भगवान श्री हरि विष्णु के मत्स्यावतार की कथा वाल्मीकि रामायण, महाभारत, मत्स्य पुराण, हरिवंश पुराण आदि विविध ग्रंथों में मिलती है। यह कथा प्रकृति में दो हिमकालों के बीच होने वाले जलप्लावन एवं तत्पश्चात् आने वाले ऊष्णकाल के आगमन की घटना को दर्शाती है तथा भगवान द्वारा सृष्टि एवं ज्ञान की रक्षा के लिए अवतार लेने की संकल्पना को व्याख्यायित करती है।
इस कथा के माध्यम से उस संघर्ष को भी दर्शाया गया है जो बुरे मनुष्यों द्वारा ज्ञान का विनाश करके अज्ञान फैलाने वालों और अच्छे मनुष्यों द्वारा ज्ञान की रक्षा करने वालों के बीच में अनंतकाल से चल रहा है।
हिन्दू धर्म की अटल मान्यता है किये वेद समस्त सत्य-ज्ञान का भण्डार हैं तथा वे मानव मात्र को ईश्वर तक पहुंचाने का मार्ग प्रदान करते हैं। हिन्दू धर्मावलम्बी आदि-काल से यह भी मानते आए हैं कि वेद अपौरुषेय हैं तथा ब्रह्मााजी के मुख से प्रकट हुए हैं।
दुष्ट राक्षस नहीं चाहते कि मानव जाति ज्ञान प्राप्त करके उन्नति करे तथा ईश्वरत्व को प्राप्त करे। इसलिए दुष्ट राक्षसों की यह प्रवृत्ति रहती है कि वे वेदों अर्थात् सत्य ज्ञान को छिपा दें अथवा उन्हें नष्ट कर दें। जबकि श्री हरि भगवान विष्णु चाहते हैं कि वेद मनुष्य जाति के पास उपलब्ध रहें। भगवान श्रीहरि का यह संकल्प है कि धरती पर जब भी धर्म की हानि होगी अथवा साधुओं को सताया जाएगा, तब वे स्वयं धरती पर आकर धर्म एवं संतों की रक्षा करेंगे।
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पुराणों में आई कथाओं के अनुसार दुष्ट-राक्षस नहीं चाहते कि मानव जाति ज्ञान प्राप्त करके उन्नति करे तथा ईश्वरत्व को प्राप्त करे। इसलिए दुष्ट-राक्षसों की यह प्रवृत्ति रहती है कि वे वेदों अर्थात् सत्य ज्ञान को छिपा दें अथवा उन्हें नष्ट कर दें। जबकि श्रीहरि भगवान विष्णु चाहते हैं कि वेद मनुष्य जाति के पास उपलब्ध रहें। इसलिए एक बार जब हयग्रीव नामक राक्षस ने वेदों को चुरा कर छिपा दिया तब भगवान श्रीहरि विष्णु ने भी हयग्रीव का अवतार धारण करके वेदों को राक्षस से मुक्त करवाया तथा पुनः ब्रह्माजी को प्रदान किया।
भगवान श्रीहरि का यह संकल्प है कि धरती पर जब भी धर्म की हानि होगी अथवा साधुओं को सताया जाएगा, तब वे स्वयं धरती पर आकर धर्म एवं संतों की रक्षा करेंगे। इसी संकल्प के कारण एक बार भगवान को मत्स्यावतार लेना पड़ा। मत्स्यावतार की कथा इस प्रकार से है-
एक बार जब सृष्टि का कल्पांत हुआ और सृष्टि का विघटन होकर प्रलय होने लगा तो, उसके ठीक पहले, प्रजापति ब्रह्मा के मुख से वेदों का ज्ञान प्रकट हुआ किंतु उसी समय ब्रह्माजी को नींद आ जाने के कारण हयग्रीव नामक एक दैत्य ने वेदों को चुराकर निगल लिया। इससे संसार में अज्ञान का अंधकार व्याप्त हो गया। तब भगवान श्रीहरि विष्णु ने धरती पर प्रकट होने का निश्चय किया।
उस समय धरती पर सत्यव्रत नामक एक पुण्यात्मा राजा तप कर रहा था। इस राजा को मनु भी कहा जाता है। यह मनु कल्पांत के पूर्व का राजा था अर्थात् उसका जन्म वर्तमान सृष्टि से पहले जो सृष्टि चल रही थी, उसमें हुआ था। वह बड़ा पुण्यात्मा एवं अत्यंत उदार हृदय का राजा था। भगवान श्रीहरि ने उसी राजा के समक्ष प्रकट होने का निश्चय किया। एक दिन जब प्रातःकाल में राजा मनु ने कृतमाला नामक नदी में स्नान करके तर्पण के लिए अंजलि में जल भरा, तो अंजलि में जल के साथ एक छोटी-सी मछली भी आ गई। राजा मनु ने मछली को नदी के जल में छोड़ दिया।
इस पर वह मछली बोली- ‘हे राजन! जल के बड़े-बड़े जीव छोटे-छोटे जीवों को मारकर खा जाते हैं। अवश्य ही कोई बड़ा जीव मुझे भी मारकर खा जाएगा। अतः कृपा करके मेरे प्राणों की रक्षा कीजिए।’
यह सुनकर राजा मनु के हृदय में दया उत्पन्न हो गई। उसने मछली को नदी से निकालकर जल से भरे हुए अपने कमण्डल में रख लिया। राजा ने वह कमण्डल अपने महल में लाकर रख दिया। जब रात्रि हुई तो राजा को एक आवाज सुनाई दी। राजा ने देखा कि कमण्डल में तैर रही मछली का शरीर इतना बढ़ गया है कि कमंडल उसके रहने के लिए छोटा पड़ने लगा है।
इसलिए मछली ने राजा मनु से कहा- ‘राजन्! मेरे रहने के लिए कोई दूसरा स्थान ढूंढ़िए, क्योंकि मेरा शरीर बढ़ गया है। मुझे घूमने-फिरने में बड़ा कष्ट होता है।’
इस पर राजा मनु ने मछली को कमंडल से निकालकर पानी से भरे हुए एक घड़े में रख दिया। पुनः अगली रात में मछली का शरीर इतना बढ़ गया कि मटका भी उसके रहने कि लिए छोटा पड़ गया।
दूसरे दिन मछली पुनः मनु से बोली- ‘राजन्! मेरे रहने के लिए कहीं और प्रबंध कीजिए, क्योंकि मटका भी मेरे रहने के लिए छोटा पड़ रहा है।’
तब राजा मनु ने मछली को निकालकर अपने महल के सरोवर में रख दिया। जब सरोवर भी मछली के लिए छोटा पड़ गया तो राजा मनु ने मछली को पहले नदी में और फिर उसके बाद समुद्र में डाल दिया। राजा ने देखा कि मछली का शरीर इतना अधिक बढ़ गया है कि समुद्र भी उसके रहने के लिए छोटा पड़ने लगा है।
अतः मछली पुनः मनु से बोली- ‘राजन! यह समुद्र भी मेरे रहने के लिए उपयुक्त नहीं है। मेरे रहने की व्यवस्था कहीं और कीजिए।’
मछली का आकार देखकर राजा विस्मित हो उठा। उसने इतनी विशाल मछली पहले कभी नहीं देखी थी। वह विस्मय-भरे स्वर में बोला- ‘मेरी बुद्धि को विस्मय के सागर में डुबो देने वाले आप कौन हैं? आपका शरीर जिस गति से प्रतिदिन बढ़ता है, उससे लगता है कि आप अवश्य परमात्मा हैं। यदि यह बात सत्य है, तो कृपा करके बताइए कि आपने मत्स्य रूप क्यों धारण किया है?’
तब मत्स्य रूपधारी श्रीहरि ने उत्तर दिया- ‘राजन! हयग्रीव नामक दैत्य ने वेदों को चुरा लिया है। इससे जगत में चारों ओर अज्ञान और अधर्म का अंधकार फैला हुआ है। मैंने हयग्रीव को मारने के लिए ही मत्स्य का रूप धारण किया है। आज से सातवें दिन पृथ्वी प्रलय-चक्र में जाएगी और धरती पर समुद्र उमड़ कर आ जाएगा। चारों ओर भयानक वृष्टि होगी। सारी पृथ्वी पानी में डूब जाएगी। जल के अतिरिक्त कहीं कुछ भी दिखाई नहीं देगा। तुम्हारे पास एक नाव पहुँचेगी। तुम समस्त अनाजों और औषधियों के बीजों, पशु-पक्षियों एवं विभिन्न प्राणियों तथा सप्त-ऋषियों को अपने साथ लेकर उस नाव में बैठ जाना तथा वासुकि नाग से उस नाव को मेरे सींग से बांध लेना। जब तक ब्रह्मा की रात रहेगी, मैं नाव समुद्र में खींचता रहूंगा। उस समय तुम जो भी प्रश्न करोगे मैं उनके उत्तर दूंगा।’ इतना कहकर भगवान अदृश्य हो गए।
राजा मनु उसी दिन से हरि-स्मरण करते हुए प्रलय होने की प्रतीक्षा करने लगे। सातवें दिन धरती पर प्रलय का दृश्य उपस्थित हो गया। समुद्र उमड़कर अपनी सीमाओं से बाहर बहने लगा। भयानक वृष्टि होने लगी। थोड़ी ही देर में पृथ्वी पर जल ही जल हो गया और सम्पूर्ण पृथ्वी जल में समा गई। उसी समय राजा मनु को एक नाव दिखाई पड़ी। राजा ने समस्त अनाजों और औषधियों के बीज, पशु-पक्षी एवं विविध प्रकार के प्राणी उस नाव में भर लिए तथा सप्त-ऋषियों को अपने साथ लेकर उस नाव में बैठ गए। अचानक राजा मनु को मत्स्य रूपी भगवान, प्रलय के सागर में दिखाई पड़े। तब राजा मनु ने सर्पराज वासुकि को रस्सी बनाकर अपनी नाव को मत्स्य रूपी भगवान श्रीहरि के सींग से बाँध लिया। भगवान उस नाव को लेकर सुमेरु पर्वत की ओर चल दिए। इस प्रकार यह नाव प्रलय के सागर में तैरने लगी। इस समय पूरी धरती पर केवल समुद्र लहरा रहा था जिसमें उस नाव के अतिरिक्त और कुछ भी दिखाई नहीं दे रहा था।
जब समुद्री ज्वार समस्त ब्रह्माण्ड को निगलने लगा तब राजा मनु एवं सप्त-ऋषि, मत्स्य रूपी भगवान श्रीहरि की स्तुति करने लगे- ‘हे प्रभो! आप ही सृष्टि के आदि हैं, आप ही पालक हैं और आप ही रक्षक हैं। दया करके हमें अपनी शरण में लीजिए, हमारी रक्षा कीजिए।’
राजा मनु और सप्त-ऋषियों की प्रार्थना से मत्स्य रूपी भगवान श्रीहरि विष्णु प्रसन्न हुए। उन्होंने राजा मनु को मत्स्य पुराण सुनाया तथा राजा मनु को आत्मज्ञान प्रदान किया। भगवान ने कहा- ‘मैं ही समस्त प्राणियों में निवास करता हूँ। मेरी बनाई हुई नश्वर सृष्टि में मेरे अतिरिक्त कहीं कुछ भी नहीं है। जो प्राणी मुझे सबमें देखता हुआ जीवन व्यतीत करता है, वह अंत में मुझमें ही मिल जाता है।’
यह आत्मज्ञान प्राप्त करके राजा मनु शरीर में ही जीवन-मुक्त हो गए। मत्स्य रूपी भगवान श्रीहरि ने नौका को हिमालय पर्वत की चोटी से बांध दिया। इसके बाद श्रीहरि विष्णु ने हयग्रीव नामक दैत्य को मारने के लिए स्वयं भी हयग्रीव का अवतार लिया तथा उससे वेद छीन लिए। जब ब्रह्मरात्रि समाप्त हुई तो ब्रह्माजी अपनी नींद से उठे। इसी समय धरती पर प्रलय की स्थिति समाप्त हो गई। भगवान ने वेद पुनः ब्रह्माजी को सौंप दिए। पुराणों में ब्रह्मरात्रि की अवधि 432 करोड़ मानव-वर्ष बताई गई है।
पूर्व-कल्पांत के राजा मनु अथवा राजा सत्यव्रत ही वर्तमान महाकल्प में ‘वैवस्वत मनु’ के नाम से जाने गए। ‘विवस्वान’ का अर्थ होता है ‘सूर्य’ और ‘वैवस्वत’ का अर्थ होता है- ‘सूर्य का पुत्र।’ माना जाता है कि धरती पर स्थित समस्त मानव इन्हीं राजा मनु की संतान हैं। इसीलिए भारत में उन्हें मानव, मनुपुत्र, मनुष्य तथा मनुज कहा जाता है। यूरोप में ‘मैन’ कहा जाता है। हैनीमैन तथा सोलोमन आदि ईसाई नामों में ‘मैन’ एवं ‘मन’ आदि शब्द प्रयुक्त होते हैं जबकि मुसलमान, सलमान, सुलेमान आदि आदि नामों में भी ‘मान’ अर्थात् ‘मैन’ शब्द लगा हुआ है। इस प्रकार वर्तमान समय में धरती पर निवास कर रहे समस्त मानव एक ही पिता ‘मनु’ की संतान हैं किंतु भारतीय पुराण आदि विविध धार्मिक ग्रंथों का मानना है कि इनकी माताएं अलग-अलग होने के कारण इनमें देव, दानव, राक्षस आदि विभिन्न प्रकार की प्रवृत्तियां पाई जाती हैं।