Tuesday, December 3, 2024
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अध्याय-30 – समाज में नारी की युग-युगीन स्थिति (अ)

किसी राष्ट्र की सही स्थिति का अनुमान उस राष्ट्र में नारी की परिस्थिति से लगाया जा सकता है।   – फ्रांसीसी विद्वान चार्ल्स फोरियर।

प्राचीन आर्यों ने पितृसत्तात्मक परिवार प्रणाली की स्थापना की थी जिसमें स्त्रियों के लिए समुचित सम्मान एवं प्रतिष्ठा की व्यवस्था की गई थी। परिवार एवं समाज दोनों में ही स्त्री की विशेष भूमिका थी। वह कन्या, पत्नी तथा माँ के रूप में आर्य संस्कृति का आधार थी।

आर्य धर्मशास्त्रों ने नारी को विद्या, शील, ममता, यश और सम्पत्ति की स्वामिनी समझा। उसे यह स्थिति सहज एवं स्वाभाविक रूप से मिली थी किंतु समय के साथ सामाजिक परिस्थितियों में बदलाव आता गया और नारी पर बंधन एवं वर्जनाएं लागू होने लगीं। एक समय ऐसा भी आया जब नारी ने पुरुषों के साथ बराबरी का अधिकार पूर्णतः खो दिया एवं वह पुरुष की अनुगामिनी बनकर रह गई।

ऋग्वैदिक-काल में नारी की स्थिति

सामाजिक स्थिति

ऋग्वैदिक-काल (ई.पू.4000 से ईपू.3000) में परिवार का कोई भी आर्थिक, सामाजिक एवं धार्मिक कार्य नारी के बिना सम्पन्न नहीं हो सकता था। नारी के बिना पुरुष को अपूर्ण समझा गया। जब तक पुरुष विवाहोपरान्त भार्या की प्राप्ति नहीं कर लेता था तब तक वह याज्ञिक अनुष्ठानों को सम्पन्न नहीं कर सकता था। समाज का संचालन संतान से होता है और संतान की प्राप्ति स्त्री तथा पुरुष दोनों के होने पर ही संभव थी। इसीलिए स्त्री को पुरुष की ‘अर्द्धागिनी’ कहा गया।

वैदिक यज्ञों से लेकर वर्ण व्यवस्था और आश्रम व्यवस्था का आधार नारी ही थी। पंच-महायज्ञों का आधार भी नारी ही थी। श्राद्ध, बलि, हविष्य आदि का आधार भी नारी ही थी। उसे ‘श्री’ और ‘लक्ष्मी’ कहा गया जो घर में सुख एवं समृद्धि की सृष्टि करती थी। ऋग्वेद में एक भी उल्लेख नहीं मिलता है जिसमें नारी की स्थिति पुरुष की अपेक्षा हेय या कम महत्वपूर्ण प्रतीत होती हो या वह पुरुष के अधीनस्थ स्थिति में हो।

ऋग्वैदिक-काल में पर्दा प्रथा का कोई उल्लेख नहीं है। वे स्वतंत्रतापूर्वक घर से बाहर जा सकती थीं। आर्यों के प्रारम्भिक समाज में नारी जितनी स्वतन्त्र और मुक्त थी, उतनी बाद के किसी काल में नहीं रही। ऋग्वैदिक-काल में नारी हर तरह से पुरुषों के समकक्ष थी। वह सामाजिक और धार्मिक उत्सवों में बिना किसी प्रतिबन्ध के हिस्सा लेती थी। उस काल की नारी पुरुषों के साथ यज्ञ, सभा, समिति एवं गोष्ठी में सम्मिलित होती थी। अकेला पुरुष यज्ञ के अयोग्य था।

नारी की शिक्षा

ऋग्वैदिक-काल में नारी स्वतन्त्रतापूर्वक शिक्षा ग्रहण करती थी। इस काल में स्त्रियाँ सभा एवं गोष्ठियों में ऋग्वेद की ऋचाओं का गायन किया करती थीं। ऋग्वेद में उल्लिखित है कि कतिपय विदुषी स्त्रियों ने ऋग्वेद ऋचाओं का प्रणयन किया। उस युग में बौद्धिक योगदान करने वाली बीस स्त्रियों के नाम मिलते हैं- रोमशा, अपाला, उर्वशी, विश्वधारा, सिकता, निबाबरी, घोषा, लोपामुदा आदि।

