पिछली कड़ी में हमने चर्चा की थी कि वराह कल्प के प्रथम मनु का नाम स्वायंभू मनु था, जिनके साथ मिलकर शतरूपा नामक स्त्री ने प्रथम मानव सृष्टि उत्पन्न की। स्वायंभू मनु एवं शतरूपा स्वयं धरती पर उत्पन्न हुए अर्थात् उनका कोई माता या पिता नहीं था। इन्हीं मनु की सन्तानें मानव अथवा मनुष्य कहलाती हैं। स्वायंभू मनु को आदि मनु भी कहा जाता है। स्वायंभुव मनु के कुल में स्वायंभुव सहित क्रमशः 14 मनु हुए।
इस कड़ी में हम स्वायंभुव मनु पर चर्चा करेंगे। बहुत से विद्वानों को मानना है कि मनु शब्द की उत्पत्ति मन से हुई है, वे प्राणी जिनके पास मन है, वे मनु, मनुज, मनुष्य, मान एवं मैन आदि कहलाते हैं। ऋग्वेद में मनु का उल्लेख एक बार हुआ है, वहाँ उसे व्यक्तिवाचक संज्ञा न मानकर गुणवाचक संज्ञा माना गया है। पुराणों ने ‘मन’ की शक्ति से संचालित होने वाले प्राणियों के आदि पुरुष की मनु के रूप में कल्पना की तथा मनु की संतानों को मनुष्य कहा। पुराणों ने ही ऋग्वेद में गुणवाचक संज्ञा के रूप में प्रयुक्त ‘मनु’ को मानव घोषित किया।
हरिवंश पुराण के अनुसार प्रजापति ब्रह्मा ने अपनी देह क दो भाग करके एक भाग से मनु नामक पुरुष तथा दूसरे भाग से शतरूपा नामक स्त्री का निर्माण किया। इस प्रकार ब्रह्मा ने ही अपने शरीर के कुछ अंश से निर्मित अयोनिजा शतरूपा को उत्पन्न किया। शतरूपा ने दस हजार वर्ष तक तप करके स्वायंभू मनु को पति के रूप में प्राप्त किया।
विभिन्न पुराणों में आई कथाओं के अनुसार स्वायंभू-मनु सहित प्रत्येक मनु के काल खण्ड को एक मन्वन्तर कहा जाता है। प्रत्येक मन्वन्तर में 71 चतुर्युग होते हैं तथा प्रत्येक चर्तुयुग में चार युग होते हैं जिन्हें सत्युग, द्वापर, त्रेता और कलियुग कहा जाता है।
शतरूपा संसार की प्रथम स्त्री थी, ऐसी हिंदू मान्यता है। ब्रह्मांड पुराण के अनुसार शतरूपा का जन्म ब्रह्मा के वामांग से हुआ था तथा वह स्वायंभू-मनु की पत्नी थी। सुखसागर के अनुसार सृष्टि की वृद्धि के लिए ब्रह्माजी ने अपने शरीर को दो भागों में बाँट लिया जिनके नाम ‘का’ और ‘या’ अर्थात् ‘काया’ हुए। उन्हीं दो भागों में से एक से पुरुष तथा दूसरे से स्त्री की उत्पत्ति हुई। पुरुष का नाम स्वायंभू-मनु और स्त्री का नाम शतरूपा था।
पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-
स्वायंभू-मनु एवं शतरूपा के सात पुत्र तथा तीन पुत्रियां हुईं जिनमें से दो पुत्रों के नाम प्रियव्रत एवं उत्तानपाद और तीन कन्याओं के नाम आकूति, देवहूति और प्रसूति थे। हिंदू पुराणों के अनुसार इन्हीं तीन कन्याओं से संसार के समस्त मानवों की उत्पत्ति हुई।
मत्स्य पुराण में ब्रह्मा के शरीर के बाएं भाग से उत्पन्न स्त्री का नाम अंगजा, शतरूपा तथा सरस्वती बताया गया है। मत्स्य पुराण में लिखा है कि ब्रह्मा से शतरूपा के स्वायंभू-मनु तथा मरीचि आदि सात पुत्र हुए। हरिहर पुराण के अनुसार शतरूपा ने घोर तपस्या करके स्वायँभुव-मनु को पति रूप में प्राप्त किया और इनसे ‘वीर’ नामक एक पुत्र उत्पन्न हुआ।
मार्कण्डेय पुराण में शतरूपा के दो पुत्रों प्रियव्रत एवं उत्तानपाद और ऋद्धि तथा प्रसूति नामक दो कन्याओं का उल्लेख हुआ है। कहीं-कहीं तीसरी कन्या देवहूति का नाम भी मिलता है। शिव पुराण तथा वायु पुराण में दो कन्याओं प्रसूति एवं आकूति का नाम है। वायु पुराण के अनुसार ब्रह्मा के शरीर से दो अंश प्रकट हुए जिनमें से एक से मनु तथा दूसरे से शतरूपा उत्पन्न हुई। देवी भागवत पुराण में शतरूपा की कथा कुछ अलग दी गई है।
कुछ पुराणों के अनुसार स्वायंभू मनु एवं शतरूपा की पुत्री आकूति का विवाह रुचि प्रजापति के साथ और प्रसूति का विवाह दक्ष प्रजापति के साथ हुआ। देवहूति का विवाह कर्दम प्रजापति के साथ हुआ। सांख्य दर्शन के प्रणेता कपिल मुनि इसी देवहूति की संतान बताए गए हैं।
स्वायंभू-मनु के दो पुत्रों प्रियव्रत और उत्तानपाद में से बड़े पुत्र उत्तानपाद की दो पत्नियां थीं- सुनीति और सुरुचि। स्वायंभू-मनु के दूसरे पुत्र प्रियव्रत ने विश्वकर्मा की पुत्री बहिर्ष्मती से विवाह किया था जिससे दस पुत्र हुए।
स्वायम्भू-मनु के काल में मरीचि, अंगिरस, अत्रि, पुलह, कृतु, पुलस्त्य और वशिष्ठ नामक सप्तऋषि हुए। राजा मनु एवं इन ऋषियों ने प्रजा को सभ्य, सुखी और सुसंस्कृत बनाने का कार्य किया। जब महाराज मनु को प्रजा का पालन करते हुए मोक्ष की अभिलाषा हुई तो वे संपूर्ण राजपाट अपने बड़े पुत्र उत्तानपाद को सौंपकर रानी शतरूपा के साथ नैमिषारण्य तीर्थ चले गए। गोस्वामी तुलसीदासजी ने भी मनु एवं शतरूपा तथा उनके पुत्र उत्तानपाद का उल्लेख इस प्रकार किया है-
स्वायंभू मनु अरु सतरूपा। जिन्ह तें भै नरसृष्टि अनूपा।।
नृप उत्तानपाद सुत तासू। ध्रुव हरिभगत भयउ सुत जासू।।
राजा उत्तानपाद की बड़ी रानी सुनीति के पुत्र का नाम ध्रुव था और छोटी रानी सुरुचि के पुत्र का नाम उत्तम था। राजा उत्तानपाद अपनी छोटी रानी सुरुचि पर अधिक आसक्त थे। इस कारण वे सुरुचि के पुत्र को अधिक प्रेम करते थे। जब बालक ध्रुव पाँच वर्ष के हुए तब एक बार महाराज उत्तनापाद सुरुचि के साथ सिंहासन पर बैठे हुए थे और सुरुचि का पुत्र उत्तम उनकी गोद में खेल रहा था।
इसी समय सुनीति का पुत्र ध्रुव भी वहाँ आया और अपने पिता की गोद में बैठने का हठ करने लगा। राजा ने ध्रुव को भी गोद में बैठा लिया किंतु विमाता सुरुचि ने धु्रव को राजा उत्तानपाद की गोद से यह कहकर उतार दिया कि- ‘यदि तुम्हें अपने पिता की गोद में बैठना था तो तुम्हें मेरी कोख से जन्म लेना चाहिए था!’
इस पर बालक ध्रुव रोता हुआ अपनी माता के पास गया। जब माता ने ध्रुव से रोने का कारण पूछा तो बालक ध्रुव ने सारी बात अपनी माता को बताई तथा अपने माता से पूछा- ‘मैं अपने पिता की गोद में क्यों नहीं बैठ सकता?’
इस पर रानी सुनीति ने कहा- ‘तुम्हारे भाई उत्तम ने अवश्य ही पिछले जन्म में उत्तम कर्म किए हैं, इसलिए वह अपने पिता की गोद में बैठा है। तुम भी भगवान की तपस्या करके उन्हें प्रसन्न करो। वे सबके पिता हैं, वे अवश्य ही तुम्हें अपनी गोद में बैठाएंगे।’
माता सुनीति की बात सुनकर बालक ध्रुव के पूर्व-संस्कार जागृत हो गए और वे भगवान की तपस्या करने वन जाने को उद्धत हुए। इस पर माता सुनीति ने कहा- ‘अभी तुम्हारी आयु वन जाने की नहीं है। तुम यहीं रहकर भगवान की पूजा और दान-पुण्य करो।’
बालक ध्रुव ने भगवान को प्रसन्न करने के लिए वन में जाकर तपस्या करने का निश्चय कर लिया था। इसलिए ध्रुव ने कहा- ‘माता! आपका कहना सत्य है किंतु आज से मेरे माता-पिता भगवान् विष्णु हुए।’
जब ध्रुव वन में जाकर घनघोर तपस्या करने लगे तो देवर्षि नारद ने उनके समक्ष प्रस्ताव रखा कि वे राजा उत्तानपाद से कहकर ध्रुव को आधा राज्य दिलवा सकते हैं। इस पर ध्रुव ने नारदजी का प्रस्ताव मानने से मना कर दिया। इस पर देवर्षि नारद ने ध्रुव को ‘ऊँ नमो भगवते वासुदेवाय’ मंत्र का जाप करने का उपदेश दिया।
जब राजा उत्तानपाद को अपने पुत्र के वन में जाकर तप करने की सूचना मिली तो राजा बहुत लज्जित हुआ और राजा ने ध्रुव से पुनः राजमहल में लौटने का आग्रह किया किंतु ध्रुव अपने संकल्प पर अडिग रहे। इस पर देवराज इन्द्र ने धु्रव की तपस्या भंग करने के उपाय किए परन्तु बालक ध्रुव अडिग होकर तपस्या करते रहे।
अंत में भगवान श्रीहरि विष्णु, भक्तराज ध्रुव के समक्ष प्रकट हुए। श्रीहरि ने ध्रुव से कहा- ‘मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ। जब तक यह सृष्टि रहेगी, तब तक तुम्हें मेरे भक्त के रूप में आदर दिया जाएगा। अब तुम घर जाओ।’
श्रीहरि विष्णु के आदेश से भक्त ध्रुव फिर से अपने पिता के राज्य में आ गए। राजा उत्तानपाद ने ध्रुव को अपना सम्पूर्ण राज्य सौंप दिया और स्वयं वन में तपस्या करने चले गए। श्रीहरि की कृपा से वर्तमान कल्प में स्वायंभू-मनु के मन्वन्तर सहित कुल छः मन्वन्तर बीत चुके हैं तथा सातवें मन्वनतर का भी पर्याप्त समय बीत चुका है किंतु भक्तराज ध्रुव को आज भी उसी तरह स्मरण किया जाता है, जिस तरह वैवस्वत मनु के मन्वन्तर की सृष्टि के अन्य बड़े भक्तों को स्मरण किया जाता है। स्वायंभू-मनु के वंशजों में स्वायंभू-मनु के पुत्र राजा प्रियव्रत को भी बहुत आदर से याद किया जाता है।