जब मेवाड़ राजवंश ने अपनी कन्याएं मुगलों को देने से मना कर दिया तो अकबर ने अपनी सेनाओं का मुँह उदयपुर की ओर मोड़ दिया। राजा मानसिंह को विशाल सैन्य और बहुत सारी नसीहतें व हिदायतें देकर इस अभियान पर रवाना किया गया। मानसिंह दिल्ली से कूच कर पहले डूंगरपुर पहुँचा जहाँ उसने डूंगरपुर पर आक्रमण कर उसे हस्तगत कर लिया। डूंगरपुर का महारावल आसकरण मानसिंह के भय से पहाड़ों में भाग गया। अपनी सेना को डूंगरपुर में ही छोड़कर मानसिंह महाराणा को मनाने के लिये उदयपुर आया। महाराणा प्रतापसिंह ने मानसिंह को बंधु जानकर अपने महलों में विशाल दरबार का आयोजन किया तथा मानसिंह का बड़ा भारी स्वागत किया।
औपचारिक स्वागत संभाषण के पश्चात् महाराणा ने मानसिंह से कहा- ‘कुंअरजू! आप हमारे आत्मीय हैं, बंधु हैं, मेवाड़ की धरती आपका स्वागत करती है।’
– ‘महाराणाजी! जिस मेवाड़ की धरती को परमात्मा ने हर तरह से सुंदर और धन-धान्य से परिपूर्ण बनाया है, उसकी रक्षा और समृद्धि की कामना करना जितना आपका कर्तव्य है, उतना ही दायित्व आपके आत्मीय बंधु होने के नाते मेरा भी है।’
– ‘सम्पूर्ण भारतवर्ष हम सबकी जननी है, इसके कण-कण की रक्षा करना हम सबका कर्त्तव्य है।’ महाराणा ने कहा।
– ‘मेवाड़ को भी अब अपने हित-अनहित के सम्बंध में दूसरे राज्यों की भांति प्रचलित मान्यताओं से कुछ हटकर सोचना चाहिये। ताकि प्रजा में स्थायित्व आये तथा शांति और समृद्धि का आगमन हो सके।’ मानसिंह ने अकबरी शतरंज का पहला मोहरा आगे बढ़ाया।
– ‘मैं आपका आशय समझा नहीं कुंअरजू!’
– ‘मेवाड़ विगत सैंकड़ों वर्षों से दिल्ली से जूझता आया है। दिल्ली सल्तनत के विभिन्न राजवंशों के रहते ऐसा करना उचित ही था किंतु मुगलों के दिल्लीधीश्वर बन जाने के बाद स्थिति बदल गयी है। अब दिल्ली से लोहा लेने में कोई लाभ नहीं है। इस अनावश्यक संघर्ष से मेवाड़ की शक्ति का अपव्यय हो रहा है तथा जनता की समृद्धि नष्ट हो रही है।’
– ‘कुंअरजू! मैं समझता हूँ कि इस समय हमारा आत्मीय बंधु नहीं अकब्बर का सेवक बोल रहा है।’
– ‘दोनों ही भूमिकाओं में मैं एक ही व्यक्ति हूँ महाराणाजी।’
– ‘तुम एक होकर भी दो भूमिकाएं निभा सकते हो किंतु हम नहीं। हमारी भूमिका हमारे पूर्वज लिख गये हैं, उसे नये सिरे से लिखना हमारे वश में नहीं है।’
– ‘महाराणाजी! यदि राजा का हठ प्रजा के लिये हितकर नहीं हो तो राजा को अपना हठ त्याग देना चाहिये।’
– ‘मेवाड़ में राजा और प्रजा अलग नहीं हैं कुंअरजू! जो राजा का हठ है, वही प्रजा का हठ है और जो प्रजा के लिये हितकर है, वही राजा के लिये भी हितकर है।’
– ‘आप तनिक शांत मस्तिष्क से विचार करें। आप भारत भर के राजाओं में सबसे बुद्धिमान, सबसे वीर और सबसे उत्तम राजा हैं। आपके जैसे महान् राजा की प्रजा अंतहीन संघर्ष का कष्ट उठाये यह उचित नहीं है।’ मानसिंह ने महाराणा को उत्तेजित होते देखकर अपने शब्द बदले।
– ‘जब यह सम्पूर्ण संसार ही नश्वर है तो फिर कष्ट चिरस्थायी कैसे हो सकते हैं। एक न एक दिन उनका भी नाश होना ही है।’
– ‘किंतु किस मूल्य पर? जब मुगलों की सेना मेवाड़ भूमि को जलाकर राख कर देगी, तब यदि कष्ट नष्ट भी होंगे तो उनका क्या लाभ होगा?
– ‘मानसिंह।! मेवाड़ को जला कर राख कर देना आसान नहीं है। कोई प्रयास करके तो देखे।’
– ‘महाराणाजी! मैं नहीं चाहता कि कभी भी ऐसा हो किंतु आप कल्पना कीजिये कि जब मुगलों के लाख-लाख सैनिक मेवाड़ के चप्पे-चप्पे पर छा जायेंगे तब प्रजा के लिये कौनसी ठौर बचेगी?’
– ‘मेवाड़ की प्रजा म्लेच्छों की गुलामी करने के स्थान पर रणभूमि में मृत्यु का आलिंगन करना अधिक उचित समझेगी।’
– ‘शहंशाह अकबर ने आपसे मित्रता की अपेक्षा की है, न कि अधीनता की।’
– ‘मित्रता के नाम पर हिन्दुआनियों के डोले मुगल शहजादों को जायें, यह मित्रता नहीं है, अधीनता है, छल है, राष्ट्र का अपमान है।’
महाराणा के उत्तर से मानसिंह का मुँह उतर गया। उसका वंश ही भारतवर्ष में पहला राजवंश था जिसने अपनी कुंअरि का डोला अकबर को देकर, इस कुचेष्टा का मार्ग प्रशस्त किया था। वह आगे कोई तर्क न करके गर्दन झुकाकर इतना ही बोला- ‘मुगल आपसे कुंअरियों के डोले नहीं मांगेंगे।’
महाराणा ने भी वातावरण को अत्यंत कटु हो आया देखकर इस विषय पर आगे बोलना उचित नहीं समझा। उसने विषय बदलते हुए कहा- ‘कुंअरजू के सम्मान में उदयसागर की पाल पर भोजन का आयोजन किया गया है। आप कृपा कर वहीं पधारें। कुंअर अमरसिंह आपकी अगवानी करेंगे।’
यह कहकर महाराणा उठ गया। उसके साथ ही समस्त सभासद भी उठ खड़े हुए। कुंअर अमरसिंह राजा मानसिंह को लेकर उदयसागर की पाल पर पहुँचा। मानसिंह के सम्मान में सचमुच ही भोजन का विशाल आयोजन किया गया था। मेवाड़ के समस्त सामंत और जागीरदार इस अवसर पर उपस्थित थे।
राजा मानसिंह के सामने कांसे का बहुत बड़ा थाल रखा गया और उसमें विविध व्यंजन रखे गये। कुंअर अमरसिंह के लिये भी मानसिंह के सामने ही थाल लगाया गया था। जब अमरसिंह ने राजा मानसिंह को भोजन आरंभ करने का अनुरोध किया तो मानसिंह ने पूछा- ‘क्या महाराणा भोजन नहीं करेंगे?’
– ‘महाराणाजू के पेट में दर्द है। इसलिये उन्होंने कहलवाया है कि मैं ही आपके साथ भोजन करूं।’
पलक झपकते ही मानसिंह सारी स्थिति समझ गया। वह समझ गया कि महाराणा उसके साथ भोजन क्यों नहीं करना चाहता। अपमान से मानसिंह का चेहरा लाल हो गया और मारे क्रोध के उसकी साँस तेज-तेज चलने लगी। उसने अपनी म्यान में से कटार निकाली और उससे थाली उलटते हुए कहा- ‘अब तो महाराणा के पेट की दवा लेकर आऊंगा तभी भोजन करूंगा।’
मेवाड़ के सामंतों ने तलवारें खींच लीं। अमरसिंह ने उन्हें तलवारें म्यान में रखने का संकेत करते हुए मानसिंह से निवेदन किया- ‘जैसी आपकी इच्छा कुंअरजू!’
मानसिंह अपमान और क्रोध से तिलमिलाया हुआ चेहरा लिये हुए, डेरे से बाहर हो गया।
जब मानसिंह बिना भोजन किये हुए ही जाने लगा तो महाराणा को सूचित किया गया। महाराणा ने उससे कहलवाया- ‘यदि तुम अपनी सामर्थ्य से हमारे पेट दर्द की दवा लेकर आओगे तो हम मालपुरे में आपका स्वागत करेंगे और जो अपने फूफा अकब्बर के साथ आओगे तो जहाँ हमसे बन पड़ेगा, वहीं तुम्हारा सत्कार करेंगे।’ मानसिंह एक बार फिर तिलमिला कर रह गया।
महाराणा ने भोजन उठाकर कुत्तों को खिला दिया और तालाब के किनारे की मिट्टी खुदवाकर वहाँ गंगाजल छिड़कवाया।