उपनयन संस्कार

ऋग्वैदिक-काल में पुत्र की तरह पुत्री का भी विद्यारम्भ से पूर्व उपनयन संस्कार किया जाता था तथा वह भी ब्रह्मचर्य का पालन करती हुई वेदों का अध्ययन करती थी। यह व्यवस्था कुछ शिथिलता के साथ स्मृतिकाल तक चलती रही। वैदिक युग में छात्राओं के दो वर्ग थे- (1.) सद्योवधू और (2.) ब्रह्मवादिनी। सद्योवधू वे छात्राएँ थीं जो विवाह के पूर्व तक वेद मंत्रों और याज्ञिक प्रार्थनाओं का ज्ञान प्राप्त करती थीं।

ब्रह्मवादिनी वे थीं जो अपना सम्पूर्ण जीवन वेदों की शिक्षा प्राप्त करने में लगाती थीं। ऋषि कुशध्वज की कन्या वेदवती ऐसी ही ब्रह्मवादिनी स्त्री थी। उस युग मे सह-शिक्षा का भी प्रचलन था। वाल्मीकि आश्रम में आत्रेयी और लव-कुश ने साथ-साथ शिक्षा ग्रहण की थी। सह-शिक्षा का उदाहरण महाभारत में भी मिलता है जब अम्बा और शैखवत्य एक साथ शिक्षा ग्रहण करते थे। अनेक स्त्रियाँ शिक्षिका बनकर अध्यापिकाओं का जीवन व्यतीत करती थीं। ऐसी स्त्रियाँ उपाध्याया कहलाती थीं।

विवाह संस्कार

आर्य संस्कृति में विवाह को अनिवार्य धार्मिक संस्कार माना गया। इसका मुख्य उद्देश्य उन विभिन्न पुरुषार्थों को पूरा करना था जिनकी प्राप्ति में पुरुष को पत्नी के सहयोग की आवश्यकता होती थी। पुरुष और स्त्री के गृहस्थ जीवन का प्रारम्भ विवाह से ही माना गया। चूँकि कोई भी धार्मिक संकल्प पत्नी के बिना सम्भव नहीं था, इसीलिए उसे ‘धर्मपत्नी’ अथवा ‘सहधर्मिणी’ कहा गया है। वैदिक-काल में स्त्री का विवाह यौवन प्राप्ति के बाद किया जाता था किंतु समय के साथ स्त्री की आयु में परिवर्तन आता गया।

नारी की आर्थिक स्थिति

वैदिक-काल में कुछ ऐसे उल्लेख हैं जो सम्पत्ति में स्त्री के अधिकार को स्वीकार नहीं करते किंतु ये अपवाद स्वरूप हैं। सम्पत्ति में उसका भाग होता था। वह पुत्र से किसी प्रकार भी कम नहीं समझी जाती थी। दत्तक पुत्र से पुत्री श्रेष्ठ थी। पुत्र के न रहने पर वह उत्तराधिकारी मानी जाती थी। चौथी शताब्दी ईस्वी पूर्व तक समाज में यह व्यवस्था चलती रही।

नारी की राजनीतिक स्थिति

ऋग्वेद साहित चारों वेदों में किसी महिला साम्राज्ञी का उल्लेख नहीं हुआ है। वैदिक-काल में किसी भी युद्ध में नारी के भाग लेने की चर्चा एक भी स्थान पर नहीं की गई है।

उत्तरवैदिक-काल में नारी की स्थिति

अथर्ववेद (ई.पू.1500-ई.पू.1000) में पुत्री के जन्म पर खिन्नता का उल्लेख मिलता है। इसी प्रकार एतरेय ब्राह्मण में एक स्थान पर पुत्री के लिए ‘कृपण’ शब्द का प्रयोग हुआ है। इस काल में यद्यपि पुत्री का जन्म प्रसन्नता का द्योतक नहीं था तथापि उसके पालन-पोषण एवं शिक्षा की उपेक्षा नहीं की जाती थी। वे समाजिक व्यवस्था का आदरणीय अंग थीं।

