Thursday, November 21, 2024
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स्वामी विवेकानंद शिकागो उद्बोधन के बाद क्यों रोए!

स्वामी विवेकानंद का शिकागो उद्बोधन एक अंतर्राष्ट्रीय महत्व की घटना है। कहा जाता है कि शिकागो सम्मेलन में उद्बोधन देने के बाद स्वामीजी रात्रि में रोए। इस आलेख में हम इस बात पर विचार करेंगे कि क्या स्वामीजी उस रात्रि में सचमुच रोए थे!

सदियों की गुलामी भोगने के बाद हिन्दू जाति में पहले मनुष्य स्वामी विवेकानंद हुए जिन्होंने विश्व मंच पर खड़े होकर सम्पूर्ण हिन्दू जाति को ललकार कर कहा था कि हम बहुत रो चुके हैं, अब हमें रोने की आवश्यकता नहीं है। उठो अपने पैरों पर खड़े हो जाओ। उन्होंने कहा ब्रह्माण्ड की सारी शक्तियां पहले से ही हमारी हैं। यह हमीं हैं जो अपनी आंखों पर हाथ रख लेते हैं और फिर रोते हैं कि यहां कितना अंधेरा है।

स्वामी विवेकानंद केवल 39 वर्ष 5 महीने और 24 दिन धरती पर रहे। इस अवधि में भी लगभग चार साल उन्होंने अमरीका एवं यूरोप की धरती पर बिताए। इस प्रकार अपने सक्रिय जीवन का बहुत कम हिस्सा उन्हें भारत में रहकर भारतीयों के बीच बिताने के लिए उपलब्ध हुआ। स्वामी विवेकानंद को भारतीयों से पहले अमरीकियों और यूरोपवासियों ने पहचाना। भारत ने तो स्वामी विवेकानंद को अमरीकियों एवं यूरोपवासियों की आंखों से देखा।

विगत एक हजार सालों से भी अधिक समय से गुलामी की जंजीरों में जकड़े हुए भारत के पास वह आंख ही कहाँ बची थी जो वह स्वामी विवेकानंद को पहचान सकती! अमरीकियों ने उन्हें देखा तो दीवाने होकर उनकी तरफ दौड़ पड़े।

यूरोपियनों ने उन्हें देखा तो उनके समक्ष नतमस्तक हो गए। भारत की धरती से बाहर पैर रखने से पहले स्वामी रामकृष्ण परमहंस, खेतड़ी नरेश अजीतसिंह तथा गुरुभाई अभेदानंद जैसे कुछ ही लोग स्वामीजी को पहचान पाए थे कि यह धधकती हुई ज्वाला किसी दिन भारत का उद्धार करेगी।

कहा जाता है कि जब स्वामीजी ने 11 सितम्बर 1893 के शिकागो सम्मेलन में अपना सम्बोधन माई ब्रदर्स एण्ड सिस्टर्स ऑफ अमेरिका जैसे शब्दों से आरम्भ किया तो उस हॉल में बैठे सात हजार लोग हैरान रह गए। वे लोग लेडीज एण्ड जैण्टलमैन सुनने के अभ्यस्त थे। उन्हें विश्वास ही नहीं हुआ कि किसी व्यक्ति के लिए समाज का प्रत्येक व्यक्ति भाई और बहिन हो सकता है!

उस हॉल में बैठे यूरोपियन्स को यह सुनकर बड़ी हैरानी हुई कि एक गुलाम देश से आया हुए निर्धन युवा तपस्वी अपने शासकों के लिए ब्रदर्स एण्ड सिस्टर्स जैसे बराबरी वाले शब्दों का प्रयोग करने का साहस रखता है!

भारत के बुद्धिवादियों का मानना है कि ‘माई ब्रदर्स एण्ड सिस्टर्स ऑफ अमेरिका’ ने पश्चिमी सभ्यता के लोगों पर जादू का सा असर किया क्योंकि वहां किन्हीं दो अनजान स्त्री-पुरुष के बीच भाई-बहिन जैसे पवित्र सम्बन्ध की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी।

यह सही है कि स्वामीजी द्वारा उच्चारित ‘माई ब्रदर्स एण्ड सिस्टर्स ऑफ अमेरिका’ ने पश्चिमी सभ्यता के लोगों पर जादुई असर किया किंतु यह पूरी वास्तविकता नहीं है। पूरी वास्तविकता इससे कहीं बहुत आगे और कहीं बहुत गहरी है।

स्वामीजी ने यदि माई ब्रदर्स एण्ड सिस्टर्स ऑफ अमेरिका के स्थान पर कुछ और शब्दों का प्रयोग किया होता तो भी पश्चिमी सभ्यता के लोगों के दिलों पर इतना ही जादुई असर हुआ होता।

बुद्धिवादी समाज द्वारा इस जादुई असर के कारणों की बुद्धिवादी व्याख्या की गई है, सम्पूर्ण व्याख्या नहीं की गई है। स्वामीजी के शब्दों के जादुई असर की सम्पूर्ण व्याख्या के लिए हमें बुद्धिवादियों की ओर नहीं अपितु आस्थावादियों की ओर देखना पड़ेगा।

इस वीडियो में, मैं जो कहना चाहता हूँ, उसे कहने से पहले मैं बुद्धिवादियों द्वारा स्वामीजी के जीवन के विश्लेषण के सम्बन्ध में प्रस्तुत इस निष्कर्ष का स्मरण कराना चाहता हूँ कि स्वामीजी बहुत कम समय के जीवन में 1500 वर्ष का कार्य कर गए। यह इसलिए संभव हो सका क्योंकि वे मात्र प्रसिद्ध नहीं थे अपितु ‘सिद्ध’ थे। इसी शब्द में स्वामीजी की सफलता का रहस्य छिपा हुआ है। वे सिद्ध थे, इसीलिए उनके शब्दों ने पश्चिमी जगत् के बुद्धिजीवियों पर जादुई असर किया।

स्वामी विवेकानंद के लिए समस्त भारतीय उनके अपने थे किंतु अन्य देशों के लोग भी पराए नहीं थे। इसीलिए वे पूरी दुनिया का ध्यान भारत की ओर खींचने में सफल हुए। उनके जीवन का उद्देश्य हिन्दुओं को इस योग्य बनाना था जिससे वे पूरी दुनिया के समक्ष आत्मविश्वास और बराबरी के साथ खड़े हो सकें। वे जानते थे कि हिन्दू जाति में अध्यात्म की पवित्र और उज्जवल ज्वाला धधक रही है किंतु उसे अज्ञान और गुलामी की राख ने ढंक लिया है।

स्वामीजी इस राख को ज्ञान की कुरेदनी से हटाना चाहते थे। वे जानते थे कि अज्ञान की धूल ने हिन्दुओं को कूपमण्डूक बना दिया है जिसके कारण स्वामीजी को हिन्दुओं का ही सर्वाधिक विरोध सहन करना पड़ता था।

उन्होंने कई बार इस बात को कहा कि जब भी मैं कोई महान कार्य करना चाहता हूँ, तब मुझे मौत की घाटी से गुजरना पड़ता है। अपने ही देश के कूपमण्डूक हिन्दुओं द्वारा किए जा रहे विरोध के उपरांत भी स्वामीजी अपना कार्य करते रहे और वे शिकागो में भारत की आत्मा की आवाज बनकर जा पहुंचे।

स्वामी विवेकानंद ने शिकागो की 17 दिवसीय धर्मसंसद के दौरान शिकागो शहर में छः व्याख्यान दिए जिनके माध्यम से उन्होंने भारतीय संस्कृति, सभ्यता और दर्शन को पश्चिमी बुद्धिजीवियों के समक्ष रखा। उनके व्याख्यानों ने भारत की परिभाषा बदल दी।

विवेकानंद के व्याख्यानों से पहले धर्मसंसद केवल इस बात पर बहस कर रही थी कि दुनिया के लिए ईसाईवाद अच्छा है या यहूदीवाद! स्वामीजी ने उस बहस का रुख मोड़कर उसे हिन्दूवाद अर्थात् हिन्दुत्व पर ला दिया। दुनिया भर से आए 7000 बुद्धिजीविायों ने पहली बार हिंदुत्व के बारे में सुना और जाना।

स्वामीजी के व्याख्यानों ने न केवल शिकागो धर्मससंद की दिशा बदली अपितु पूरी दुनिया के चिंतन की दिशा भी बदल दी। पश्चिम के लोग पागलों की तरह स्वामीजी को सुनने के लिए दौड़ पड़े।

जब स्वामी विवेकानंद समुद्र के किनारे भ्रमण करने जाते तो दुनिया भर के नर-नारी उनके सामने खड़े हो जाते। स्वामीजी चलते रहते और हिन्दुत्व के बारे में बोलते रहते। दुनिया उन्हें सुनती रहती और उलटे पैरों चलती रहती। जब स्वामीजी बोलना बंद करते तो लोग हैरान होकर स्वयं को देखते कि कैसे वे उल्टे पैरों इतनी देर तक चलते रहे।

स्वामीजी के मुख से निकले हिन्दुत्व का जादू पूरी दुनिया के सिर चढ़कर बोलने लगा। जिस भारत को अंग्रेजों ने सांप और सपेरों का देश कहकर पूरी दुनिया में बदनाम कर रखा था, वह देश अध्यात्म और दर्शन की भूमि के रूप में पुनर्प्रतिष्ठित हो गया और संसार भर का प्यारा बन गया।

दुनिया भर से मिले इसी प्यार ने भारत को मात्र अगले 54 वर्षों में आजादी दिलवा दी। विगत हजार सालों से भी अधिक समय से गुलामी भोग रहा भारत मात्र पचास साल में आजाद हो जाए, यह स्वामीजी के शिकागो चमत्कार ही परिणाम था।

स्वामी विवेकानंद ने न केवल भारतवासियों की सोती हुई आत्मा को झिंझोड़ कर उठा दिया अपितु पूरी दुनिया को भारत की वास्तविक आत्मा का दर्शन करवाकर उसे आदरणीय एवं वंदनीय बना दिया। ऐसे भारत को भला अब संसार की कौनसी शक्ति गुलाम बनाकर रख सकती थी!

कहा जाता है कि 11 सितम्बर 1893 को दिए गए शिकागो उद्बोधन के बाद रात में स्वामीजी फूट-फूट कर रोए। यह बात पूरी दुनिया को बीबीसी की अमरीकी महिला एंकर एमिली ब्यूकान ने बताई थी। स्वामीजी को बीबीसी की इसी अमरीकी महिला ने शिकागो सम्मेलन में प्रवेश दिलवाया था। वही स्वामीजी को अपने घर ले गई थी।

लगभग आधी रात के बाद एमिली ने स्वामीजी के कमरे से किसी के रोने की आवाज सुनी। जब एमिली ने स्वामीजी के कमरे में झांककर देखा तो स्वामीजी रो रहे थे। एमिली ने आश्चर्यचकित होकर स्वामीजी से उनके रोने का कारण पूछा।

एक शोधकर्ता ने हाल ही में दावा किया है कि स्वामीजी ने कहा कि जो नाम और प्रसिद्धि मुझे आज मिली है, इस नाम और यश का मैं क्या करूँगा। मुझे तो अपने भारतवासियों के बारे में सोच कर रोना आ रहा है जो आज भी गरीबी में रह रहे हैं।

आधुनिक शोधकर्ता भले ही कुछ भी दावा करते रहें किंतु स्वामीजी के रोने का कारण कुछ और ही था। एमिली ब्यूकान के अतिरिक्त कुछ अन्य लोगों ने भी स्वामीजी को रोते हुए देखा था। इन लोगों का कहना था कि जब स्वामीजी से उनके रोने का कारण पूछा गया तो उन्होंने उत्तर दिया कि उन्हें भगवान का वियोग सताता है, अर्थात् उन्हें भगवान की याद आती है जिसके कारण उन्हें रोना आ जाता है।

यह सर्वविदित है कि स्वामी रामकृष्ण परमहंस ने स्वामी विवेकानंद को दिव्य-दृष्टि प्रदान करके भगवती काली के दर्शन करवाए थे। जब एक बार स्वामी विवेकानंद ने काली को अपनी आंखों से देख लिया तो वे माँ के बार-बार दर्शन करने के लिए छटपटाने लगे।

स्वामीजी को काली माता की याद उसी तरह आती थी जिस तरह हमें अपने बिछुड़े हुए माता-पिता, पुत्र-पुत्री एवं भाई-बहिनों की याद आती है। कोई विदेशी व्यक्ति जिसने हिन्दुत्व को न समझ हो, वह बहुत कठिनाई से ही इस बात को समझ सकता है कि कोई व्यक्ति परमात्मा के लिए वियोग की पीड़ा को इतनी गहराई से अनुभव करे कि उसे रोना आ जाए। हालांकि हिन्दुओं के लिए इस पीड़ा को अनुभव करना अधिक कठिन है।

ईश्वर का स्मरण होने पर स्वामीजी कई बार रो पड़ते थे। एक बार उनके खेतड़ी प्रवास में मैनाबाई नामक एक गायिका ने उन्हें सूरदासजी द्वारा रचित एक पद सुनाया-

प्रभुजी मोरे अवगुण चित न धरो।

समदरसी है नाम तिहारो चाहे तो पार करो।।

इस पद को सुनकर स्वामीजी की आंखों से आंसुओं की धारा बह निकली। स्वामी विवेकानंद सम्पूर्ण भारत भूमि को तीर्थ एवं देवभूमि मानते थे। इसलिए वे भारत माता की वंदना देवी की तरह करते थे। जब चार साल के विदेश भ्रमण के बाद स्वामीजी भारत लौटे तो वे भारत माता को प्रणाम करते हुए रो पड़े थे।

स्वामीजी के रोने का कारण समझना है तो हमें मीरांबाई का यह पद स्मरण करना चाहिए-

हे री! मैं तो प्रेम दीवानी मेरा दरद न जाने कोय!

कबीर ने भी लिखा है-

सुखिया सब संसार है, खावै और सोवै!
दुखिया दास कबीर है जागै और रोवै!

चैतन्य महाप्रभु से लेकर साध्वी ऋतंभरा को दुनिया ने बार-बार रोते हुए देखा है। प्रेम में भावुकता, भावुकता में विरह और विरह में आंसू! ये तो साथ-साथ ही प्रकट होते हैं।

यदि यह प्रेम, भावुकता और विरह ईश्वर के प्रति हो तो अश्रुओं की मात्रा और कीमत दोनों समझी जा सकती हैं। स्वामी विवेकानंद के रोने का यही कारण था। वे ईश्वर से प्रेम करते थे। उन्हें ईश्वर से प्रेम करना हिन्दुत्व ने सिखाया था।

मात्र साढ़े उन्तालीस वर्ष की आयु में स्वामीजी धरती छोड़कर परमात्मा के पास चले गए किंतु वे जो कुछ भारत माता तथा भारतवासियों के लिए करके गए वह डेढ़ हजार वर्ष में किया जाने वाला कार्य था।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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