तुर्कों का उद्भव हूणों के रक्त से हुआ था, उन्होंने बड़ी तेजी से मध्य एशिया में अपनी संख्या बढ़ाई और उनके विभिन्न कबीले कई शाखाओं में बंट गए, जैसे मामलुक तुर्क, सैल्जुक तुर्क, ऑटोमन तुर्क, समानी तुर्क, इल्बरी तुर्क आदि। जब सातवीं शताब्दी ईस्वी में अरब के मुसलमानों ने मध्य-एशियाई देशों पर आक्रमण करने आरम्भ किए तो तुर्कों ने अरबी सेनाओं का भारी विरोध किया किंतु अरब वाले मध्य-एशिया पर अधिकार जमाने में सफल हो गये।
अरब लोगों के प्रभाव से आठवीं शताब्दी के प्रारंभ में तुर्कों ने भी मुसलमान होना आरंभ कर दिया। तुर्कों के मुसलमान हो जाने के बाद मध्य-एशिया में इस्लाम का प्रसार बहुत तेजी से हुआ। तुर्कों की खूनी ताकत को देखते हुए अरब के खलीफाओं ने उन्हें अपना अंगरक्षक नियुक्त किया। नौवीं-दसवीं शताब्दी में ये तुर्क इतने ताकतवर हो गये कि उन्होंने बगदाद और बुखारा में अपने स्वामियों के तखते पलट दिये और उनके स्थान पर स्वयं खलीफा बन गये।
जिस प्रकार भारत में लोगों के इस्लाम स्वीकार करने की प्रक्रिया सैंकड़ों सालों तक चलती रही, उसी प्रकार तुर्कों में भी इस्लाम को स्वीकार करने की प्रक्रिया लम्बे समय तक चली। चौदहवीं शताब्दी ईस्वी में ‘आमू’ और ‘सर’ नदियों के बीच ट्रांस-आक्सियाना नामक क्षेत्र में बरलस तुर्कों का एक प्रभावशाली कबीला रहता था। ट्रांस-आक्सियाना क्षेत्र में स्थित ‘मावरा उन्नहर’ अथवा ‘केश’ नामक शहर बरलस तुर्कों का प्रमुख केन्द्र था। यह इतना हरा-भरा था कि इसे ‘शहर-ए-सब्ज’ भी कहा जाता था।
चूंकि मध्य-एशिया में तुर्कों एवं मंगोलों के अनेक राज्य हो गए थे एवं दोनों ने ही इस्लाम स्वीकार कर लिया था, इसलिए तुर्कों एवं मंगोलों में वैवाहिक सम्बन्ध होने लगे और इन दोनों जातियों में रक्त-मिश्रण की प्रक्रिया आरम्भ हुई। इस कारण कुछ ऐसे कबीले अस्तित्व में आने लगे जिन्हें ‘तुर्को-मंगोल’ माना जाता था। बरलस तुर्क भी वस्तुतः तुर्को-मंगोल कबीला था।
इस कबीले के मुखिया तुरगाई बरलस ने चौदहवीं शताब्दी में इस्लाम स्वीकार कर लिया। इसी तुरगाई की एक स्त्री के पेट से ई.1336 में तैमूर नामक पुत्र का जन्म हुआ। तैमूर का कुरान एवं इस्लाम में बहुत विश्वास था। उसकी नसों में तुर्कों एवं मंगोलों का रक्त बह रहा था। वह प्रतिभावान और महत्वाकांक्षी युवक था। उसने तुर्क सम्राट बूमिन तथा तोबा खाँ और मंगोल सम्राट चंगेज खाँ और हलाकू की वीरता के अनेक किस्से सुने थे। तैमूर की रगों में भी इन योद्धाओं का रक्त बह रहा था। तैमूर ने निश्चय किया कि वह भी अपने पूर्वजों की तरह एक विशाल साम्राज्य की स्थापना करेगा तथा समस्त संसार को अपनी शक्ति से रौंद डालेगा।
ई.1369 में समरकंद के मंगोल शासक के मर जाने पर तैमूर लंग ने समरकंद पर अधिकार कर लिया और मध्य-एशिया में ‘तैमूरी राजवंश’ की स्थापना की। वास्तव में यह एक ‘तुर्को-मंगोल’ राजवंश था जो तुर्कों एवं मंगोलों के रक्त-मिश्रण से उत्पन्न हुआ था। वर्तमान समय में समरकंद ‘उज्बेकिस्तान’ नामक देश में स्थित है।
ई.1380 से ई.1387 के बीच तैमूर लंग ने खुरासान, सीस्तान, अफगानिस्तान, फारस, अजरबैजान और कुर्दिस्तान तक के विशाल क्षेत्र को अपने अधीन कर लिया। ई.1393 में उसने बगदाद तथा समस्त ईराक पर अधिकार करने में सफलता प्राप्त कर ली। ई.1398-99 में उसने हिन्दुकुश पर्वत को पार करके सिंधु नदी से लेकर पंजाब, दिल्ली तथा जम्मू-काश्मीर तक के विशाल भू-भाग में स्थित राज्यों को जीता तथा पंजाब में अपना गवर्नर नियुक्त कर दिया। तैमूर के भारत आक्रमण के इतिहास की चर्चा हम ‘दिल्ली सल्तनत की दर्दभरी दास्तान’ में विस्तार से कर चुके हैं।
