राजा अम्बरीष पौराणिक धर्म साहित्य के अत्यंत लोकप्रिय पात्र हैं। वे वैवस्वत मनु के प्रपौत्र, ईक्ष्वाकु के पौत्र और राजा नाभाग के पुत्र थे। राजा अम्बरीष की कथा रामायण, महाभारत और विभिन्न पुराणों में कदाचित् अंतरों के साथ मिलती है। मान्यता है कि राजा अम्बरीष ने दस हज़ार राजाओं को पराजित करके अपार ख्याति अर्जित की थी। वे भगवान विष्णु के परम भक्त थे और अपना अधिकांश समय धार्मिक अनुष्ठानों में व्यय करते थे।
कुछ पौराणिक ग्रंथों के अनुसार महाराज अम्बरीष सप्तद्वीपवती सम्पूर्ण पृथ्वी के स्वामी थे और उनकी सम्पत्ति कभी समाप्त होने वाली नहीं थी। उनके ऐश्वर्य की संसार में कोई तुलना नहीं थी। इतना ऐश्वर्य होने पर भी महाराज अम्बरीष को अपना ऐश्वर्य स्वप्न के समान असत्य जान पड़ता था। इस कारण राजा अम्बरीष ने अपना सम्पूर्ण जीवन परमात्मा की भक्ति में लगाया।
भगवान के भक्त होने के साथ-साथ वे एक न्यायप्रिय राजा थे। उन्होंने निष्काम भाव से अनेक यज्ञों का आयोजन किया। इन यज्ञों में उन्होंने विविध वस्तुओं का प्रचुर दान किया और अनन्त पुण्य-धर्म किये। उन्हें स्वर्गप्राप्ति की अभिलाषा नहीं था, उनका चित्त तो सदा भगवान श्री हरि विष्णु के चरणों में ही लगा रहता था।
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महाराज अम्बरीष के प्रजाजन एवं राजकीय कर्मचारी भी अत्यंत धर्मनिष्ठ थे और अपना समय भगवान के पावन चरित्र सुनने में व्यतीत करते थे। भक्तवत्सल भगवान ने अपने सुदर्शन चक्र को राजा अम्बरीष तथा उनके राज्य की रक्षा में नियुक्त कर दिया। सुदर्शन चक्र राजा अम्बरीष के द्वार पर रहकर राजा तथा उनके राज्य की रक्षा करने लगा।
एक बार राजा अम्बरीष ने अपनी रानी के साथ भगवान श्रीकृष्ण को प्रसन्न करने के लिए एक वर्ष तक समस्त एकादशियों के व्रत करने का संकल्प किया। वर्ष पूरा होने पर राजा ने धूमधाम से भगवान की पूजा की तथा ब्राह्मणों को गऊ दान किया। समस्त धर्म कार्यों को निष्पादित करके जब राजा अम्बरीष अपनी रानी सहित व्रत खोलने के लिए उद्यत हुए। तभी महर्षि दुर्वासा अपने शिष्यों सहित राजा अम्बरीष के महल में पधारे।
राजा ने दुर्वासा का सत्कार किया और उनसे भोजन करने की प्रार्थना की। दुर्वासा ने राजा की प्रार्थना स्वीकार कर ली और स्नान करने यमुना तट पर चले गये। द्वादशी में केवल एक घड़ी शेष थी। द्वादशी में पारण न करने से व्रत भंग होता। उधर दुर्वासा ऋषि कब आयेंगे इसका पता नहीं था। अतिथि से पहले भोजन करना अनुचित था किंतु ब्राह्मणों से व्यवस्था लेकर राजा ने भगवान के चरणोदक को लेकर व्रत खोल लिया और भोजन के लिए ऋषि दुर्वासा की प्रतीक्षा करने लगे।
महर्षि दुर्वासा ने स्नान करके लौटते ही तपोबल से राजा के व्रत खोलने की बात जान ली। वे अत्यन्त क्रोधित होकर बोले कि मेरे भोजन करने से पहले ही तुमने व्रत क्यों खोला! ऋषि ने अपने मस्तक से एक जटा उखाड़ ली और उसे जोर से पृथ्वी पर पटक दिया। उस केश से कालाग्नि के समान ‘कृत्या’ नामक भयानक राक्षसी उत्पन्न हुई। वह तलवार लेकर राजा को मारने दौड़ी।
राजा जहाँ के तहाँ स्थिर खड़े रहे। उन्हें तनिक भी भय नहीं लगा। भगवान का सुदर्शन चक्र भगवान की आज्ञा से राजा की रक्षा में नियुक्त था। उसने पलक झपकते ही कृत्या को मार दिया और दुर्वासा की ओर दौड़ा। ज्वालामय विकराल चक्र को अपनी ओर आते देखकर दुर्वासा ऋषि प्राण लेकर भागे। वे दसों दिशाओं में, पर्वतों और गुफाओं में, समुद्रों और वनों में, जहाँ-तहाँ भागते रहे किंतु चक्र उनके पीछे लगा रहा।
इस पर ऋषि ने आकाश से लेकर पाताल तक की दौड़ लगाई। इन्द्र आदि लोकपाल तो उन्हें क्या शरण देते, स्वयं प्रजापति ब्रह्मा और भगवान शंकर ने भी ऋषि को अभय नहीं दिया।
शिवजी ने दुर्वासा को परामर्श दिया- ‘आपभगवान श्री हरि विष्णु की शरण में जाएं।’
अन्त में दुर्वासा वैकुण्ठ गए और भगवान विष्णु के चरणों में गिर पड़े। दुर्वासा ने कहा- ‘प्रभो! आपका नाम लेने से नारकीय जीव नरक से छूट जाते हैं। मैं आपकी शरण में आया हूँ, आप मेरी रक्षा करें।’
भगवान ने कहा- ‘महर्षि ! मैं तो भक्तों के अधीन हूँ। आपने एक भक्त के प्रति अपराध किया है। अतः आप राजा अम्बरीष के पास जाएं। वहीं आपको शान्ति मिलेगी।’
इधर राजा अम्बरीष बहुत चिन्त्ति थे। वे सोचते थे कि मेरे ही कारण दुर्वासा ऋषि को मृत्यु-भय से ग्रस्त होकर भूखे ही भाग जाना पड़ा है। अतः मैं ऋषि को भोजन कराए बिना स्वयं कैसे भोजन कर सकता हूँ! अतः राजा अम्बरीष केवल जल पीकर, ऋषि के लौटने की प्रतीक्षा करने लगे। एक वर्ष बाद दुर्वासा ऋषि जैसे भागे थे, वैसे ही भयभीत दौड़ते हुए आए और उन्होंने राजा के पैर पकड़ लिए। राजा ने सुदर्शन चक्र से प्रार्थना की कि वह शांत हो जाए। इस पर सुदर्शन शांत हो गया।
दुर्वासा को महाकष्ट से छुटकारा मिला और उन्होंने राजा से अपने अपराध के लिए क्षमा याचना करते हुए कहा- ‘मैंने भगवान के भक्तों का महत्व देख लिया। राजन! मैंने आपका इतना अपराध किया परन्तु आप मेरा कल्याण ही चाहते रहे। आप बड़े दयालु हैं।’
राजा अम्बरीष ने महर्षि के चरणों में प्रणाम करके उन्हें आदर सहित भोजन करवाया। महर्षि के चले जाने के बाद ही राजा ने भोजन किया। जब राजा अम्बरीष को राज्य करते हुए बहुत काल बीत गया तो उन्होंने अपना राज्य अपने पुत्र को सौंप दिया और स्वयं तप करने के लिए वन में चले गए। वहाँ भगवद्-भजन तथा जप-तप करते हुए राजा अम्बरीष ने परमपद प्राप्त किया।
राजा अम्बरीष के सम्बन्ध में पुराणों में कुछ और कथाएं भी मिलती हैं। एक कथा के अनुसार राजा अम्बरीष की पुत्री ‘सुंदरी’ सर्वगुण-सम्पन्न राजकन्या थी। एक बार महर्षि नारद और महर्षि पर्वत दोनों ही उस राजकन्या पर मोहित हो गए। वे दोनों ही भगवान के बड़े भक्त थे। अतः वे दोनों ही भगवान श्री हरि विष्णु के पास गए और दोनों ने भगवान से वरदान मांगा कि उसके प्रतिद्वंद्वी का मुंह बंदर जैसा हो जाए।
इस पर भगवान विष्णु ने दोनों को वानरमुखी बना दिया। जब ये दोनों ऋषि ‘राजकन्या सुन्दरी’ के पास गए तो सुंदरी उन्हें देखकर भयभीत हो गई। सुंदरी ने देखा कि उन दोनों के बीच में भगवान श्री हरि विष्णु स्वयं विराजमान हैं। अतः सुंदरी ने वरमाला भगवान श्री हरि के गले में डाल दी।
एक अन्य कथा के अनुसार, एक बार राजा अम्बरीष के यज्ञ-पशु को इन्द्र ने चुरा लिया। इस पर ब्राह्मणों ने परामर्श दिया कि इस दोष का निवारण मानव बलि से हो सकता है। राजा ने ऋषि ऋचीक को बहुत-सा धन देकर उनके पुत्र शुनःशेप को यज्ञ-पशु के रूप में क्रय किया। अन्त में विश्वामित्र की सहायता से शुनःशेप के प्राणों की रक्षा हुई।