हुमायूँ सिंध से निकलकर जैसलमेर राज्य के रास्ते मारवाड़ राज्य (जोधपुर राज्य) में पहुंचा। गुलबदन बेगम ने लिखा है कि मालदेव ने हुमायूँ को ऊंट पर लादकर अशर्फियां भिजवाईं और यह संदेश भिजवाया कि मैं आपको बीकानेर देता हूँ। गुलबदन बेगम यहाँ भी पूरी तरह झूठी है। बीकानेर अलग राज्य था और राव जैतसिंह वहाँ का शासक था जो कि मारवाड़ के राजा मालदेव के अधीन नहीं था। अतः मालदेव हुमायूँ को बीकानेर कैसे दे सकता था!
वस्तुतः गुलबदन बेगम इस समय कामरान के साथ काबुल या कांधार में थी किंतु उसने अपने संस्मरणों को इस तरह लिखा है जैसे कि वह सब-कुछ अपनी आंखों से देख रही थी। अवश्य ही उसने यह विवरण कई सालों बाद किसी के मुँह से सुनकर लिखा होगा। विवरण सुनाने वाले ने भी सुनी-सुनाई बातों के आधार पर ये बातें गुलबदन को बताई होंगी!
हुमायूँ ने शम्सुद्दीन मुहम्मद गजनवी को अपना दूत बनाकर राव मालदेव के पास भेजा किंतु उस दूत के जोधपुर पहुंचने से पहले ही मुल्ला सुर्ख नामक एक व्यक्ति ने जोधपुर से हुमायूँ को पत्र लिखकर आगाह किया कि कभी सपने में भी जोधपुर आने की मत सोचना। मालदेव के पास शेर खाँ का दूत आया था और मालदेव ने शेर खाँ से संधि कर ली है।
शेर खाँ ने मालदेव को नागौर अथवा अलवर देने का वचन दिया है तथा इसके बदले में मालदेव ने आपको पकड़कर शेर खाँ के हवाले करने का वचन दिया है। नागौर देने की बात भी गलत लगती है, क्योंकि उस समय नागौर राव मालदेव के अधिकार में ही था।
हुमायूँ के दूत अतगा खाँ ने भी हुमायूँ को सूचित किया कि ठहरने का समय नहीं है, तुरंत कूच करिए। इस पर हुमायूँ ने दूसरी नमाज के बाद कूच कर दिया। जिस समय बादशाह घोड़े पर चढ़ रहा था, उस समय शत्रुपक्ष के दो गुप्तचरों को पकड़कर हुमायूँ के समक्ष प्रस्तुत किया गया।
उनसे पूछताछ हो ही रही थी कि उन्होंने अचानक ही स्वयं को छुड़ा लिया। उन्होंने हुमायूँ के सैनिकों की कमर से तलवारें निकालकर कुछ सैनिकों को घायल कर दिया तथा हुमायूँ की ओर झपटे। इस कारण हुमायूँ का घोड़ा मर गया किंतु हुमायूँ बच गया। उन गुप्तचरों को भी उसी स्थान पर मार डाला गया।
गुलबदन बेगम ने लिखा है कि उसी समय शोर मचा कि मालदेव आ पहुंचा। इस पर हुमायूँ के सैनिक सिर पर पैर रखकर भागने लगे किंतु उसी समय ज्ञात हुआ कि हमीदा बानू की सवारी के योग्य कोई घोड़ा उपलब्ध नहीं है। इसलिए हुमायूँ ने अपने अमीर तार्दी बेग खाँ से कहा कि वह अपना घोड़ा हमीदा बानू बेगम को दे दे किंतु तर्दीबेग ने अपना घोड़ा देने से मना कर दिया। इस पर हुमायूँ ने कहा कि मेरे लिए जौहर आफ्ताबची का ऊंट तैयार करो और बेगम मेरे घोड़े पर सवारी करेंगी। नादिम बेग नामक एक अमीर ने अपनी माता को उस ऊंट पर चढ़ा दिया तथा अपनी माता का घोड़ा हमीदा बानो बेगम को दे दिया।
गुलबदन बेगम ने लिखा है कि यहाँ से सब लोग अमरकोट के लिए रवाना हुए। हवा बड़ी गर्म थी और घोड़े तथा चौपाए घुटनों तक बालू में धंस जाते थे। खाने-पीने को कुछ नहीं बचा था, इसलिए सब लोग भूखे-प्यासे ही चलते रहे। बहुत सारे स्त्री और पुरुष तो इस समय पैदल ही थे। कुछ देर बाद मालदेव की सेना निकट आ गई। इस पर हुमायूँ ने ईसन तैमूर सुलतान, मुनइम खाँ और कुछ अन्य अमीरों को आज्ञा दी कि वे मालदेव की सेना को रोकें, तब तक हम कुछ आगे निकल जाएंगे।
उन लोगों ने तुरंत बादशाह की आज्ञा का पालन किया। बादशाह के अमीर और बेग पीछे रुक गए तथा हुमायूँ का काफिला आगे बढ़ गया। दिन ढल गया, रात हो गई, रात भी ढल गई, पौ फट गई किंतु यह काफिला भूखा-प्यास आगे बढ़ता ही रहा।
सुबह होते ही इन लोगों को एक तालाब दिखाई दिया। घोड़ों को तीन दिन से पानी नहीं मिला था। हुमायूँ घोड़े से उतरा ही था कि कुछ मनुष्य दौड़ते हुए आए और बोले कि हिंदुओं की बहुत बड़ी घुड़सवार तथा ऊंटसवार सेना आ पहुंची है। इस पर हुमायूँ ने शेख अली बेग आदि कुछ अमीरों को आदेश दिया कि वे आगे बढ़कर काफिरों का मार्ग रोकें, हम आगे चलते हैं।
शेख अली बेग ने तीर चलाया जिससे राजपूतों का सरदार मारा गया और काफिर भाग गए। इस समय हुमायूँ अत्यंत भयभीत था। इसलिए वह हमीदा बानू तथा कुछ अंगरक्षकों के साथ बहुत तेज गति से भागा जा रहा था। इस पर शेख अली बेग ने कुछ आदमी बादशाह के पीछे दौड़ाकर संदेश दिया कि बादशाह सलामत थोड़ा धीरे चलें, हमारी फतह हुई है तथा चिंता की कोई बात नहीं है। इस पर हुमायूँ घोड़े से उतर कर फिर से तालाब के पास आया।
थोड़ी ही देर में शेख अली बेग तथा उसके साथी भी वहीं आ गए। अभी इन लोगों ने पानी पिया ही था कि कुछ दूरी से पुनः धूल उड़ती हुई दिखाई दी। इन लोगों को लगा कि राजपूत लौट आए हैं, इसलिए सब लोग तलवारें सूंत कर खड़े हो गए किंतु जब वे लोग निकट आए तो ज्ञात हुआ कि वे तो ईसन तैमूर सुलतान तथा मुनइम खाँ आदि थे जिन्हें बादशाह ने मालदेव की सेना का रास्ता रोकने के लिए भेजा था और वे रात्रि में मार्ग भटक जाने के कारण हुमायूँ के काफिले से बिछुड़ गए थे।
जब समस्त पशुओं और मनुष्यों ने जल पी लिया तब सभी लोग पुनः रवाना हुए। इसके बाद तीन दिन तक चलते रहे किंतु कहीं भी पानी नहीं मिला। वे लोग ऐसे क्षेत्र में पहुंच गए थे जहाँ कुएं बहुत गहरे थे और उनका जल बहुत लाल था। एक कुएं पर बादशाह, दूसरे पर तर्दीबेग खाँ, तीसरे पर मुनइम खाँ और नदीम कोका तथा चौथे कुएं पर ईसन तैमूर सुल्तान, ख्वाजः गाजी और रौशन कोका ठहरे।
गुलबदन बेगम ने लिखा है कि कुएं में से निकलने वाला हर एक डोल जब कुएं की जगत के निकट पहुंचता था तब सैनिक उस डोल में स्वयं को गिरा देते थे जिससे रस्सी टूट जाती थी और उसी के साथ पांच-छः मनुष्य कुएं में गिर पड़ते थे। जब हुमायूँ ने देखा कि सैनिक तथा अन्य कर्मचारी प्यास के कारण कुएं में गिर पड़ते हैं तब उसने अपनी सुराही में से पानी निकालकर सबको पिलाया। जब सब मनुष्य एवं पशु पेट भर कर पानी पी चुके तब दोपहर की नमाज के बाद बादशाह ने कूच किया।
गुलबदन की तरह फरिश्ता ने भी अपनी पुस्तक में बादशाह हुमायूँ एवं उसके साथियों के कष्टों का चित्र खींचा है। उसने लिखा है- ‘हुमायूँ और उसके साथी सिंध के रेगिस्तान में स्थित एक कुएं पर पहुंचे। जिस देश में से होकर वे भागे वह सम्पूर्ण मरुस्थल था। मुगल पानी की महान् विपत्ति में पड़ गए।
कुछ पागल हो गए थे और कुछ ने दम तोड़ दिया। पूरे तीन दिनों तक पानी नहीं मिला। चौथे दिन वे एक कुएं के पास आए जो इतना गहरा था कि बाल्टी सतह तक नहीं पहुंच पाई। आसपास हल चलाने वाले लोगों से सहायता लेने के लिए ढोल बजाया गया।
जब पानी खींचा गया तब बाल्टी जगत तक भी नहीं आ पाई थी कि कुछ अभागे लोग उस पर टूट पड़े और कुएं में गिर गए। दूसरे दिन वे एक छोटे से जल-स्रोत के पास पहुंचे और वहाँ कई दिनों से प्यासे ऊँटों को पानी पिलाया गया। कई ऊँटों ने आवश्यकता से अधिक पानी पी लिया और उनकी मृत्यु हो गई।’
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता