Saturday, December 21, 2024
spot_img

अध्याय – 21 – भारत में सूफी मत

आराइन (नीची जाति वाले) और सैय्यद (ऊँची जाति वाले) इधर-उधर पैदा होते रहते हैं, परमात्मा को ज़ात की परवाह नहीं। वह ख़ूबसूरतों को परे धकेलता है और बदसूरतों को गले लगता है। अगर तू बाग़-बहार (स्वर्ग) चाहता है तो आराइनों का नौकर बन जा। बुल्ले की ज़ात क्या पूछता है? ऊपर वाले की बनाई दुनिया के लिए शुक्र मना।’                              

– बुल्लेशाह।

भारत में इस्लाम के साथ-साथ सूफी मत का भी प्रवेश हुआ। सूफी मत, इस्लाम का एक वर्ग अथवा समुदाय है और उतना ही प्राचीन है जितना कि इस्लाम। सूफी प्रचारक कई वर्गों तथा संघों में विभक्त थे। उनके अलग-अलग केन्द्र थे। इस्लाम की ही तरह सूफी मत का भी भारत में तीव्र गति से प्रचार हुआ। हिन्दू तथा मुसलमान दोनों ही सूफी सन्तों की ओर आकृष्ट हुए और उनकी शिक्षाओं से प्रभावित हुए।

सूफी मत का आदि स्रोत

सूफी मत का आदि स्रोत शामी जातियों की आदिम प्रवृत्तियों में मिलता है। सूफी मत की आधारशिला रति भाव था जिसका पहले-पहल शामी जातियों ने विरोध किया। मूसा और मुहम्मद साहब ने संयत भोग का विधान किया। मूसा ने प्रवृत्ति मार्ग पर जोर देकर लौकिक प्रेम का समर्थन किया। सूफी ‘इश्क मजाजी’ को ‘इश्क हकीकी’ की पहली सीढ़ी मानते हैं। सूफी मत पर इस्लाम की गुह्य विद्या, आर्यों के अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, नव-अफलातूनी मत एवं विचार स्वातंत्र्य की छाप स्पष्ट है। सूफी मत जीवन का क्रियात्मक धर्म तथा नियम है।

सूफी मत का अर्थ

वैराग्ययुक्त साधना द्वारा अल्लाह की उपासना को श्रेयस्कर मानने वाले सूफी कहलाते थे। सूफी मत अथवा ससव्वुफ इन्हीं संतों की देन है। यह एक सम्पूर्ण सांस्कृतिक परम्परा है तथा इसका इतिहास इस्लाम की तरह पुराना है। सूफी शब्द की व्युत्पत्ति के बारे में विभिन्न मत कहे जाते हैं-

(1.) सूफी शब्द अरबी भाषा के सफा शब्द से बना है जिसका अर्थ पवित्र तथा शुद्ध होता है। इस प्रकार सूफी ऐसे व्यक्ति को कहते हैं जो मन, वचन एवं कर्म से पवित्र हो।

(2.) कुछ विद्वानों के अनुसार सूफी शब्द की व्युत्पत्ति सोफिया शब्द से हुई है। सोफिया का अर्थ ज्ञान होता है। अतः सूफी उसे कहते हैं जो ज्ञानी हो।

(3.) इसकी व्युत्पत्ति सफ शब्द से मानने वालों का मत है कि सफ का अर्थ पंक्ति अथवा प्रथम श्रेणी होता है, अतः सूफी उन पवित्र व्यक्तियों को कहा जाता है जो अल्लाह के प्रिय होने के कारण कयामत के दिन प्रथम पंक्ति में खड़े होंगे।

(4.) अरबी भाषा में सूफ ऊन को कहते हैं। अतः सूफी शब्द का अर्थ सूफ अर्थात् एक प्रकार के पश्मीने से है। यह लबादा मोटे ऊन का बनता था और अत्यधिक सस्ता होता था। यह सादगी तथा निर्धनता का प्रतीक माना जाता था। पश्चिम एशिया में ऐश्वर्य तथा भौतिक वैभव से परे सादा एवं सरल जीवन-यापन करने वाले संत (इसमें ईसाई भी शामिल थे) इस प्रकार का वस्त्र धारण करते थे। अल्लाह की उपासना में तल्लीन इस्लामी संतों ने भी इसे अपना लिया। वे इसी वस्त्र को धारण करने के कारण पवित्रता, सादगी तथा त्याग के प्रतीक बन गये और सूफी कहलाने लगे।

(5.) कुछ विद्वानों के अनुसार सूफी मत पैगम्बर मुहम्मद के रहस्यमय विचारों का प्रतिनिधित्व करता है। कुरान शरीफ तथा हदीस में कुछ उल्लेख इसके सम्बन्ध में मिलते हैं। इस प्रकार सूफी मत, इस्लाम के समान ही प्राचीन माना जाता है।

चिश्तिया सम्प्रदाय एवं उसके प्रमुख सूफी संत

सूफियों में चिश्तिया सम्प्रदाय सबसे उदार और लोकप्रिय सम्प्रदाय माना जाता है। चिश्ती संप्रदाय के संस्थापक ख्वाजा अबू-इसहाक-शामी चिश्ती, हजरत अली के वंशज थे। खुरासान के चिश्त नगर में रहने के कारण वे चिश्ती कहलाये। चिश्त तथा फीरोजकुह इनके केन्द्र थे जो अधिक समय तक स्थाई न रहे। सूफी दरवेशों के रूप में वहीं से चलकर वे भारत आये।

ईराक की राजधानी बगदाद में गौस उल-आजम महबूब सुभानी शेख अब्दुल जिलानी की दरगाह है। वह सूफी सम्प्रदाय का फकीर था। इस संप्रदाय के फकीर पैरों में जूते-चप्पल नहीं पहनते थे तथा कपड़ों के स्थान पर मोटा ऊनी लबादा धारण करते थे। इनकी संख्या बहुत कम थी और ये स्थान-स्थान पर घूम कर अल्लाह की आराधना का उपदेश दिया करते थे।

मुसलमानों के धर्म गुरु पैगम्बर मुहम्मद सूती लबादा ओढ़ते थे। अतः सूफी फकीरों को ऊनी लबादा ओढ़ने के कारण इस्लाम विरोधी माना जाता था। ऊनी लबादा धारण करने की परम्परा ईसाइयों में थी। अनेक सूफियों ने अपने आप को पैगम्बर मुहम्मद द्वारा प्रतिपादित इस्लाम धर्म से अलग माना। ईसाइयों ने भी कोशिश की कि वे सूफी मत को अपनी ओर खींच लें।

इसलिये उन्होंने सूफी फकीरों को मूहन्ना अथवा मसीहा का शिष्य कहना प्रारंभ कर दिया किन्तु इन दोनों मतों में मौलिक अन्तर है। मसीहा का मूल मंत्र विराग है जबकि सूफी मत के मूल में प्रेम का निवास है। ईसाई तो सूफी मत को भले ही अपने धर्म में घोषित नहीं कर पाये किन्तु सूफी फकीरों ने ईसाई धर्म में बहुत बड़ा एवं क्रान्तिकारी परिवर्तन कर दिया। वर्तमान के मसीह मत में प्रेम का प्रसार सूफीमत के संसर्ग का परिणाम है।

मोइनुद्दीन चिश्ती

गौस उल आजम के शिष्य मोइनुद्दीन का जन्म 1142 ई. में सीस्तान में हुआ था। 1186 ई. में मोइनुद्दीन को अपने गुरु का उत्तराधिकारी चुना गया। उन दिनों अफगानिस्तान में इस्लाम का प्रचार नहीं था। अतः गौस उल आजम ने अपने शिष्यों को आदेश दिया कि वे अफगानिस्तान में जाकर इस्लाम का प्रचार करें। सूफी दरवेश जहाँ भी जाते वहाँ की संस्कृति, भाषा, खान-पान, रीति-रिवाज और सामाजिक परम्पराओं को अपना लेते थे।

वे शीघ्र ही पूरे अफगानिस्तान में फैल गये और वहाँ से भारत में आ गये। इनमें से मोइनुद्दीन भी एक थे। ई.1191 में मोइनुद्दीन, गौर साम्राज्य की अंतिम सीमा पर स्थित अजमेर आये। उन्होंने फारसी या अरबी में धर्मोपदेश करने के स्थान पर ब्रजभाषा को अपनाया तथा ईश्वर की आराधना में हिन्दू तौर-तरीकों को भी जोड़ लिया। उन्होंने ब्रजभाषा में कव्वाली गाने की प्रथा आरम्भ की।

शेख निजामुद्दीन औलिया के अनुसार अजमेर नरेश तथा उनके कर्मचारियों ने ख्वाजा के अजमेर प्रवास को स्वयं के लिये तथा राज्य के लिये अनिष्टकारी मानते हुए उन्हें कष्ट देने का प्रयास किया किंतु ख्वाजा की चमत्कारी और अलौकिक शक्ति के फलस्वरूप अंततः पृथ्वीराज चौहान (राय पिथौरा) को मुईजुद्दीन मुहम्मद के हाथों पराजित एवं अपमानित होना पड़ा।

मोइनुद्दीन चिश्ती की शिक्षाएँ

मोइनुद्दीन चिश्ती के अनुसार चार वस्तुएं उत्तम होती हैं- प्रथम, वह दरवेश जो अपने आप को दौलतमंद जाहिर करे। द्वितीय वह भूखा, जो अपने आप को तृप्त प्रकट करे। तृतीय वह दुःखी जो अपने आप को प्रसन्न दिखाये और चतुर्थ, वह व्यक्ति जिसे शत्रु भी मित्र परिलक्षित हो। एक अनुश्रुति के अनुसार एक बार एक दरवेश ने ख्वाजा से एक अच्छे फकीर के गुणों पर प्रकाश डालने के लिये विनय की।

ख्वाजा का मत था कि शरिया के अनुसार पूर्ण विरक्त व्यक्ति अल्लाह के निर्देशों का पालन करता है और उसके द्वारा निषिद्ध कार्य नहीं करता। तरीका एक सच्चे दरवेश के लिये नौ करणीय कार्यों का विवरण देता है। जब ख्वाजा से इन नौ शर्तों की व्याख्या करने की प्रार्थना की तो उन्होंने अपने शिष्य हमीदुद्दीन नागौरी को इनकी व्याख्या करने और समस्त के ज्ञान के लिये लिपिबद्ध करने की आज्ञा दी। शेख हमीदुद्दीन ने फकीर के जीवन के लिये आवश्यक नौ शर्तों का वर्णन इस प्रकार किया है-

(1.) किसी को धन नहीं कमाना चाहिये।

(2.) किसी को किसी से धन उधार नहीं लेना चाहिये।

(3.) सात दिन बीतने पर भी यदि किसी ने कुछ नहीं खाया है तो भी इसे न तो किसी को बताना चाहिये और न किसी से कोई सहायता लेनी चाहिये।

(4.) यदि किसी के पास प्रभूत मात्रा में भोजन, वस्त्र, रुपये या खाद्यान्न हो तो उसे दूसरे दिन तक भी नहीं रखना चाहिये।

(5.) किसी को बुरी बात नहीं कहनी चाहिये। यदि किसी ने कष्ट दिया हो तो उसे (कष्ट पाने वाले को) अल्लाह से प्रार्थना करनी चाहिये कि उसके शत्रु को सन्मार्ग दिखाये।

(6.) यदि कोई अच्छा कार्य करता है तो यह समझना चाहिये कि यह उसके पीर की कृपा है अथवा यह काई दैवी कृपा है।

(7.) यदि कोई बुरे काम करता है तो उसे उसके लिये स्वयं को दोषी मानना चाहिये और उसे अल्लाह का खौफ होना चाहिये। भविष्य में बुराई से बचना चाहिये। अल्लाह से खौफ करते हुए उसे बुरे कामों की पुनरावृत्ति नहीं करनी चाहिये।

(8.) इन शर्तों को पूरा करने के बाद दिन में नियमित उपवास रखना चाहिये और रात में अल्लाह की इबादत करनी चाहिये।

(9.) व्यक्ति को मौन रहना चाहिये ओर जब तक आवश्यक न हो, नहीं बोलना चाहिये। शरिया निरन्तर बोलना और पूर्णतः मौन रहना, अनुचित बताता है। केवल अल्लाह को खुश करने वाले वचन बोलने चाहिये।

ख्वाजा की रहस्यवादी विचारधारा के अनुसार व्यक्ति की सबसे बड़ी इबादत अनाथों की मदद है। जो लोग अल्लाह की उपासना करना चाहते हैं, उनमें सागर की गम्भीरता, धूप जैसी दयालुता और पृथ्वी जैसी विनम्रता होनी चाहिये। हिन्दू-धर्म और दर्शन का मूल बिन्दु प्रेम है। जब हिंदुओं को उसी प्रेम के दर्शन सूफियों के कलाम में हुए तो उन्होंने अपने हदय की ग्रन्थि को खोल फैंका और वे मोइनुद्दीन में आस्था रखने लगे। मोइनुद्दीन सरल हदय के स्वामी थे।

वे प्राणी मात्र से प्रेम करने वाले और लोगों का उपकार चाहने वाले थे। ख्वाजा मोइनुद्दीन चिश्ती के निधन की कोई निश्चित तिथि नहीं मिलती। कुछ स्रोतों के अनुसार 1227 ई. में 97 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ तथा कुछ अन्य स्रोत उनके निधन की तिथि 1235-36 ई. के आसपास मानते हैं। कुछ विद्वान उनके निधन की तिथि 16 मार्च 1236 बताते हैं।

बाबा फरीदुद्दीन

बाबा फरीदुद्दीन दूसरे प्रसिद्ध सूफी संत थे। फरीद का जन्म काबुल के राजवंश में हुआ था। फरीद ने धन-वैभव त्याग कर वैराग्य ले लिया। सतलज नदी के तट पर स्थित एक सड़क जो मुल्तान से दिल्ली आती है बाबा फरीद अपनी कुटिया बनाकर रहने लगे। उनके विचार बड़े ऊँचे थे। उनके उपदेशों से हिन्दू तथा मुसलमान दोनों प्रभावित हुए थे। 1265 ई. में 92 वर्ष की आयु में उनका निधन हुआ।

गेसू दराज

सूफी संत गेसू दराज भी विख्यात सूफी थे। वे अपने लम्बे बालों के लिये प्रसिद्ध थे। उनका जन्म दिल्ली में हुआ था परन्तु वे दक्षिण भारत चले गये और बहमनी राज्य में स्थायी रूप से निवास करने लगे। गेसू दराज का ज्ञान अत्यन्त व्यापक था। कहा जाता है कि उन्होंने 175 पुस्तकों की रचना की। 1422 ई. में 101 वर्ष की अवस्था में उनका निधन हुआ।

Related Articles

2 COMMENTS

  1. Hi there! This post could not be written much better!

    Going through this post reminds me of my previous roommate!
    He always kept talking about this. I will send this information to him.
    Fairly certain he’ll have a very good read. Thank you for sharing!!

LEAVE A REPLY

Please enter your comment!
Please enter your name here

Stay Connected

21,585FansLike
2,651FollowersFollow
0SubscribersSubscribe
- Advertisement -spot_img

Latest Articles

// disable viewing page source