Saturday, December 21, 2024
spot_img

2. पृथ्वी की उत्पत्ति से जुड़ी है मधु-कैटभ के वध की कथा!

वेदों में हिरण्यगर्भ से सौरमण्डल के उत्पन्न होने की कथा मिलती है। हिरण्यगर्भ को पुराणों में डिम्ब या अण्ड भी कहा गया है जिससे सौर मण्डल की उत्पत्ति हुई जिसमें सूर्य तथा उसके नौ ग्रहों के अस्तित्व में आने का उल्लेख है।

इस कथा के अनुसार सृष्टि के आरम्भ में ब्रह्माण्ड में दो स्वर्गीय नक्षत्र तेजी से चलते हुए एक-दूसरे के निकट आये। उन नक्षत्रों के आकर्षण के कारण दोनों नक्षत्रों की सतह पर ज्वार उठे। इस ज्वार के कारण एक धूम्रदण्ड का निर्माण हुआ जो दिखने में धुएं की लकीर जैसा था। जब वे दोनों नक्षत्र इस धूम्रदण्ड से दूर गए तो वह धूम्रदण्ड टूट कर दो टुकड़ें में बंट गया और ये दोनों धूम्रदण्ड अपने-अपने नक्षत्र की परिक्रमा करने लगे। इसी धूम्रदण्ड से टूट-टूटकर नवग्रहों का निर्माण हुआ, जो अब तक केन्द्रीय नक्षत्र अर्थात् सूर्य की परिक्रमा करते आ रहे हैं। इन्हीं नवग्रहों में से पृथ्वी भी एक है।

यह कथा दो सौर-मण्डलों के एक साथ अस्तित्व में आने की किसी विराट् खगोलीय घटना की ओर संकेत करती है जिसमें से एक सौर मण्डल में हमारी धरती भी है। इस कथा में यह भी संकेत किया गया है कि नौ ग्रह सूर्य के चक्कर लगा रहे हैं तथा सूर्य अपनी आकाश गंगा में चक्कर लगा रहा है।

ऋग्वेद, ब्रह्मवैवर्त पुराण, मार्कण्डेय पुराण, महाभारत तथा अमरकोश में भी एक विशाल अण्ड से पृथ्वी की उत्पत्ति का उल्लेख मिलता है। यही कथा आगे चलकर भगवान विष्णु के कानों से उत्पन्न होने वाले मधु-कैटभ नामक दो दैत्यों की कहानी का रूप ले लेती है जिसमें धूम्रदण्ड को भगवान विष्णु के रूप में उल्लिखित किया गया है। मधु कैटभ की कथा इस प्रकार से है- अत्यंत प्राचीन समय की बात है।

उस समय सम्पूर्ण सृष्टि में केवल जल ही विद्यमान था। इस जल को क्षीरसागर कहते थे जिसमें श्रीहरि भगवान विष्णु शेषनाग की शैय्या पर सोये हुए थे। उनके कान के मैल से मधु और कैटभ नाम के दो महापराक्रमी दानव उत्पन्न हुए। दोनों राक्षस सोचने लगे कि हमारी उत्पत्ति का कारण क्या है? कैटभ ने कहा- ‘भैया मधु! इस जल में हमारी सत्ता को बनाने वाली भगवती महाशक्ति ही हैं। उनमें अपार बल है। उन्होंने ही इस जलतत्त्व की रचना की है। वे ही परम आराध्या शक्ति हमारी उत्पत्ति की कारण हैं।’

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

इतने में आकाश में गूँजता हुआ सुन्दर ‘वाग्बीज’ सुनाई पड़ा। उन दोनों ने सोचा कि यही भगवती का महामन्त्र है। अब वे उसी मन्त्र का ध्यान और जप करने लगे। अन्न और जल का त्याग करके उन्होंने एक हजार वर्ष तक बड़ी कठिन तपस्या की। भगवती महाशक्ति उन पर प्रसन्न हो गयीं। अन्त में आकाशवाणी हुई- ‘हे दैत्यो! मैं तुम्हारी तपस्या से प्रसन्न हूँ। इच्छानुसार वर माँगो!’

आकाशवाणी सुनकर मधु और कैटभ ने कहा- ‘सुन्दर व्रत का पालन करने वाली देवि! आप हमें स्वेच्छा-मृत्यु का वरदान दें।’

इस पर देवी ने कहा- ‘हे दैत्यो! मेरी कृपा से इच्छा करने पर ही मौत तुम्हें मार सकेगी। देवता और दानव कोई भी तुम दोनों भाइयों को पराजित नहीं कर सकेंगे।’

TO PURCHASE THIS BOOK, PLEASE CLICK THIS PHOTO

देवी के वर देने पर मधु और कैटभ को अत्यन्त अभिमान हो गया। वे समुद्र में जलचर जीवों के साथ क्रीड़ा करने लगे। एक दिन अचानक प्रजापति ब्रह्माजी पर उनकी दृष्टि पड़ी। ब्रह्माजी श्रीहरि के नाभि-कमल के आसन पर विराजमान थे। उन दैत्यों ने ब्रह्माजी से कहा- ‘सुव्रत! तुम हमारे साथ युद्ध करो। यदि लड़ना नहीं चाहते तो इसी क्षण यहाँ से चले जाओ, क्योंकि यदि तुम्हारे अन्दर शक्ति नहीं है तो इस उत्तम आसन पर बैठने का तुम्हें कोई अधिकार नहीं है।’

मधु और कैटभ की बात सुनकर ब्रह्माजी को अत्यन्त चिन्ता हुई। उनका सारा समय तप में बीता था। युद्ध करना उनके स्वभाव के प्रतिकूल था। इसलिए वे भगवान विष्णु की शरण में गए। उस समय भगवान विष्णु योगनिद्रा में निमग्न थे। ब्रह्माजी के बहुत प्रयास करने पर भी भगवान विष्णु की निद्रा नहीं टूटी। इस पर ब्रह्माजी ने भगवती योगनिद्रा की स्तुति करते हुए कहा- ‘भगवती! मैं मधु और कैटभ के भय से भयभीत होकर आपकी शरण में आया हूँ। भगवान विष्णु आपकी माया से अचेत पड़े हैं। आप सम्पूर्ण जगत् की माता हैं। सभी के मनोरथ पूर्ण करना आपका स्वभाव है। आपने ही मुझे जगत्-स्रष्टा बनाया है। यदि मैं दैत्यों के हाथ से मारा गया तो आपकी बड़ी अपकीर्ति होगी। अतः आप भगवान विष्णु को जगाकर मेरी रक्षा करें।’

ब्रह्माजी की प्रार्थना सुनकर भगवती योगमाया, भगवान विष्णु के नेत्र, मुख, नासिका, बाहु और हृदय से निकल कर आकाश में स्थित हो गयीं और भगवान उठकर बैठ गए। तदनन्तर भगवान विष्णु का मधु और कैटभ से पाँच हज़ार वर्षों तक घनघोर युद्ध हुआ, फिर भी भगवान विष्णु मधु-कैटभ को परास्त नहीं कर सके। विचार करने पर भगवान को ज्ञात हुआ कि इन दोनों दैत्यों को भगवती योगमाया ने इच्छा-मृत्यु का वरदान प्रदान किया है। इसलिए भगवती की कृपा के बिना इनको मारना असम्भव है। भगवान द्वारा स्मरण किए जाते ही भगवान को भगवती योगनिद्रा के दर्शन हुए। भगवान ने रहस्यपूर्ण शब्दों में भगवती की स्तुति की।

भगवती ने प्रसन्न होकर कहा- ‘विष्णु! तुम देवताओं के स्वामी हो। मैं इन दैत्यों को माया से मोहित कर दूँगी, तब तुम इन्हें मार डालना।’

भगवती का अभिप्राय समझकर भगवान ने दैत्यों से कहा- ‘तुम दोनों के युद्ध से मैं परम प्रसन्न हूँ। अतः मुझसे इच्छानुसार वर माँगो।’

दैत्य भगवती की माया से मोहित हो चुके थे। उन्होंने कहा- ‘विष्णो! हम याचक नहीं हैं, दाता हैं। तुम्हें जो माँगना हो हम से प्रार्थना करो। हम देने के लिए तैयार हैं।’

इस पर भगवान बोले- ‘यदि देना ही चाहते हो तो मेरे हाथों से मृत्यु स्वीकार करो।’

भगवती की कृपा से मोहित होकर मधु और कैटभ ने भगवान की बात स्वीकार कर ली। भगवान विष्णु ने दैत्यों के मस्तकों को अपनी जांघों पर रख कर सुदर्शन चक्र से काट डाला। इस प्रकार मधु और कैटभ का अन्त हुआ।

अन्य पुराणों में आए विवरणों के अनुसार मधु-कैटभ की उत्पत्ति कल्पांत तक सोते हुए भगवान विष्णु के कानों के मैल, अथवा पसीने, या रजोगुण और तमोगुण से हुई थी। जब वे दोनों राक्षस ब्रह्माजी को मारने दौड़े तो विष्णु ने उन राक्षसों का वध कर दिया। तभी से विष्णु ‘मधुसूदन’ और ‘कैटभजित्’ कहलाए। मार्कण्डेय पुराण के अनुसार उमा ने कैटभ को मारा था, जिससे वे ‘कैटभा’ कहलाईं। महाभारत और हरिवंश पुराण का मत है कि जिस स्थान पर इन असुरों के मेद का ढेर लगा, उस ढेर को ‘मेदिनी’ अर्थात् पृथ्वी कहा गया। पद्मपुराण के अनुसार मधु तथा कैटभ ने देवासुर संग्राम में हिरण्याक्ष की ओर से संघर्ष किया था।

दुर्गा सप्तशती के प्रथम अध्याय में लिखा है कि महर्षि मेधा ने राजा सुरथ को योगमाया की माया के प्रभाव से मधु कैटभ के वध की कथा सुनाई।

महाभारत के सभापर्व के अध्याय 38 में भगवान नारायण द्वारा मधु-कैटभ के वध का वर्णन हुआ है। इस कथा के अनुसार ब्रह्माजी की प्रेरणा से मधु-कैटभ के शरीरों में वायु का प्रसार हुआ जिसके कारण वे परम बलशाली हो गए। इस कथा में यह भी कहा गया है कि जब श्रीहरि विष्णु ने मधु-कैटभ को मारने की इच्छा व्यक्त की तो उन दैत्यों ने भगवान से कहा- ‘तुम हमें ऐसे स्थान पर मारो, जहाँ की भूमि पानी में डूबी हुई न हो तथा मरने के पश्चात हम दोनों तुम्हारे पुत्र हों।’

कुछ पुराणों के अनुसार मधु-कैटभ ने कहा- ‘जो हमें युद्ध में जीत ले, हम उसी के पुत्र हों- ऐसी हमारी इच्छा है।’

इस प्रकार यह आख्यान और भी अनेक ग्रंथों में थोड़े-बहुत अंतर के साथ मिलता है। वस्तुतः मधु और कैटभ पृथ्वी के निर्माण की प्राचीन भारतीय अवधारणा से जुड़े हुए हैं जिसका आशय यह है कि यह धरती अच्छाई और बुराई दोनों से मिलकर बनी है।

Related Articles

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source