अल्लाउद्दीन खिलजी का तीसरे नम्बर का पुत्र मुबारक खाँ मलिक काफूर तथा अपने छोटे भाई शिहाबुद्दीन उमर की हत्या करके मुबारक शाह के नाम से स्वयं सुल्तान बन गया। उसने अपने बड़े भाई खिज्र खाँ की हत्या करके उसकी पत्नी देवलदेवी को भी छीन लिया। उन्हीं दिनों मुबारक शाह ने अपने अन्य जीवित भाई शादी खाँ की भी हत्या करवा दी। जिन चचेरे भाइयों ने मुबारकशाह के विरुद्ध विद्रोह करने का प्रयास किया था, उस परिवार में किसी भी स्त्री-पुरुष को जीवित नहीं छोड़ा गया।
मुबारक खाँ अधिक दिन तक दिल्ली के तख्त पर बैठा नहीं रह सका। उसके पतन का कारण उसकी क्रूरता तथा विलासिता की प्रवृत्ति तो थी ही, साथ ही गुजरात का रहने वाला खुसरो खाँ नामक एक अमीर भी उसके पतन के लिए जिम्मेदार था।
खुसरो खाँ गुजरात का रहने वाला हिन्दू था। उसका वास्तविक हिन्दू नाम अब ज्ञात नहीं है। उसे किसी समय इस्लाम स्वीकार करने को बाध्य किया गया था। इसलिए वह खिलजियों से बदला लेने की ताक में था।
खुसरो खाँ संयोगवश मुबारक खाँ के सम्पर्क में आया और उसका विश्वस्त सहायक बन गया। जब मुबारक खाँ दिल्ली का सुल्तान बना तो खुसरो खाँ के भाग्य का भी उत्कर्ष हो गया और वह दिल्ली दरबार का प्रमुख अमीर बन गया। उसे बिना किसी आज्ञा के सुल्तान के निजी कक्ष में प्रवेश करने की छूट थी।
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मुबारक खाँ ने खुसरो को तेलंगाना के राय का विद्रोह दबाने के लिए भेजा। खुसरो को इस कार्य में पूर्ण सफलता प्राप्त हुई। खुसरो खाँ दक्षिण में अपना स्वतन्त्र राज्य स्थापित करना चाहता था परन्तु मुबारक खाँ ने उसे दिल्ली बुलवा लिया। अब खुसरो ने दिल्ली में अपनी महत्त्वाकांक्षाओं को विस्तार देना आरम्भ किया।
खुसरो खाँ ने सुल्तान मुबारक खाँ को नष्ट करने और दिल्ली सल्तनत पर कब्जा करने के लिए मुबारक खाँ को दुर्गुणों में फंसाना आरम्भ किया। स्त्री एवं शराब के व्यसनों में फंस जाने पर मुबारक खाँ की क्रूरता और विलासिता बढ़ती चली गई। वह दिन-रात शराब के नशे में डूबा रहता और विलासिता में चूर होकर औरत के कपड़े पहनकर दरबार में आने लगा।
मुबारक शाह ने भांडों तथा वेश्याओं को आज्ञा दी कि वे दरबार के पुराने तथा अनुभवी अमीरों का अभद्र संकेतों तथा अशिष्ट भाषा से अभिवादन करें। जियाउद्दीन बरनी ने लिखा है कि कभी-कभी सुल्तान नंगा होकर अपने दरबारियों के बीच दौड़ा करता था। उसने खलीफा की उपाधि भी धारण कर ली।
जब मुबारकशाह के श्वसुर जफर खाँ और एक निकट सम्बन्धी शहीम ने सुल्तान की हरकतों का विरोध किया तो मुबारकशाह ने उन दोनों को मरवा दिया। कुछ समय बाद देवगिरि के मुस्लिम सूबेदार मलिक यकलाकी ने बगावत का झण्डा बुलंद किया किंतु दक्षिण में नियुक्त एक अन्य मुस्लिम अधिकारी ने मलिक यकलाकी को पकड़कर दिल्ली भेज दिया। सुल्तान ने मलिक यकलाकी के नाक-कान कटवाकर उसे समाना का गवर्नर बनाकर भेज दिया।
खुसरो खाँ ने सुल्तान से आज्ञा प्राप्त करके 40 हजार अश्वारोहियों की एक विशेष सेना तैयार की जिसमें उसने अपनी जाति के परवारी अथवा बरवार लोगों को भर्ती किया। इनमें बहुत से लोग खुसरो खाँ के सम्बन्धी थे। वह सेना खुसरो खाँ की निजी सेना के रूप में कार्य करती थी। खुसरो खाँ ने इसी सेना के बल पर सुल्तान मुबारक खाँ खिलजी को मारने तथा दिल्ली का तख्त हड़पने की योजना बनाई।
सुल्तान के आदेश से खुसरो खाँ सुल्तान के महल में बने एक कक्ष में रहता था। एक दिन खुसरो ने सुल्तान से अनुरोध किया कि मेरे सगे-सम्बन्धी मुझसे मिलने के लिए आते हैं, उन्हें महल के दरवाजे पर न रोका जाए, अपितु मुझसे मिलने के लिए सीधे अंदर आने दिया जाए। सुल्तान ने खुसरो की यह बात मान ली। इस प्रकार खुसरो के सिपाही दिन-रात बिना किसी रोक-टोक के महल के भीतर आने-जाने लगे।
अब खुसरो के लिए सुल्तान के विरुद्ध षड़यंत्र करना और उसकी हत्या करना आसान हो गया। 4 अप्रेल 1320 को खुसरो खाँ अपने साथियों के साथ सुल्तान के कक्ष में घुस गया। जब नशे में धुत्त सुल्तान ने खुसरो से पूछा कि यह शोरगुल क्यों हो रहा है? तो खुसरो ने उत्तर दिया कि कुछ घोड़े छूट गए हैं और हमारे लोग उन्हें पकड़ने का प्रयत्न कर रहे हैं। इसलिए यह शोरगुल हो रहा है।
खुसरो यह कह ही रहा था कि खुसरो के कुछ सशस्त्र सिपाही सुल्तान मुबारक खाँ के कक्ष में घुस गए और सुल्तान को पकड़ने के लिए दौड़े! इस पर सुल्तान मुबारक खाँ आतंकित होकर उछल पड़ा और रनिवास की ओर भागा किंतु खुसरो खाँ ने सुल्तान मुबारक खाँ के बाल पकड़ लिये। जहीरा नामक एक आदमी ने भालों से छेदकर सुल्तान मुबारक खाँ खिलजी को वहीं पर मार डाला। इस प्रकार मुबारक खाँ खिलजी वंश का अंतिम सुल्तान सिद्ध हुआ।
मुबारक खाँ खिलजी का सिर धड़ से अलग करके नीचे चौक में फैंक दिया गया। दूसरे दिन खुसरो ने सुल्तान की मृत्यु का घोषणा कर दी और 15 अप्रेल 1320 को स्वयं नासिरूद्दीन खुसरोशाह के नाम से दिल्ली के तख्त पर बैठ गया। इस प्रकार खिलजी वंश का अन्त हो गया। अल्लाउद्दीन खिलजी के शासन में खिलजी वंश का शासन चरमोत्कर्ष को पहुँच गया था परन्तु उसकी मृत्यु के केवल चार साल में खिलजी राजपरिवार का समूल नाश हो गया।
दिल्ली के खिलजियों का नाश वस्तुतः उस काल के मुस्लिम शासकों की स्वाभाविक कमजोरियों का इतिहास है। उस काल के मुस्लिम शासक एक जैसी कमजोरियों से ग्रस्त थे। एक ओर तो उन्हें अनुशासनहीन, लालची एवं घमण्डी तुर्की अमीरों के बल पर अपने राज्य का ताना-बना खड़ा करना था तो दूसरी ओर एक उद्दण्ड सेना को धन के बल पर अपने नियंत्रण में रखना था। तीसरी ओर उन्हें एक ऐसी जनता पर शासन करना था जो सुल्तानों को अपना शत्रु मानती थी और सुल्तान उस जनता को अपना शत्रु मानते थे। चौथी ओर उनकी सल्तनत चारों ओर से हिन्दू शासकों से घिरी हुई थी जो हर समय दिल्ली सल्तनत को नष्ट कर देने की फिराक में रहते थे। इन सब कारणों से प्रत्येक सुल्तान को दिल्ली सल्तनत मुट्ठी में बंद रेत की तरह लगता था जो हर क्षण हाथों से फिसलती हुई प्रतीत होती थी।
खिलजी राजवंश अपने स्वामियों की छलपूर्वक हत्या करके तख्त हथियाने में सफल हुआ था। इन छल और हत्याओं ने खिलजी राजवंश का तब तक पीछा नहीं छोड़ा जब तक कि इस परिवार के अंतिम शहजादे की हत्या नहीं कर दी गई। नैतिकता तो इस परिवार को जैसे छू भी नहीं गई थी। ऐसे राजपरिवार के साथ किसी की भी सहानुभूति नहीं थी। इस कारण खिलजी जिस तेजी से उभरे थे, उसी तेजी से इतिहास के नेपथ्य में चले गए।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता