दिल्ली सल्तनत की स्थापना ई.1193 में मुहम्मद गौरी के जीवनकाल में ही हो गई थी। तब से लेकर ई.1325 में मुहम्मद बिन तुगलक के दिल्ली का सुल्तान बनने तक की 132 साल की दीर्घ अवधि में मुस्लिम शासकों ने भारत के बहुत बड़े भू-भाग को अपने अधीन कर लिया था।
उस काल में न तो संचार के साधन विकसित हुए और न परिवहन के। अतः इतने विशाल राज्य पर नियंत्रण रख पाना अत्यंत कठिन कार्य था। जबकि पुराने हिन्दू राजाओं के वंशज अब भी अपने पुराने खोए हुए राज्यों को प्राप्त करने के लिए स्थान-स्थान पर मुसलमानों से संघर्ष कर रहे थे।
दिल्ली सल्तनत की राजधानी दिल्ली थी जो कि सल्तनत के केन्द्र में न होकर उत्तर भारत में स्थित थी। इसलिए मुहम्मद बिन तुगलक ने अपनी सल्तनत के केन्द्र में नई राजधानी स्थापित करने का निर्णय लिया।
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उसकी दृष्टि देवगिरि पर गई जो किसी समय हिन्दू राजाओं का विख्यात राज्य हुआ करता था तथा खिलजयिों ने उसे मुस्लिम सल्तनत में शामिल किया था। यहाँ से सल्तनत के विभिन्न भागों पर यथोचित नियन्त्रण रखा जा सकता था।
यद्यपि दक्षिण भारत के बहुत से राज्यों को दिल्ली के सुल्तानों ने विजय कर लिया था परन्तु वहाँ उनकी सत्ता स्थायी रूप से नहीं रह पाती थी। इसलिये मुहम्मद बिन तुगलक देवगिरि में अपनी राजधानी बनाकर वहाँ भी अपनी सत्ता को सुदृढ़ बना सकता था।
याहया ने लिखा है कि दोआब में कर-वृद्धि तथा अकाल के कारण दिल्ली तथा उसके आसपास के क्षेत्र में बड़ा असन्तोष तथा अशान्ति फैल गई। इसलिये यहाँ की हिन्दू जनता को दण्ड देने के लिए सुल्तान ने समस्त दिल्ली वासियों को देवगिरि जाने की आज्ञा दी।
विदेशी यात्री इब्नबतूता के अनुसार कुछ लोग सुल्तान की नीति से असन्तुष्ट थे। इस कारण वे कागजों पर गालियाँ लिख कर और उन्हें तीरों में बाँध कर रात्रि के समय सुल्तान के महल में फेंका करते थे।
चूंकि तीर फेंकने वालों का पता लगाना कठिन था इसलिये सम्पूर्ण दिल्ली निवासियों को उन्मूलित करने के लिए सुल्तान ने राजधानी के परिवर्तन करने की योजना बनाई।
जियाउद्दीन बरनी के अनुसार सुल्तान ने मध्यम श्रेणी तथा उच्च-वर्ग के लोगों का विनाश करने के लिए राजधानी परिवर्तन की योजना तैयार की थी। कुछ विद्वानों की धारणा है कि पश्चिम की ओर से होने वाले विशाल मंगोल आक्रमणों से अपनी तथा अपनी राजधानी की सुरक्षा करने के लिए सुल्तान ने देवगिरि को राजधानी बनाने की योजना बनाई।
याहया, इब्नबतूता तथा बरनी द्वारा बताये गये ये समस्त मत निराधार हैं। मंगोलों के आक्रमणों से राजधानी को सुरक्षित बनाने के लिये उसे दूर ले जाने का तर्क भी अमान्य है क्योंकि राजधानी दिल्ली में रहते हुए ही अलाउद्दीन खिलजी तथा बलबन अपने राज्य की सीमा की सुरक्षा करने में सफल सिद्ध हुए थे।
अतः निश्चित रूप से केवल इतना ही कहा जा सकता है कि सल्तनत पर नियंत्रण स्थापित करने तथा दक्षिण भारत में अपनी सत्ता सुदृढ़ करने के लिए सुल्तान ने राजधानी परिवर्तन की योजना बनाई थी। मुहम्मद बिन तुगलक ने दिल्ली के प्रत्येक नागरिक को देवगिरि जाने के आदेश दिए तथा देवगिरि का नया नाम दौलताबाद रखा।
कुछ इतिहासकारों का अनुमान है कि सल्तनत के प्रबन्धन के लिए सुल्तान ने दो राजधानियाँ रखने का निश्चय किया। उत्तरी साम्राज्य की राजधानी दिल्ली और दक्षिणी भाग की राजधानी देवगिरि होनी थी।
देवगिरि के महत्व को बढ़ाने के लिए सुल्तान ने तुर्की-राजवंश के सदस्यों, बड़े-बड़े अमीरों, विद्वानों, सूफी संतों आदि को दिल्ली से देवगिरि ले जाकर बसाने का निश्चय किया। इन लोगों के बसने पर ही देवगिरि मुस्लिम सभ्यता का प्रसार केन्द्र बन सकती थी।
सुल्तान का विचार था कि दक्षिण भारत में मुस्लिम जनसंख्या के बढ़ने पर ही दक्षिण भारत पर पूर्ण सत्ता स्थापित रह सकती थी। अतः सुल्तान ने अपनी माता मखदूम जहाँ को देवगिरि भेज दिया। सुल्तान की माता के साथ दरबार के अमीरों, विद्वानों, घोड़ों, हाथियों, राजकीय भण्डारों आदि को भी भेजा गया। इन लोगों की सुविधा के लिए सुल्तान ने अनेक प्रकार के प्रबन्ध किए।
दिल्ली से दौलताबाद जाने वाली सड़क की मरम्मत कराई गई और उसके किनारे आवश्यक वस्तुओं के विक्रय की व्यवस्था की गई। लोगों के लिए सवारियों का भी प्रबन्ध किया गया।
यात्रियों को कई प्रकार की सुविधायें दी गईं। दौलताबाद में भव्य भवनों का निर्माण कराया गया और समस्त प्रकार की सुविधाओं को देने का प्रयत्न किया गया। सुल्तान के दुर्भाग्य से जो लोग दिल्ली से दौलताबाद गए, वे इस परिवर्तन से सन्तुष्ट नहीं हुए। उन्हें दिल्ली की यादें तंग किया करती थीं। इस कारण उन्हें यह स्थानान्तरण दण्ड के समान प्रतीत हुआ और वे सुल्तान की निंदा करने लगे।
जब सुल्तान को लोगों के असन्तोष की जानकारी हुई तब उसने असन्तुष्ट लोगों को फिर दिल्ली लौटने की आज्ञा दे दी। बरनी के अनुसार इनमें से बहुत कम लोग वापस दिल्ली जीवित लौट सके।
इस योजना को कार्यान्वित करने में सुल्तान को बड़ा धन व्यय करना पड़ा। जिससे राजकोष को धक्का पहुँचा। प्रजा में बड़ा असन्तोष फैला जिससे सुल्तान की लोकप्रियता को बड़ा धक्का लगा और उसे अपना पुराना गौरव नहीं मिल सका।
दिल्ली से दौलताबाद जाने तथा वापस दिल्ली आने में अनेक लोगों को अपने प्राण खो देने पड़े तथा सहस्रों परिवारों के आय के साधन एवं कमाई समाप्त हो गई। दक्षिण भारत में चले जाने के बाद सुल्तान को अपनी पश्चिमी और उत्तरी सीमाओं पर नियंत्रण रख पाना कठिन हो गया।
यद्यपि दौलताबाद के सुदृढ़ दुर्ग तथा वहाँ के राजकोष के परिपूर्ण हो जाने से आरम्भ में दक्षिण के विद्रोहियों का दमन करने में बड़ी सुविधा हुई परन्तु अन्त में जब दक्षिण में विद्रोहों का विस्फोट हुआ, तब दुर्ग तथा कोष का यही बल साम्राज्य के लिए बड़ा घातक सिद्ध हुआ क्योंकि इसका प्रयोग सुल्तान के विरुद्ध होने लगा।
मुहम्मद बिन तुगलक के इस कार्य की इतिहासकारों ने तीव्र आलोचना की है और सुल्तान को क्रूर, अदूरदर्शी तथा प्रजापीड़क बताया है। कुछ इतिहासकारों ने उसे पागल तक कहा है।
देखा जाए तो राजधानी का परिवर्तन कोई पागलपन भरी योजना नहीं थी। इसके पहले भी हिन्दू राजाओं ने अपनी राजधानियों का परिवर्तन किया था। आधुनिक काल में भी राजधानियों का परिवर्तन होता रहता है।
सुल्तान की यह आलोचना तर्क तथा उपयोगिता पर आधारित थी। फिर भी वह अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो सका। इसका कारण यह था कि आयोजना के कार्यान्वित करने का ढंग ठीक नहीं था।
उसे यह कार्य धीरे-धीरे करना चाहिए था। पहले केवल सरकारी कार्यालयों तथा सरकारी कर्मचारियों को ले जाना चाहिए था। फिर कुछ समय के प्रयोग तथा अभ्यास के उपरान्त अन्य लोगों को वहाँ भेजा जाना चाहिये था।
अगली कड़ी में देखिए- मुहम्मद बिना तुगलक ने सोने-चांदी के सिक्के बंद करके ताम्बे के सिक्के ढलवाए!