसरी ओर अब हिन्दुओं ने हिंदुस्तानी अथवा किसी अन्य छद्म नाम से उर्दू के अस्तित्व में बनाए रहने को अस्वीकार कर दिया।
उर्दू लेखकों की चालाकी
इस काल में जिस प्रकार हिन्दी लेखक हिन्दी के लिए अभियान चला रहे थे, उसी प्रकार अनेक उर्दू लेखक भी उर्दू के पक्ष में आंदोलन तेज कर रहे थे। इन दोनों में अंतर केवल इतना था कि हिन्दी के पक्षधर हिन्दी एवं उर्दू को दो अलग-अलग भाषाएं बताते थे जबकि उर्दू के पक्षधर हिन्दी और उर्दू को एक ही भाषा बताकर उसकी आड़ में उर्दू भाषा को राजकीय भाषा बनाए रखना चाहते थे। इस काल में उर्दू के पक्षधर लोग हिन्दुओं का आह्वान कर रहे थे कि हमें इस व्यर्थ के प्रश्न पर लड़ना नहीं चाहिए। उन्हें गांधी की बात सुननी चाहिए।
इस काल में उर्दू के विख्यात कहानीकार सादत हसन मण्टो ने हिन्दी और उर्दू नामक एक व्यंग्यात्मक लेख लिखकर इस विवाद की व्यर्थता को स्पष्ट करने का प्रयास किया। उन्होंने लिखा- ‘हिन्दी और उर्दू का झगड़ा एक ज़माने से जारी है।
मौलवी अब्दुल-हक़ साहब, डाक्टर ताराचन्दजी और महात्मा गांधी इस झगड़े को समझते हैं लेकिन मेरी समझ से ये अभी तक बालातर है। कोशिश के बावजूद इसका मतलब मेरे ज़हन में नहीं आया। हिन्दी के हक़ में हिन्दू क्यों अपना वक्त ज़ाया करते हैं। मुसलमान, उर्दू के तहफ़्फ़ुज़ के लिए क्यों बेक़रार हैं……? ज़बान बनाई नहीं जाती, ख़ुद बनती है और ना इन्सानी कोशिशें किसी ज़बान को फ़ना कर सकती हैं।
स्पष्ट है कि सादत हसन मण्टो बड़ी ही चालाकी से, भारत में जो भी भाषा चल रह है उसी को, अर्थात् उर्दू को प्रचलन में बनाए रखने की वकालात कर रहे थे।
डॉ. मोहनलाल गुप्ता