महाकाव्य काल में नारी की स्थिति

महाकाव्य काल (ई.पू.800-600) में स्त्रियाँ आदर की पात्र थीं तथा उन पर अधिक प्रतिबन्ध नहीं थे। स्त्रियाँ सामाजिक उत्सवों और धार्मिक पर्वों में सम्मिलित हुआ करती थीं। रामायण में सीता का वनों में विचरण तथा महाभारत में द्रौपदी का पतियों के साथ वनों में भ्रमण उनकी सामाजिक स्थिति को व्यक्त करता है। सामाजिक और धार्मिक गतिविधियों में उनका महत्त्वपूर्ण योगदान था। उनके प्रति समाज में आदर की भावना थी। रामायण में भी सीता के लिए आदर और सम्मान की बातें कही गई हैं।

अकेला पुरुष यज्ञ सम्पादित नहीं कर सकता था। नारी का यह स्थान रामायण के रचनाकाल तक बना रहा जिसमें सीता के न होने पर राम को अश्वमेध यज्ञ में अपनी पत्नी सीता की स्वर्ण-प्रतिमा रखनी पड़ी थी। महाभारत में भीष्म पितामह का कथन है कि स्त्री को सर्वदा पूज्य मानकर उससे स्नेह का व्यवहार करना चाहिए। जहाँ स्त्रियों का आदर होता है वहाँ देवताओं का निवास होता है।

नारी की अनुपस्थिति में समस्त कार्य अपवित्र हो जाते हैं। एक अन्य स्थान पर भीष्म युधिष्ठिर से कहते हैं कि स्त्रियाँ स्वभावतः अपनी लिप्सा को दबा नहीं पातीं, इसलिए उन्हें किसी पुरुष के संरक्षण में रहना चाहिए।

विवाह संस्कार

महाकाव्यों के काल में स्वयंवर प्रथा प्रचलित थी जो उस युग में होने वाले युवा-विवाहों की द्योतक है। इस काल में मान्यता थी कि युवा होने पर कन्या का विवाह नहीं किया जाता है तो कन्या का पिता नर्कगामी होता है और वह कन्या स्वयं अपना वर चुन लेने के लिए स्वतन्त्र होती है। युवती कन्या को अपने घर में रखना निन्दनीय माना जाता था।

विवाह के प्रकार

वैदिक-काल से लेकर सूत्रकाल तक भारत में आठ प्रकार की विवाह प्रणालियाँ प्रचलन में आईं। धर्मशास्त्रकारों ने ब्रह्मविवाह, देवविवाह, आर्षविवाह, प्रजापत्य विवाह, गान्धर्व विवाह, आसुर विवाह, राक्षस विवाह और पैशाच विवाह नामक आठ प्राकर के विवाह बताए हैं।

इनमें से प्रारम्भिक चार प्रकार के विवाह सम्मानित एवं स्वीकृत थे और अन्तिम चार निन्दनीय माने जाते थे। इन समस्त प्रकार के विवाहों का स्वरूप समय और परिस्थिातियों के अनुसार बदलता गया। यद्यपि अपने वर्ण में विवाह करना ही श्रेष्ठ माना जाता था तथापि वर्ण से बाहर भी विवाह प्रचलित थे।

बहु-विवाह की प्रथा

महाकाव्य काल में बहुविवाह प्रथा प्रचलित थी। राजा दशरथ की तीन रानियां थीं जबकि द्रौपदी ने पांच पुरुषों से विवाह किया था। एक पुरुष के साथ अनेक स्त्रियों के विवाह सामान्य प्रचलन था किंतु एक स्त्री का कई पुरुषों के साथ विवाह अपवाद रूप में ही मिलता है।

पर्दा प्रथा

वाल्मीकि ने रामायण में लिखा है कि जो सीता आकाशचारी भूतों के द्वारा भी नहीं देखी गई थीं, आज उसे राजपथ पर खड़े लोग वन जाते हुए देख रहे हैं। अनुमान लगाया जा सकता है कि भले ही सीता पर्दा नहीं करती हों किंतु  रामायण के रचनाकाल में स्त्रियां पर्दे में रहने लगी थीं। महाभारत में दुर्योधन की पत्नियों के लिए ‘असूर्यंपश्या’ शब्द आया है जिसका अर्थ है कि वे पर्दे में रहती थीं तथा उन्होंने कभी पर्दे से बाहर निकलकर सूर्य भी नहीं देखा था।

सती-प्रथा

रामायण में सती शब्द का प्रयोग हुआ है किंतु पति के निधन पर सती होना अनिवार्य नहीं था। राजा दशरथ की मृत्यु होने पर एक भी रानी सती नहीं हुई थी। बाली की मृत्यु पर तारा ने सुग्रीव से विवाह कर लिया था। रावण के मरने पर मंदोदरी ने विभीषण से विवाह किया था किंतु मेघनाद के मरने पर सुलोचना सती हुई थी। महाभारत में उल्लेख है कि महारानी माद्री महाराज पाण्डु के साथ सती हुई थी किंतु बड़ी रानी कुंती सती नहीं हुई थी।

श्रीकृष्ण के पिता वसुदेव की चिता पर वसुदेव की चार रानियाँ- देवकी, भद्रा, रोहिणी एवं मंदिरा सती होने के लिए आरोहण करती हैं। इसी प्रकार कृष्ण के परलोकगमन का समाचार हस्तिनापुर पहुँचने पर उनकी आठ पटरानियों में से पांच- रुक्मणि, गांधारी, सह्या, हैमावती तथा जाम्बवती पति की देह के बिना ही चितारोहण करती हैं।

विधवा-विवाह पर प्रतिबन्ध

वैदिक-काल में विधवा-विवाह पर कोई प्रतिबन्ध नहीं था। धर्मशास्त्रों ने नियोग-प्रथा को भी मान्यता दी थी किंतु बौद्ध युग के बाद के व्यवस्थाकारों ने विधवा-विवाह एवं नियोग-प्रथा का निषेध कर दिया। विधवा-स्त्री के लिए कठोर संयम का जीवन आदर्श माना गया।

विवाह विच्छेद का निषेघ

वैदिक युग में स्त्री अपने पति को छोड़ सकती थी। यह स्थिति धर्मसूत्र ग्रंथों के रचनाकाल तक बनी रही। धर्मसूत्रों ने जाति-भ्रष्ट और नपुंसक पति को त्याग देने के लिए कहा है। बौद्ध साहित्य में विवाह-विच्छेद के अनेक उदाहरण मिलते हैं किंतु नारद आदि हिन्दू शास्त्रकारों ने पति या पत्नी को विवाह-विच्छेद का अधिकार नहीं दिया है। कुछ विशेष परिस्थितियों में ही स्त्री अपने पति को त्याग सकती थी। यदि एक स्त्री के होते हुए पति किसी दूसरी स्त्री से विवाह कर लेता तो स्त्री अपने पति को छोड़ सकती थी।

ऐसी स्थिति में पति को पहली पत्नी के भरण-पोषण की समुचित व्यवस्था करनी पड़ती थी। मध्य-युग में भी स्त्रियों को अपना पति त्यागने के अधिकार थे किंतु एकाकी स्त्रियों के लिए जीवन निर्वाह करना अत्यन्त दुष्कर और कष्टसाध्य था। स्त्रियों को समानता का अधिकार नहीं था। जो स्त्रियाँ विवाह-विच्छेद का अनुसरण करती थीं, समाज उन्हें हेय समझता था। मनु ने व्यवस्था दी कि यदि स्त्री का पति दुश्चरित्र, परस्त्री-गामी एवं अवगुणी ही क्यों न हो, पत्नी को उसकी सेवा करनी चाहिए। पति-पत्नी का सम्बन्ध जन्म-जन्मान्तर के लिए माना गया।

सम्पत्ति का अधिकार

भारतीय संस्कृति में महिला के सम्पत्ति विषयक अधिकारों पर आरम्भ से ही चिंतन किया गया किंतु उसे सामान्यतः सम्पत्ति की अधिकारिणी नहीं माना गया। महाभारत में लिखा है कि पुत्री को पूरी नहीं तो आधी सम्पत्ति अवश्य मिलनी चाहिए।

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