मुमताज महल की नसों में ईरान का तथा शाहजहाँ की नसों में समरकंद के मंगोलों का रक्त था। इस रक्त मिश्रण से उत्पन्न मुगल शहजादे एक दूसरे के रक्त के प्यासे रहते थे।
अकबर के समय से ही मुगल दरबार एवं हरम की गुटबंदी मुगल सल्तनत की राजनीति में हस्तक्षेप करती आई थी। जहाँगीर के समय में यह गुटबंदी और बढ़ गई थी। जब अय्याश शाहजहाँ अपने हरम को लाल किले में ले आया तो लाल किले की रंगीनियों ने हरम की औरतों को और भी उन्मुक्त कर दिया।
चूंकि अकबर के समय में मुगल शहजादियों के विवाह करने की परम्परा समाप्त कर दी गई थी, इसलिए मुगल शहजादियां लाल किले की मजबूत दीवारों के बीच बने हरम में छिपकर रहती थीं तथा अपने-अपने ढंग से लाल किले की राजनीतिक बिसातें बिछाकर अपने आप को व्यस्त रखती थीं। इस प्रकार शाहजहाँ के काल में मुगल दरबार एवं हरम, गुटबन्दियों एवं षड्यन्त्रों का बड़ा अखाड़ा बन गया। सत्ता और शक्ति की लूट-खसोट के कारण बादशाह के अतिरिक्त और किसी को सल्तनत की दुर्दशा की चिंता नहीं थी। अधिकांश लोग स्वार्थ-सिद्धि में लगे रहते थे।
मुगल शहजादों ने अपने बड़े भाई दारा शिकोह को काफिर तथा इस्लाम का अपराधी घोषित किया तथा सल्तनत के मुल्ला-मौलवियों ने भी कट्टर और संकीर्ण सोच वाले शहजादों का साथ देना स्वीकार किया।
जब शाहजहां ने मुमताज महल के सबसे बड़े बेटे दारा शिकोह को अपना वारिस और हिन्दुस्तान का अगला बादशाह घोषित किया तो मुमताज महल की बाकी औलादें लाल किला पाने के लिए एक दूसरे पर झपटीं।
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लाल किले के निर्माता शाहजहां की नौ बेगमें थीं- कंधारी महल, अकबराबादी बेगम, मुमताज महल, हसीना बेगम, मोती बेगम, कुदासिया बेगम, फतेहपुरी महल, सरहिंदी बेगम तथा रानी मनभाविती। इन सभी बेगमों से शाहजहां को ढेरों औलादें हुई थीं।
शाहजहां की बेगमों में से मुमताज महल तीसरे नम्बर की थी। उसके पेट से जन्मी चौदह औलादों में से केवल आठ जीवित बची थीं। मुमताज महल की ये आठों औलादें मुगलिया तख्त को पाने के लिए एक दूसरे को जान से मारने को सन्नद्ध हो गईं।
यह एक हैरानी की ही बात थी कि शाहजहां की अन्य आठ बेगमों की औलादों को न तो लाल किले से कोई मतलब था और न लाल किले के लिए होने वाली खूनी जंग से। हालांकि इस खूनी जंग ने देखते ही देखते राष्ट्रव्यापी स्वरूप ले लिया था जिसमें कई लाख लोगों ने अपने प्राण गंवाए। राजपूत सेनाओं को इस खून खराबे में बड़ी कीमत चुकानी पड़ी।
मुमताज के बेटे-बेटियों की खूनी जंग के बारे में जानने से पहले हमें लाल किले की स्वामिनी मुमताज महल का थोड़ा सा इतिहास जानना चाहिए।
मुमताज़ महल का असली नाम अर्जुमंद बानो बेगम था। शाहजहां उसे मुमताज महल कहा करता था जिसका अर्थ होता है महल का सबसे प्यारा आभूषण। मुमताज का जन्म अप्रैल 1593 में आगरा में हुआ था। उसका पिता अब्दुल हसन असफ़ ख़ान, जहांगीर की बेगम नूरजहाँ का भाई था तथा वह अपने बाप के साथ फारस से भारत आया था। इस प्रकार मुमताज महल की रगों में फारस का खून बहता था और वह शाहजहां की ममेरी बहिन थी। मुमताज महल संगमरमर के पत्थर से तराशी हुई सफेद गुड़िया की तरह बहुत सुंदर दिखती थी तथा आगरा के मीना बाजार में अपनी दुकान पर रेशम और कांच के मोती बेचा करती थी।
मीना बाजार की परम्परा शाहजहां के दादा जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर ने शुरु की थी। यह केवल मुगलिया शहजादों और खादनदानी अमीर-उमरावों के लिए सजता था। मीना बाजार में केवल शहजादियों और हिन्दू राजकुमारियों को अपनी दुकानें लगाने की अनुमति थी जिन पर उन्हें खुद अपना सामान बेचना होता था। अक्सर इन दुकानें की मालकिनें भी किसी शहजादे या अमीर-उमराव के हाथ बिक जाती थीं।
ई.1607 में एक बार शहजादा खुर्रम, मीना बाजार की सैर करने के लिए आया और उसकी मुलाकात अपनी ममेरी बहिन अर्जुमंद बेगम से हुई। पहली ही मुलाकात में खुर्रम ने अर्जुमंदर बेगम से विवाह करने का निर्णय कर लिया।
पहले से ही दो बेगमों के होते हुए भी शहजादे खुर्रम ने अपने पिता जहांगीर के समक्ष अपने तीसरे विवाह की इच्छा व्यक्त की। इस पर ई.1612 में जहांगीर ने खुर्रम का विवाह अर्जुमंद बेगम से कर दिया।
इस प्रकार 19 साल की अर्जुमंद, खुर्रम की तीसरी बीवी बन गई जो बाद में शाहजहाँ के नाम से जहांगीर का उत्तराधिकारी हुआ। जहांगीर ने अर्जुमंद का नाम बदल कर मुमताज महल कर दिया।
कहने को वह शाहजहाँ की तीसरी बेगम थी परन्तु शीघ्र ही वह शाहजहां की सबसे पसंदीदा बेगम बन गई। शाहजहां के शाही फरमानों के खाली कागज तथा शाहजहां की असली शाही मुहर, मुमताज महल के पास रहती थी जिसका अर्थ यह था कि जहांगीर के नाम से जारी किए गए आदेश वास्तव में मुमताज महल द्वारा जारी किए जाते थे।
मुमताज महल शतरंज खेलने में माहिर थी। शाहजहां घण्टों तक मुमताज महल के सामने बैठकर उसके साथ शतरंज खेला करता था। मुमताज अक्सर बादशाह को इस खेल में हरा देती थी। जब भी मुमताज महल शाहजहां को हराती थी शाहजहां निहाल होकर उस पर अशर्फियों की बारिश करता था।
मुमताज को अपनी मातृभाषा फारसी का बहुत अच्छा ज्ञान था और वह फारसी भाषा में बहुत उम्दा कविताएं लिखा करती थी। उसने फारसी भाषा के बहुत से कवियों को मुगल दरबार में आश्रय दिया।
मुमताज ने शाही बागीचों को सुंदर फूलों से सजाकर उसे स्वर्ग जैसा बना दिया था। इस प्रकार मुमताज महल ने अपने चारों ओर सौंदर्य का सृजन किया था और शाहजहां सौंदर्य के इस अप्रतिम सागर में अनवरत डुबकियां लगाया करता था।
जिस प्रकार जहांगीर की बेगम नूरजहां ने मुगलिया सल्तनत को अपनी अंगुलियों पर नचाया था, उसी प्रकार मुमताज महल भी बादशाह की चहेती बनकर मुगलिया तख्त, मुगलिया खानदान और मुगलिया सल्तनत को अपनी अंगुलियों पर नचाने लगी।
इसी का परिणाम था कि शाहजहां की अन्य आठों बेगमें तथा उनकी ढेर सारी औलादें बुरी तरह उपेक्षित हुईं तथा इतिहास के पन्नों पर उनका नाम तक दर्ज नहीं हो सका।
मुगलिया सल्तनत पर मजबूती से अधिकार जमाए रखने के लिए मुमताज ने दो उपाय किए। पहला तो यह कि वह अक्सर शाही बाग में गरीब औरतों को आमंत्रित करती तथा उनके साथ पर्याप्त समय बिताती। इन औरतों से उसे सल्तनत में होने वाली छोटी-बड़ी बातों की जानकारी मिलती थी। मुमताज महल, गरीब और जरूरतमंद औरतों की भरपूर मदद भी करती।