ई.1405 में तैमूर लंग की मृत्यु हुई। उस समय उसका राज्य पश्चिम एशिया से लेकर मध्य-एशिया एवं दक्षिण-एशिया में भारत के पंजाब प्रांत तक फैला था। उसकी गणना संसार के क्रूरतम व्यक्तियों में होती है। तैमूर लंग ने अमीर, बेग, गुरकानी, मिर्जा, साहिब किरन, सुल्तान, शाह तथा बादशाह आदि उपाधियां धारण कीं। तभी से इस वंश के शहजादों को इन समस्त उपाधियों से पुकारा जाने लगा।
इनमें से कुछ उपाधियां मंगोल होने के कारण, कुछ उपाधियां तुर्क होने के कारण, कुछ उपाधियां ईरान का शासक होने के कारण तथा कुछ उपाधियां उज्बेकिस्तान का शासक होने के कारण ग्रहण की गई थीं। इस खानदान को मुगल खानदान, चंगेजी खानदान, तैमूरी खानदान, चगताई खानदान तथा कजलबाश आदि नामों से पुकारा जाता था।
तैमूर लंग के बाद उसका पुत्र मिर्जा मीरनशाह बेग समरकंद का शासक हुआ। उसकी मृत्यु ई.1408 में हुई। उसके बाद मीरनशाह का पुत्र सुल्तान मुहम्मद मिर्जा बादशाह हुआ। उसके बाद उसका पुत्र अबू सईद मिर्जा समरकंद के तख्त पर बैठा जो ई.1469 में मृत्यु को प्राप्त हुआ। सईद मिर्जा का पुत्र उमर शेख मिर्जा हुआ जो ई.1494 तक समरकंद का शासक रहा। वह नाटे कद का, बलिष्ठ एवं मनोरंजन-प्रिय शासक था।
उमर शेख मिर्जा की मृत्यु के बाद उसका पुत्र जहीरुद्दीन मुहम्मद बाबर समरकंद का शासक हुआ। इस प्रकार बाबर ‘तैमूर लंग’ की पांचवी पीढ़ी का वंशज था। बाबर की माता कुतलुख निगार खानम, मंगोल शासक ‘चंगेज खाँ’ की तेरहवीं पीढ़ी की वंशज थी। हालांकि बाबर स्वयं भी चंगेज खाँ की लगभग इतनी ही पीढ़ी का वंशज रहा होगा।
इस प्रकार बाबर की रगों में तैमूर लंग तथा चंगेज खाँ जैसे क्रूर आतताइयों का रक्त बहता था। इसी बाबर ने ई.1526 में भारत में एक नवीन इस्लामी राज्य की स्थापना की जो सभ्यता एवं संस्कृति के स्तर पर अपने पूर्ववर्ती ‘दिल्ली सल्तनत’ से पूर्णतः भिन्न था। दिल्ली सल्तनत अरब वालों के मध्य-एशियाई तुर्की गुलामों द्वारा स्थापित की गई थी जबकि मुगल सल्तनत मध्य-एशिया के तुर्कों एवं मंगोलों के रक्त-मिश्रण से उत्पन्न तैमूरी राजवंश द्वारा स्थापित की गई थी।
इस प्रकार भारत का मुगल साम्राज्य ‘इस्लामी-तुर्की-मंगोल’ साम्राज्य था जिसका व्यावहारिक अर्थ यह है कि इस वंश के शासकों में मध्य-एशिया एवं पूर्वी-एशिया की दो बड़ी क्रूर एवं लड़ाका जातियों- तुर्क एवं मंगोलों के रक्त का मिश्रण था और वे इस्लाम के अनुयायी थे।
सामान्यतः भारत में मुगलों को मंगोलों का वंशज माना जाता है, जबकि बाबर मंगोलों की तेरहवीं पीढ़ी में एवं तुर्कों की पांचवीं पीढ़ी में उत्पन्न हुआ था। इस दृष्टि से वह तुर्क था न कि मंगोल। बाबर के पिता का वंश तैमूर के वंश में उत्पन्न हुआ था जिसके माता-पिता तुर्क थे न कि मंगोल।
इतिहासकारों ने बाबर के वंश को मुगलिया खानदान, चंगेजी खानदान, तैमूरी खानदान आदि नामों से सम्बोधित किया जाता था। तत्कालीन इतिहासकारों ने इस विषय में कुछ भी नहीं लिखा है कि मुगलों को मंगोल क्यों माना जाता था, जबकि उन्हें तुर्क कहना अधिक उचित था।
बाबर ने अपने ग्रंथ में स्वयं को ‘तीमूरिया तुर्क’ तथा ‘आधा चगताई’ कहा है। वह मंगोलों पर चोट करने में चूक नहीं करता था। उसने अपने ग्रंथ की भाषा भी ‘चगताई-तुर्की’ बताई है। यह भाषा ‘आमू’ एवं ‘सर’ नदियों के बीच बोली जाती थी। बाबर के पुत्र हुमायूँ ने तो स्पष्ट रूप से मंगोलों की निंदा की है।
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता