नासिरुद्दीन ने अपने गुलाम बलबन की सहायता से चालीसा मण्डल पर नियंत्रण कस लिया तथा अपनी सल्तनत को मजबूती से जमा लिया किंतु सुल्तान तथा सल्तनत दोनों के संकटों का कोई अंत नहीं था। जब तक तुर्की अमीर जीवित थे, जब तक मंगोल जीवित थे और जब तक हिन्दू सरदार जीवित थे, दिल्ली सल्तनत शांति की सांस नहीं ले सकती थी। यह एक अलग बात है कि भारत में अशांति का सबसे बड़ा कारण तो दिल्ली सल्तनत स्वयं थी!
सुल्तान नासिरुद्दीन की समस्याएँ अपने पूर्ववर्ती सुल्तानों की ही तरह अत्यन्त विकराल थीं जिनके कारण सुल्तान के मारे जाने तथा सल्तनत के नष्ट हो जाने का पूरा भय था परन्तु नासिरुद्दीन में उन समस्याओं को सुलझाने की क्षमता अपने पूर्ववर्ती सुल्तानों की अपेक्षा अधिक थी। इसलिए सुल्तान ने अपने शत्रुओं से लड़ने का कार्य दृढ़़तापूर्वक सम्पन्न किया।
जिस प्रकार याकूत हब्शी ने रजिया की छाया बनकर उसके प्राणों तथा उसके राज्य की रक्षा करने के प्रयास किए थे, उसी प्रकार बलबन ने भी नासिरुद्दीन की छाया बनकर उसके प्राणों एवं उसके राज्य की रक्षा की। ई.1249 में बलबन ने अपनी पुत्री का विवाह सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद से कर दिया। इससे सुल्तान नासिरुद्दीन तथा तथा प्रधानमंत्री बलबन के बीच विश्वास का रिश्ता और भी गहरा हो गया।
इन दिनों दिल्ली सल्तनत के पश्चिमोत्तर सीमांत प्रदेश पर मंगोलों के आक्रमण बढ़ गए थे। सल्तनत की रक्षा के लिए इन आक्रमणों का रोकना नितान्त आवश्यक था। जब सुल्तान नासिरुद्दीन ने सल्तनत पर मजबूती से अधिकार कर लिया तब अनेक तुर्क सरदार सुल्तान नासिरुद्दीन का दरबार छोड़कर मंगोलों की शरण में चले गए जिससे सुल्तान की चिन्ता बढ़ती ही चली गई।
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मंगोलों ने भारतीय सीमा के निकट अपने राज्य को अत्यन्त सुदृढ़़ बना लिया था। अतः अब मंगोलों का ध्यान दिल्ली सल्तनत की ओर अधिक आकृष्ट होने लगा था। ई.1246-47 में नासिरुद्दीन ने खोखरों के विद्रोह को शान्त करने के लिए बलबन को पंजाब भेजा। इन दिनों एक मंगोल सेना सिन्ध के पार पड़ी हुई थी।
जब मंगोलों ने सुना कि बलबन एक विशाल सेना लेकर पंजाब की ओर आ रहा है तो मंगोलों की सेना भयभीत होकर खुरासान की तरफ चली गई। इस काल में मंगोलों को दिल्ली के सुल्तान से उतना भय नहीं लगता था, जितना भय उसके गुलाम बलबन के नाम से लगता था!
नासिरुद्दीन के सम्पूर्ण शासन काल में बंगाल की राजधानी लखनौती में गड़बड़ी व्याप्त रही। उसके बीस वर्षीय शासन में लखनौती में एक के बाद एक करके सात-आठ गर्वनर हुए। ये गवर्नर दिल्ली से दूर होने के कारण बंगाल में अपनी स्वतंत्र सत्ता स्थापित करना चाहते थे। इस कारण हर बार दिल्ली से सेना भेजकर विद्रोही गवर्नरों को मरवाना पड़ता था।
इस प्रकार लखनौती में दिल्ली का प्रभुत्व कुछ ही समय रह पाता था और अगला गवर्नर विद्रोह कर देता था। बंगाल पर हिन्दुओं का भी निरन्तर आक्रमण होता रहता था। सुल्तान नासिरुद्दीन दिल्ली के तुर्की सरदारों, पंजाब के खोखरों तथा मंगोलों की समस्याओं में उलझे रहने से बंगाल में स्थायी शासन स्थापित नहीं कर सका।
जैसे ही केन्द्रीय शक्ति क्षीण होती दिखाई देती थी, राजपूत शासक विद्रोह का झण्डा खड़ा करके दिल्ली की सल्तनत को कर देना बन्द कर देते थे। इस काल में विद्रोही राजपूतों की शक्ति इतनी प्रबल हो गई थी कि वे प्रायः राजधानी दिल्ली में प्रवेश करके लूट-मार किया करते थे। सल्तनत की सुरक्षा के लिए राजपूतों को दबाना आवश्यक था।
नासिरुद्दीन ने हिन्दुओं के विद्रोहों का भी धैर्यपूर्वक सामना किया। इन्हीं दिनों बुन्देलखण्ड तथा बघेलखण्ड पर चन्देल राजपूतों ने अधिकार कर लिया। ई.1248 में बलबन ने चंदेलों का दमन करके बुन्देलखण्ड पर अधिकार कर लिया।
इस काल में बघेला राजपूतों तथा अवध के मुस्लिम गवर्नरों के बीच भी लम्बे समय तक लड़ाई चलती रही फिर भी बघेलों को दबाया नहीं जा सका। मालवा के राजपूतों ने भी अपनी शक्ति में वृद्धि कर ली। ई.1251-52 में बलबन ने मालवा पर आक्रमण कर दिया और लूट का माल लेकर दिल्ली लौट आया। मालवा पूर्ववत् स्वतन्त्र बना रहा।
राजपूताना के चौहान तथा अन्य राजा भी अपनी शक्ति बढ़ाते रहे। सुल्तान के आदेश से बलबन ने कई बार रणथम्भौर पर आक्रमण किया और बूँदी तथा चितौड़ तक धावा मारा परन्तु इन आक्रमणों से कोई स्थायी प्रभाव नहीं पड़ा और राजपूत राजा पूर्ववत् स्वतन्त्र बने रहे। सुल्तान नासिरुद्दीन को मेवातियों के उपद्रवों का भी सामना करना पड़ा।
सुल्तान के आदेश से बलबन ने कई बार मेवातियों पर आक्रमण किए। बलबन ने उनके गांवों तथा नगरों को भस्म करवा दिया और उन जंगलों को कटवा दिया जिनमें मेवाती लोग भाग कर शरण लेते थे परन्तु मेवातियों का प्रकोप कम नहीं हुआ। दो-आब तथा कटेहर में भी विद्रोह फैल गया। यद्यपि बलबन ने इन विद्रोहों की बड़ी क्रूरता से दमन किया परन्तु वह स्थायी शांति स्थापित नहीं कर सका और हिन्दू राजाओं एवं सरदारों के विद्रोह अनवरत जारी रहे।
बलबन की सेवाएं मिल जाने से सुल्तान नासिरुद्दीन महमूद ने बीस वर्ष तक दिल्ली पर शासन किया परन्तुु इस अवधि में वास्तविक सत्ता किसके हाथ में रही, इस बात पर इतिहासकारों में मतभेद है। अधिकांश इतिहासकार उसके प्रधानमंत्री बलबन को ही वास्तविक शासक मानते हैं।
इसामी के अनुसार नासिरुद्दीन महमूद, तुर्क अमीरों की आज्ञा लिए बिना, कोई राय व्यक्त नहीं करता था और उनके आदेश के बिना हाथ-पैर तक नहीं हिलाता था। डॉ. निजामी के अनुसार नासिरुद्दीन महमूद ने पूर्ण रूप से अमीरों के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया था। चालीसा मण्डल का प्रधान बलबन, सुल्तान को कठपुतली बनाकर उसके समस्त अधिकारों का प्रयोग करते हुए शासन करता रहा।
डॉ. अवध बिहारी पाण्डेय इस मत को स्वीकार नहीं करते। उनके अनुसार ई.1255 तक नासिरुद्दीन महमूद शासनतंत्र पर प्रभावी रहा। सुल्तान बनने के बाद उसने पुराने अमीरों को उनके पदों पर बने रहने दिया तथा नये अमीरों की नियुक्ति नहीं की। तीन वर्ष तक वह अपने अमीरों के कार्यों का निरीक्षण करता रहा। बाद में बलबन को चालीसा मण्डल का अध्यक्ष नियुक्त किया गया किंतु जब बलबन के विरुद्ध शिकायतें मिलीं तो उसने बलबन को प्रधानमंत्री के पद से हटाकर दिल्ली से बाहर भेज दिया। जब नया प्रधानमंत्री अयोग्य निकला तो सुल्तान ने बलबन को पुनः उसके पद पर बहाल कर दिया। इन घटनाओं से सिद्ध होता है कि नासिरुद्दीन कठपुतली शासक नहीं था। फिर भी यह सत्य है कि वास्तविक सत्ता बलबन के हाथों में रही।
ई.1265 में नासिरुद्दीन बीमार पड़ा और 18 फरवरी 1266 को उसकी मृत्यु हो गई। कुछ लोगों की मान्यता है कि बलबन ने उसे विष दिलवा दिया था परन्तु यह कल्पना निराधार प्रतीत होती है। नासिरुद्दीन के कोई औलाद नहीं थी। इस कारण नासिरुद्दीन ने अपने जीवन काल में ही बलबन को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। अतः सुल्तान की मृत्यु के उपरांत बलबन दिल्ली के तख्त पर बैठा।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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