इल्तुतमिश अपने मालिक तथा पूर्व सुल्तान कुतुबुद्दीन ऐबक की कृपा से ही तुच्छ गुलाम की जिंदगी से ऊँचा उठता हुआ सुल्तान के सर्वोच्च पद पर पहुँचा था, इसलिये वह कुतुबुद्दीन ऐबक की दौहित्री रजिया से विशेष प्रेम करता था। इल्तुतमिश के भाग्योदय में योग्यता का भी बहुत बड़ा हाथ था इसलिये वह योग्य व्यक्तियों को अधिक पसंद करता था। सौभाग्य से रजिया बुद्धिमती और योग्य लड़की थी, इसलिये सुल्तान के मन में रजिया के प्रति प्रेम कई गुना अधिक हो गया।
इल्तुतमिश ने रजिया की योग्यता को कई बार परखा तथा हर बार रजिया इस परीक्षण में खरी उतरी। रजिया ने शहजादियों की तरह हरम में गुड़ियों से खेलने की बजाय, शहजादों की तरह घुड़सवारी, तलवारबाजी और युद्ध कला सीखी। देखते ही देखते रजिया की बुद्धिमत्ता, रूप-सौंदर्य तथा युद्ध कौशल के किस्से दिल्ली की आम जनता में किंवदन्तियों की तरह फैल गये। सुल्तान के हरम से लेकर दरबार तक रजिया शहजादों की भांति मुक्त विचरण करती।
जब रजिया में दुनियादारी की समझ आ गई तब वह अपने पिता इल्तुतमिश के कार्यों में हाथ बंटाने लगी। सुल्तान के युद्ध मोर्चों पर जाने की स्थिति में रजिया ही राजधानी दिल्ली में रहकर शासन संभालने लगी। उसके निर्णय सधे हुए होते थे, कार्यों में स्पष्टता रहती थी तथा वह अनुचरों को आदेश देकर कार्य का परिणाम प्राप्त करने में कुशल थी। उसे कार्य करने में आलस्य नहीं आता था और वह कठिन परिस्थिति का सामना भी धैर्य पूर्वक करती थी। इतना सब होने पर भी इल्तुतमिश ने अपने बड़े पुत्र नसीरुद्दीन मुहम्मद को अपना उत्तराधिकारी बनाने का निर्णय लिया किंतु भाग्यवश शहजादे नसीरुद्दीन की मृत्यु ई.1229 में इल्तुतमिश के जीवन काल में ही हो गई।
ई.1230 में इल्तुतमिश ने ग्वालियर के विरुद्ध अभियान किया। इस दौरान राजधानी की रक्षा का भार रजिया की देखरेख में सुल्तान के विश्वासपात्र अमीरों एवं वजीरों को दिया गया। रजिया ने इस जिम्मेदारी को पूरी निष्ठा और योग्यता से निभाया। ई.1231 में सुल्तान ग्वालियर के मोर्चे से लौटा। उसने अपनी राजधानी को सुरक्षित पाया तथा उसके प्रबंधन में पहले से भी अधिक सुधार देखा तो सुल्तान खुश हो गया। उसने अपने दरबारियों को बुलाकर उनके सामने ऐलान किया कि- ”मेरे पुत्र जवानी की ऐय्याशी में गर्क हैं और उनमें से कोई भी सुल्तान बनने के लायक नहीं हैं। रजिया ही देश का शासन चलाने योग्य है, और कोई नहीं है।”
इल्तुतमिश ने अपने अमीरों से रजिया को उत्तराधिकारी नियुक्त करने की सहमति प्राप्त की तथा रजिया को अपनी उत्तराधिकारी घोषित कर दिया। इसके बाद रजिया का नाम चांदी के टंका (तुर्की सुल्तानों की मुद्रा) पर खुदवाया जाने लगा। इल्तुमिश के कई लड़के थे, सुल्तान के इस निर्णय से उन लड़कों की माताओं के सीनों पर सांप लोट गये किंतु सुल्तान के निर्णय का विरोध करने की हिम्मत किसी में नहीं थी। फिर खुद रजिया का रुतबा ऐसा था कि सुल्तान के जीवित रहते रजिया की नियुक्ति का विरोध कर पाना किसी के लिये सरल कार्य नहीं था। प्रोफेसर के. ए. निजामी ने लिखा है- ”इस बात से इन्कार नहीं किया जा सकता कि इल्तुतमिश के उत्तराधिकारियों में वह सर्वश्रेष्ठ थी।”
रुकुनुद्दीन फीरोजशाह
30 अप्रेल 1236 को इल्तुमिश की मृत्यु हो गई। उसके द्वारा की गई व्यवस्था के अनुसार रजिया को सुल्तान बनना था किंतु इतिहास को यह निर्णय इतनी आसानी से स्वीकार्य नहीं था। तुर्क शासकों में उत्तराधिकार के नियम निश्चित नहीं थे। सुल्तान के मरते ही सल्तनत के ताकतवर अमीरों में संघर्ष आरम्भ हो जाता था और विजयी अमीर सल्तनत पर अधिकार कर लेता था। यहाँ तक कि सुल्तान के प्रतिभाशाली पुत्र भी प्रायः राज्याधिकार से वंचित रह जाते थे। इल्तुतमिश का योग्य एवं बड़ा पुत्र नासिरुद्दीन महमूद, इल्तुतमिश के जीवनकाल में ही मर गया था। उसका दूसरा पुत्र रुकुनुद्दीन निकम्मा और अयोग्य था तथा अन्य सभी पुत्र अवयस्क थे। इन सब बातों को सोच कर ही इल्तुमिश ने रजिया को अपना उत्तराधिकारी घोषित किया था।