मुमताज महल अक्सर बादशाह से कहकर ही जरूरतमंद रियाया की मदद करवाती थी किंतु उन लड़कियों का वह स्वयं ध्यान रखती थी जिनका विवाह गरीबी के कारण नहीं हो पाता था। इन कारणों से मुमताज महल, गरीब रियाया में बेहद पसंद की जाती थी।
दूसरा उपाय भी बहुत सोच समझ कर अपनाया गया था। जब भी शाहजहां किसी भी काम से राजधानी से बाहर जाता था तो मुमताज अनिवार्य रूप से उसके साथ जाती थी। इसका लाभ यह हुआ कि सल्तनत के प्रत्येक अमीर, उमराव, शहजादे, हिन्दू सरदार तथा मुल्ला-मौलवियों से मुमताज का सीधा सम्पर्क हो गया।
इस कारण जब तक मुमताज महल जीवित रही, किसी ने उसके विरुद्ध विद्रोह नहीं किया। न कोई व्यक्ति मुमताज के खिलाफ बादशाह के कान भर सका।
मुमताज के पेट से कुल 14 संतानों ने जन्म लिया। 17 जून 1631 को बुरहानपुर में शाहजहां की 14वीं संतान गौहरा बेगम को जन्म देते वक्त मुमताज महल की मृत्यु हो गई। शाहजहां ने गौहरा बेगम को अपने लिए अभिशप्त माना तथा उसका मुंह तक देखने से मना कर दिया।
ई.1612 में 19 वर्ष की आयु में मुमताज महल का विवाह शाहजहां से हुआ था। इस विवाह के बाद वह केवल 19 साल जीवित रही तथा इस अवधि में उसने 14 बार गर्भ धारण किया। एक तरह से शाहजहां ने उसे बच्चे पैदा करने की मशीन बनाकर रख दिया था।
शाहजहां के चाचा दानियाल ने मुमताज महल का शव बुरहानपुर के जैनाबाद बाग में दफ्न किया। उसके शव को सुरक्षित रखने के लिए मिस्र देश में ममी बनाने की तीन प्रसिद्ध विधियों में से एक विधि का सहारा लिया गया ताकि उसके शव में से कभी बदबू नहीं आ सके तथा उसका शव हजारों साल तक सुरक्षित रह सके।
मुमताज के शोक में डूबा हुआ शाहजहां, लगभग एक साल तक बुरहानपुर में ही रहा तथा इस दौरान वह अपने डेरे से एक बार भी बाहर नहीं निकला।
बाद में जब आगरा में ताजमहल का निर्माण शुरु हो गया तथा चाहर-दीवारियां बन गईं, तब दिसम्बर 1631 में मुमताज के शव को कब्र से बाहर निकाला गया। इस शव को पूरे लाव-लश्कर के साथ शानदार शाही जुलूस के रूप में बुरहानपुर से आगरा तक लाया गया। इस जुलूस पर उस समय आठ करोड़ रुपए व्यय हुए थे।
12 जनवरी 1632 को मुमताज का शव निर्माणाधीन ताजमहल के परिसर में दफना दिया गया।
जब 9 साल बाद ई.1640 में ताजमहल बनकर पूरा हो गया, तब मुमताज महल के शव को एक बार फिर कब्र से बाहर निकाला गया तथा इस बार उसे ताजमहल के एक तहखाने में दफनाया गया तथा उसके ऊपर की मंजिल में उसकी नकली कब्र बनाई गई ताकि यदि दुश्मन कभी ताजमहल को नष्ट करें तो मुमताज महल, अपने तहखाने और अपने ताबूत में सुरक्षित रहकर आराम से कयामत का इंतजार कर सके।
जब शाहजहां भी मर गया, तब मुमताज महल के निकट ही ताजमहल के तहखाने में शाहजहां को भी दफनाया गया तथा ऊपर की मंजिल में मुमताज की नकली कब्र के पास ही बादशाह की भी नकली कब्र बनाई गई।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता