मुराद के बाद दानियाल के मरने की खबर पाकर बादशाह का मन हर उस वस्तु से उचाट हो गया जो उसके आस-पास थी। उसके चेहरे का खुरदुरापन उसके मन में उतर आया था। वह मन की शांति प्राप्त करना चाहता था किंतु उसका कोई उपाय नहीं सूझता था। उसने मक्का जाने का निश्चय किया किंतु उस युग में एक बादशाह के लिये मक्का तक के मार्ग में पड़ने वाले समस्त राज्यों को जीते बिना अपनी सेना लेकर वहाँ तक पहुँचना संभव नहीं था और बिना सेना के जाने का अर्थ उसी गति को प्राप्त हो जाने जैसा था जिस गति को बैरामखाँ प्राप्त हुआ था। बहुत सोच-विचार के उपरांत अकबर ने तूरान जाने का इरादा किया जहाँ उसके पूर्वज तैमूर लंग की समाधि बनी हुई थी।
यद्यपि तूरान तक पहुँच पाना भी अत्यंत कठिन था तथापि उतना कठिन नहीं जितना कि मक्का तक पहुँच पाना। फिर भी इस योजना को सल्तनत की पूरी सामर्थ्य झौंके बिना कार्यान्वित किया जाना संभव नहीं था। अतः अकबर ने दक्षिण से खानखाना अब्दुर्रहीम को, बंगाल से राजा मानसिंह को तथा लाहौर से कूलचीखाँ को आगरा बुलवाया और आगरा बुलवाने का प्रयोजन भी लिख भेजा।
राजा मानसिंह तथा कूलचीखाँ तो बादशाह का आदेश मिलते ही अपनी-अपनी सेनायें लेकर आगरा के लिये रवाना हो गये किंतु खानखाना अपने स्थान से एक इंच भी नहीं हिला।
बादशाह अकबर तथा उसके शहजादों के दुर्व्यहार और छलपूर्ण आचार विचार को देखकर खानखाना के मन में मुगल साम्राज्य की अभिवृद्धि हेतु पहले जैसा उत्साह नहीं रह गया था। लम्बे समय से खानखाना यह अनुभव कर रहा था कि मुगल शहजादे यदि राजद्रोह भी करते हैं तो क्षमा कर दिये जाते हैं जबकि दूसरे अमीरों के बारे में मिथ्या शिकायतें मिलने पर भी अकबर अमीरों के साथ कठोरता से निबटता है।
जब से मुराद के प्रकरण में अकबर ने खानखाना की ड्यौढ़ी बंद की थी तभी से खानखाना मन ही मन अकबर से नाराज था। पुत्री के शोक ने भी उसे तोड़ डाला था। अब वह कोई लड़ाई न तो लड़ना चाहता था और न जीतना चाहता था।
इन सब कारणों से भी बढ़कर, सबसे बड़ा कारण यह था कि तैमूर लंग की समाधि में खानखाना की कोई रुचि नहीं थी। अतः उसने बादशाह को प्रत्युत्तर भिजवाया- ‘बादशाह सलामत को जानना चाहिये कि मन की शांति तो तभी मिलेगी जब अशांति के वास्तविक कारण को जानकर उसे दूर करने के उपाय किये जायेंगे। यदि वह संभव न हो तो निरीह और कमजोर प्राणियों पर दया करने और उनकी सेवा करने से भी मन की शांति प्राप्त की जा सकती है। बादशाह सलामत को यह भी जानना चाहिये कि आपकी रियाया आपके कुल में पैदा हुए तैमूर बादशाह के बारे में उतनी श्रद्धा नहीं रखती जितनी कि आपमें रखती है क्योंकि रियाया का मानना है कि आपके पूर्वज तैमूर लंग के जमाने में हिंदुस्थान की रियाया पर बहुत अत्याचार हुए हैं। इससे यदि आप तैमूर बादशाह की समाधि के दर्शनों के लिये तूरान जायेंगे तो आपकी रियाया को आपके बारे में संदेह होगा। जिसका खामियाजा आपके उत्तराधिकारियों को भुगतना पड़ेगा। बेहतर होगा कि आप इस इरादे को त्याग ही दें। मैं इस समय दक्षिण का मोर्चा किसी और के भरोसे छोड़कर आपकी सेवा में उपस्थित नहीं हो सकता हूँ। जब कभी दक्षिण में शांति स्थापित होगी तब आप मुझे जो भी आदेश देंगे, प्राण रहते पूरा करूंगा। मेरा विचार तो यही है, आगे आप बादशाह हैं, जैसा कहेंगे, मैं वही करूंगा।’
इस कार्य में खानखाना की रूचि न देखकर और इतना स्पष्ट इन्कार देखकर अकबर के मन का उत्साह जाता रहा। उसने तूरान जाने का निश्चय त्याग दिया।