जब इल्तुतमिश की मृत्यु हुई तो तुर्की अमीर, एक औरत को सुल्तान के रूप में स्वीकार करने को तैयार नहीं हुए। भारत में मुस्लिम सुल्तान, अरब के खलीफा के प्रतिनिधि के रूप में शासन करते थे। अरब वालों के रिवाजों के अनुसार औरत, मर्दों के द्वारा भोगे जाने के लिये बनाई गई थी न कि शासन करने के लिये। इस कारण मर्द अमीरों के लिए, औरत सुल्तान का अनुशासन मानना बड़े शर्म की बात थी। इल्तुतमिश के अमीरे हाजिब (प्रधानमंत्री) मुहम्मद जुनैदी ने रजिया का विरोध किया और 30 अप्रेल 1236 को इल्तुतमिश के सबसे बड़े जीवित पुत्र रुकुनुद्दीन फीरोजशाह को तख्त पर बैठा दिया। अमीरों के फैसले के आगे रजिया हाथ मलती रह गई और तख्त रुकुनुद्दीन फीरोजशाह के हाथ लग गया।
तत्कालीन मुस्लिम इतिहासकारों के अनुसार रुकुनुद्दीन रूपवान, दयालु तथा दानी सुल्तान था परन्तु उसमें दूरदृष्टि नहीं थी। वह प्रायः मद्यपान करके दरबार में बैठकर रक्कासाओं के नाच देखा करता था और प्रायः हाथी पर चढ़कर दिल्ली की सड़कों पर चमकदार स्वर्ण-मुद्राएँ बाँटा करता था। वह अपने पिता इल्तुतमिश के जीवन काल में बदायूँ तथा लाहौर का गवर्नर रह चुका था परन्तु उसने सुल्तान बनने के बाद मिले अवसर से कोई लाभ नही उठाया और दिन रात मद्यपान तथा भोग-विलास में डूबा रहा।
मद्यपान में धुत्त रहने के कारण रुकुनुद्दीन राज्य कार्यों की उपेक्षा करता था। इस कारण उसकी माँ शाह तुर्कान ने शासन की बागडोर अपने हाथों में ले ली। शाह तुर्कान का जन्म अभिजात्य तुर्कों में न होकर निम्न समझे जाने वाले मुसलमानों में हुआ था। वह अपने दैहिक सौन्दर्य के बल पर इल्तुतमिश जैसे प्रबल सुल्तान की बेगम बनी थी और अब रुकुनुद्दीन जैसे निकम्मे सुल्तान की राजमाता बन गई थी। इसलिये तुर्कान के विरुद्ध भी षड़यंत्र आरम्भ हो जाने निश्चित ही थे।
तुर्कान का कहर
शासन की बागडोर हाथ में आते ही शाह तुर्कान ने मदांध होकर इल्तुतमिश की अन्य उच्च-वंशीय विधवाओं तथा बेगमों के साथ बड़ा दुर्व्यवहार किया। उसने गिन-गिन कर उन अभिजात्य कुलों की शहजादियों से पिछले बैर चुकता किये। वह खुलेआम उन्हें गालियां देती, उन्हें बात-बात पर नीचा दिखाती और खाल खिंचवा लेने की धमकी देती। कुछ ही दिनों में हरम का वातावरण इतना जहरीला हो गया कि उसमें दूसरी बेगमों के लिये रहना मुश्किल हो गया। जिन बेगमों ने तुर्कान का विरोध करने की हिम्मत की, उनकी ज्यादा दुर्दशा हुई। तुर्कान ने उन बेगमों की हत्या करवा दी। यहाँ तक कि एक दिन इल्तुतमिश के एक पुत्र कुतुबुद्दीन की आंखे फुड़वाकर उसे अंधा कर दिया तथा कुछ दिन बाद उसकी हत्या करवा दी। सल्तनत के जिन वफादार अमीरों ने तुर्कान के इस कृत्य के विरोध में बोलने का साहस किया, तुर्कान ने उनकी भी हत्या करवा दी। इस कारण सुल्तान के हरम तथा दरबार दोनों जगह सुल्तान रुकुनुद्दीन तथा उसकी मां बेगम तुर्कान के विरुद्ध असंतोष भड़क गया।
सूबों में विद्रोह
इधर दिल्ली में सुल्तान के महल में यह मारकाट मची हुई थी और उधर भारत की पश्चिमोत्तर सीमा पर मंगोलों के आक्रमण आरम्भ हो गए। दिल्ली की सेनाओं ने इन आक्रमणों का सफलतापूर्वक सामना किया जिसके कारण मंगोलों को मारकर भगा दिया गया परन्तु सल्तनत में आन्तरिक अंशाति बढ़ती चली गई। इस असंतोष की चिन्गारी पहले तो दिल्ली की सड़कों पर और फिर दिल्ली से बाहर निकलकर सल्तनत के दूसरे सूबों में जा पहुंची। सल्तनत का पूरा वातावरण क्लेशमय हो गया और चारों ओर विरोध की अग्नि भड़क उठी। अयोग्य रुकुनुद्दीन तथा घमण्डी शाह तुर्कान इस विरोध को शांत करने में असमर्थ रहे। रुकुनुद्दीन का छोटा भाई गियासुद्दीन जो अवध का सूबेदार था, खुले रूप में विद्रोह करने पर उतर आया। उसने बंगाल से दिल्ली जाने वाले राजकोष को छीन लिया तथा भारत के कई बड़े नगरों को लूट लिया। जब ये समाचार मुल्तान, हांसी, लाहौर तथा बदायूं पहुंचे तो वहाँ के प्रांतीय शासक परस्पर समझौता करके रुकुनुद्दीन को गद्दी से उतारने के लिये दिल्ली की ओर चल पड़े।