ई.1545 में शेरशाह सूरी की मृत्यु के बाद उसका पुत्र जलाल खाँ सलीमशाह अथवा इस्लामशाह के नाम से दिल्ली का सुल्तान हआ। यद्यपि उसने आठ साल शासन किया तथापि उसे इस पूरी अवधि में अपने भाइयों एवं अमीरों के विद्रोहों का सामना करना पड़ा। पंजाब के गवर्नर हैबत खाँ के विद्रोह को दबाने में उसे आठ साल लग गए।
इन विद्रोहों के कारण इस्लामशाह का राज्य छीज गया तथा उसकी सेना कमजोर हो गई। सितम्बर 1553 में इस्लामशाह बीमारी के कारण मर गया। उस समय इस्लामशाह का 12 वर्षीय पुत्र फीरोजशाह ग्वालियर में था। अमीरों ने ग्वालियर में ही उसकी ताजपोशी करके उसे सुल्तान घोषित कर दिया परंतु तीन दिन बाद ही मुबारिज खाँ ने फीरोजशाह की हत्या कर दी। मुबारिज खाँ फीरोज खाँ के पिता का सगा भाई तथा माता का चचेरा भाई था। इस प्रकार वह फीरोज खाँ का चाचा और मामा दोनों था।
मुबारिज खाँ महमूदशाह आदिल के नाम से तख्त पर बैठा। वह अत्यंत दुष्ट व्यक्ति था। उसके सुल्तान बनते ही सारे राज्य में विद्रोह की अग्नि भड़क उठी। बिहार में ताज खाँ ने विद्रोह कर दिया जो कि एक प्रबल प्रांतपति था। जब मुहम्मदशाह ताज खाँ का दमन करने के लिए बिहार गया, तब अवसर पाकर उनका चचेरा भाई इब्राहीम खाँ दिल्ली के तख्त पर बैठ गया और आगरा की ओर बढ़ा। इसकी सूचना पाने पर महमूदशाह चुनार की ओर चला गया। इस प्रकार साम्राज्य के पूर्वी भाग में महमूदशाह और पश्चिमी भाग में इब्राहीम खाँ शासन करने लगा।
इसी समय पंजाब में शेरशाह के भतीजे अहमद खाँ ने विद्रोह कर दिया। उसने सिकन्दरशाह की उपाधि धारण की और अपनी सेना के साथ आगरा के लिए प्रस्थान किया। इब्राहीम खाँ ने उसका सामना किया परन्तु परास्त होकर सम्भल की ओर भाग गया। सिकन्दरशाह ने दिल्ली तथा आगरा पर अधिकार कर लिया।
इस प्रकार इस समय सूर सल्तनत में तीन सुल्तान हो गए। महमूदशाह चुनार में, इब्राहीम खाँ सम्भल में और सिकंदरशाह दिल्ली एवं आगरा पर शासन करने लगा। राज्य की शक्ति बुरी तरह छीज गई। सेना का संगठन बिखर गया। वस्तुतः इस काल में सूरी सल्तनत ताश के महल की तरह रह गई थी जिसे केवल फूंक मारकर ही ढहाया जा सकता था।
जब ई.1540 में हुमायूँ आगरा, दिल्ली और पंजाब छोड़कर भागा था तो हुमायूँ एक भावुक युवक था और अब ई.1554 में जब वह भारत लौटा तो एक परिपक्व प्रौढ़ बन चुका था, जीवन के थपेड़ों ने उसे अनुभवी बना दिया था किंतु उसके मन की भावुकता अभी भी गई नहीं थी। यह एक आश्चर्य की ही बात थी कि हुमायूँ के मन में जितनी भावुकता अपने परिवार के लिए थी, उतनी अपने अमीरों के लिए नहीं थी। जितनी भावुकता काबुल की मुस्लिम जनता के लिए थी, उतनी भारत की हिंदू जनता के लिए नहीं थी। ऐसी मनःस्थिति में हुमायूँ के लिए भारत को जीत लेना कठिन नहीं था।
अबुल फजल ने लिखा है कि हुमायूँ की सेना में तीन हजार से अधिक सैनिक नहीं थे किंतु उसकी सेवा में 57 बड़े अमीर थे जिनमें बैराम खां, शाह अबुल मआली, खिज्र ख्वाजा खां, तर्दी बेग खां, अशरहम खाँ तथा शिहाबुद्दीन अहमद खाँ आदि प्रमुख थे। हुमायूँ की सेना ने सिंधु नदी पार करते ही मारकाट मचा दी।
