हिन्दू मानते हैं कि हिन्दू धर्म ग्रंथों में मानव जाति का प्राचीनतम इतिहास दिया गया है तथा इन ग्रंथों में दी गई अधिकांश कथाएं सत्य हैं। इस मत को इस तथ्य से भी बल मिलता है कि भारतीय धर्मग्रंथों में दिए आख्यानों में वर्णित भौगोलिक घटनाओं की पुष्टि यहूदी एवं ईसाई धर्मग्रंथों में वर्णित भौगोलिक घटनाओं से होती है।
यह सही है कि प्राचीन हिन्दू धर्म ग्रंथों में दी गई कथाओं में मानव जाति का प्राचीन इतिहास ढूंढा जा सकता है किंतु इस इतिहास के साथ एक कठिनाई यह है कि यह इतिहास कम से कम तीन सृष्टियों का इतिहास है।
पहली सृष्टि देवताओं की है, दूसरी सृष्टि स्वायंभू अथवा स्वायंभुव मनु की है तथा तीसरी सृष्टि वैवस्वत मनु की है। देवताओं की सृष्टि की कुछ स्मतियां स्वायंभू मनु की सृष्टि में प्रचलित थीं वहीं स्मृतियां वर्तमान वैवस्वत मनु की सृष्टि में भी चली आईं। इनके साथ ही बहुत सी स्मृतियां और कथाएं जो स्वायंभू मनु की सृष्टि से सम्बन्धित थीं, वे भी भी वैवस्वत मनु की सृष्टि में चली आईं।
ये तीनों सृष्टियां एक के बाद एक करके अस्तित्व में आई थीं किंतु इनकी स्मृतियां एवं कथाएं आपस में इतनी घुल-मिल गई हैं कि इन्हें अलग किया जाना असम्भव प्रायः हो गया है।
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कुछ विद्वानों का विचार है कि देव-सृष्टि तथा मानव सृष्टियों से अलग भी कुछ अलौकिक सृष्टियां हैं, उनकी कथाएं भी धरती के मानवों की कहानियों के साथ मिल गई हैं। इन्द्र, अग्नि, बृहस्पति, वरुण, मित्रावरुण सहित अन्य देवतागण एवं अप्सराएं देवलोक वाली सृष्टि का हिस्सा हैं जबकि सृष्टि-कर्त्ता ब्रह्मा, पालनकर्त्ता भगवान विष्णु, सृष्टि हर्त्ता भगवान शिव, अन्नपूर्णा भगवती दुर्गा, बुद्धि के देवता गणेश देवलोक से भी अलग हैं और अलौकिक हैं। ये अमरावती में निवास नहीं करते हैं अर्थात् ये पांचों (विष्णु, शिव, दुर्गा, गणेश एवं ब्रह्मा) स्वर्ग के देवी-देवता नहीं हैं। इस कारण इनकी कथाओं का सम्बन्ध देवलोक अथवा स्वर्गलोक वाली सृष्टि से नहीं है।
मधु-कैटभ, भस्मासुर, त्वष्टा, विश्वरूप तथा वृत्रासुर, हिरण्यकश्यप, हिरण्याक्ष आदि असुरों के विनाश की कथाएं पाठक के मन में भ्रम उत्पन्न करती हैं कि ये कौनसे लोक की घटनाएं हैं। वस्तुतः ये पात्र विनाशकारी प्राकृतिक शक्तियों के प्रतीक हैं तथा प्राकृतिक घटनाओं के मानवीकरण की उपज हैं। जबकि दैत्य गुरु-शुक्राचार्य, राजा बली, प्रहलाद आदि दैत्यगण देव संस्कृति के समानांतर चल रही दैत्य संस्कृति के पात्र हैं।
देवलोक एवं दैत्यलोक इसी धरती पर ही स्थित रहे होंगे। देवलोक पहाड़ों पर स्थित होना अनुमानित है, मनुष्य लोक धरती पर था एवं दैत्यलोक समुद्र में स्थित छोटे-छोटे द्वीपों को कहते थे।
हिन्दू धर्म-ग्रंथों की कथाओं के सम्बन्ध में असमंजस का एक बड़ा कारण यह भी है कि हमारे लाखों प्राचीन ग्रंथ कई हजार वर्षों की अवधि में शकों, कुषाणों, हूणों, तुर्कों, मंगोलों एवं मुस्लिम आक्रांताओं द्वारा नष्ट कर दिए गए। ग्रंथों के विनष्टीकरण की प्रक्रिया में जो थोड़ी-बहुत कमी शेष रह गई थी, वह अंग्रेजों ने पूरी कर दी। बहुत से अंग्रेज शासक एवं लेखक प्राचीन भारतीय ग्रंथों, शिलालेखों, मूर्तियों एवं सिक्कों को पानी के जहाजों में भर-भर कर लंदन ले गए। इनमें से बहुत सी सामग्री आज भी ब्रिटिश म्यूजियम में रखी गई है किंतु इन तक पहुंच पाना अत्यंत ही कठिन है।
विपुल प्राचीन ग्रंथों के नष्ट हो जाने अथवा हम से दूर चले जाने के कारण हमारे प्राचीनतम इतिहास की कड़ियां बीच-बीच में से टूट गई हैं। इस कारण जब हम वेदों, उपनिषदों एवं पुराणों आदि में आई कथाओं एवं संदर्भों के आधार पर इतिहास लिखने का प्रयास करते हैं तो वह इतना असंगत एवं असम्बद्ध हो जाता है कि दूसरे धर्मों के लोग हमें ढोंगी एवं मिथ्या कहकर हमारा उपहास उड़ाने लगते हैं।
उदाहरण के लिए हम ‘मनु’ पर विचार करते हैं जिसे मानव सृष्टि का प्रथम पुरुष माना जाता है। विभिन्न भाषाओं एवं धर्मों में आए मनुष्य-वाची शब्द मैन, मान, मन, मनुज तथा मानव; ‘मनु’ शब्द से बने हैं किंतु हिन्दू धर्म-ग्रंथों में वर्णित मनु कोई एक पुरुष नहीं है। मनु कई हैं तथा समय के साथ उनकी संख्या में वृद्धि होती रही है। महाभारत में 8 मनुओं का उल्लेख है। श्वेतवराह-कल्प में 14 मनुओं का उल्लेख है। जैन ग्रन्थों में 14 कुलकरों का वर्णन है।
हिन्दू धर्म-ग्रंथों में ब्रह्मा के एक दिन को कल्प कहा गया है। प्रत्येक कल्प के बाद ब्रह्मा की रात्रि आती है। अर्थात् इस समय सृष्टि प्रलय चक्र में चली जाती है। एक कल्प में 14 मनु होते हैं तथा प्रत्युक मनु के काल को मन्वन्तर कहते हैं। प्रत्येक मन्वन्तर का एक मनु होता है। जब सृष्टि एक मन्वन्तर से दूसरे मन्वन्तर में जाती है तब सृष्टि का नाश तो नहीं होता किंतु उसका नवीनीकरण होता है। सृष्टि के नवीनीकरण की यह भूमिका एक मनु को निभानी पड़ती है।
हिन्दू धर्म के अनुसार वर्तमान में हम वराह-कल्प में रहते हैं। इस कल्प के छः मनु बीत चुके हैं जिनके नाम इस प्रकार से हैं- स्वायंभू मनु, स्वरोचिष मनु, उत्तम मनु, तापस मनु, रैवत मनु और चाक्षुषी मनु। वर्तमान समय सातवें मनु अर्थात् वैवस्वत मनु का है जिसे श्राद्धदेव मनु भी कहते हैं।
जब वैवस्वत मनु का मन्वन्तर समाप्त हो जाएगा तब सात मनु और होंगे जिनके नाम सावर्णि-मनु, दक्ष-सावर्णि-मनु, ब्रह्म-सावर्णि-मनु, धर्म-सावर्णि-मनु, रुद्र-सावर्णि-मनु, देव-सावर्णि-मनु या रौच्य-मनु और इन्द्र-सावर्णि-मनु या भौत-मनु होंगे।
वराह-कल्प के प्रथम मनु का नाम स्वायंभू-मनु था, जिनके साथ मिलकर शतरूपा नामक स्त्री ने प्रथम मानव सृष्टि उत्पन्न की। स्वायंभू-मनु एवं शतरूपा स्वयं धरती पर उत्पन्न हुए अर्थात् उनका कोई माता या पिता नहीं था। इसी मनु की सन्तानें मानव अथवा मनुष्य कहलाती हैं। स्वायंभू-मनु को आदि-मनु भी कहा जाता है। स्वायंभू-मनु के कुल में स्वायंभू सहित क्रमशः 14 मनु होने हैं जिनमें से अब तक सात हो चुके हैं।
कुछ ग्रंथों के अनुसार इस समय वैवस्वत-मनु तथा सावर्णि-मनु की अन्तर्दशा चल रही है। सावर्णि-मनु का आविर्भाव विक्रम सम्वत प्रारम्भ होने से 5630 वर्ष पूर्व हुआ था।
जब हम पौराणिक ग्रंथों से हिन्दुओं का प्राचीन इतिहास लिखने का प्रयास करते हैं तो प्रायः स्वायंभू-मनु से लेकर वैवस्वत मनु तक के मन्वन्तरों में घटी घटनाओं को आपस में मिला देते हैं। जिस प्रकार हर मन्वन्तर का मनु अलग होता है, उसी प्रकार हर मन्वन्तर के सप्तऋषि भी अलग होते हैं। कुछ विद्वानों का मानना है कि हर मनवन्तर में लगभग एक जैसी घटनाएं घटित होती हैं, इस कारण घटनाओं को अलग करके पहचान पाना कठिन हो जाता है कि कौनसी घटना कौनसे मन्वंतर से चली आई है!