इस क्षेत्र में अफगानों के बहुत से गांव बसे हुए थे। हुमायूँ की सेना ने उन गांवों को घेर लिया। देखते ही देखते अफगानों के गांव काटे जाने लगे। जो भी सामने आया, मिट गया। संभवतः क्रूरता का यह नंगा नाच हुमायूँ की शक्ति का प्रदर्शन करने के लिए किया गया था ताकि अफगानों के मन में हुमायूँ के नाम की दहशत बैठ जाए और वे मुकाबले के लिए न आएं।
शीघ्र ही यह सेना पंजाब के कालानूर नामक स्थान पर पहुंच गई। यहाँ से हुमायूँ ने अपने कुछ अमीरों को एक सेना के साथ लाहौर भेजा। उन्हें यह आदेश दिया गया कि वे लाहौर पहुंचकर नगर पर अधिकार करें तथा हुमायूँ के नाम का खुतबा पढ़वाएं। बादशाह हुमायूँ के लाहौर पहुंचने से पहले ही मुगल अधिकारी लाहौर में बादशाह के नाम के सिक्के ढलवाएं।
लाहौर भेजे जाने वाले अधिकारियों में शिहाबुद्दीन अहमद खां, अशरहम खाँ तथा फरहद खाँ प्रमुख थे। जब यह सेना लाहौर के लिए प्रस्थान कर गई तब बैराम खाँ एवं तर्दी बेग खाँ आदि को एक बड़ी सेना के साथ हरियाणा की तरफ भेजा गया। उस समय हरियाणा में सिकंदरशाह की ओर से नसीब खाँ पंजभैया नामक अमीर शासन करता था।
जब यह सेना भी अपने लक्ष्य के लिए चली गई तो हुमायूँ ने एक सेना के साथ लाहौर के लिए प्रस्थान किया ताकि यदि लाहौर विजय में कठिनाई आ रही हो तो उस सेना की सहायता की जा सके। इस विवरण से प्रतीत होता है कि इस समय हुमायूँ की सेना में केवल तीन हजार सैनिक नहीं थे अपितु कई हजार सैनिक थे। यह संभव है कि पंजाब में नए सैनिकों की भर्ती भी की गई होगी।
इतिहास का कोई नौसीखिया विद्यार्थी भी बता सकता है कि हुमायूँ ने केवल तीन हजार सैनिकों के बल पर भारत विजय की योजना नहीं बनाई होगी! क्योंकि इस समय दिल्ली, आगरा और पंजाब के शासक सिकंदरशाह सूरी की सेना में लगभग पचास हजार सैनिक थे। दीपालपुर के हाकिम शाहबाज खाँ की सेना में भी कई हजार सैनिक रहा करते थे।
24 फरवरी 1555 को हुमायूँ लाहौर पहुंचा। तब तक हुमायूँ की अग्रिम सेना ने दीपालपुर तथा लाहौर पर कब्जा कर लिया था। लाहौर के अमीरों ने बादशाह का लाहौर नगर में भव्य स्वागत किया। लाहौर नगर के गणमान्य व्यक्ति भी हुमायूँ के स्वागत के लिए उपस्थित हुए। लाहौर पर हुमायूँ का अधिकार हो जाना बहुत बड़ी सफलता तो न थी किंतु यह आगे के अभियान को चलाने में बहुत महत्वपूर्ण सिद्ध होने वाली थी।
कुछ समय बाद हुमायूँ को सूचना मिली कि शाहबाज खाँ अफगान बहुत से अफगानों को एकत्रित करके दीपालपुर पर अधिकार करने की योजना बना रहा है। इस पर हुमायूँ ने शाह अबुल मआली तथा अलीकुली खाँ शैबानी को शाहबाज खाँ अफगान के विरुद्ध कार्यवाही करने भेजा। इस सेना ने शाहबाज खाँ अफगान को नष्ट कर दिया तथा सुरक्षित रूप से लाहौर लौट आई। सुप्रसिद्ध इतिहासकार पी. एन. ओक ने लिखा है कि दीपालपुर में पराजित होने के बाद अफगानों ने अपनी औरतें मुगलों की हवस बुझाने के लिए उन्हें सौंप दीं।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता