बलबन का प्रारंभिक जीवन
गयासुद्दीन बलबन का जन्म भी इल्तुतमिश की भांति तुर्कों के इल्बरी कबीले में हुआ था। बलबन का पिता दस हजार कुटुम्बों का खान था। बाल्यावस्था में बलबन को मंगोलों ने पकड़ लिया तथा उसे ख्वाजा जमालुद्दीन को बेच दिया। ख्वाजा बलबन की प्रतिभा से अत्यन्त प्रभावित हुआ और उसे शिक्षा दिलवाकर सुयोग्य तथा सभ्य व्यक्ति बना दिया। ख्वाजा उसे दिल्ली ले आया। 1232 ई. में इल्तुतमिश ने उसे मोल ले लिया।
बलबन का उत्कर्ष
इल्तुतमिश ने बलबन की प्रतिभा से प्रभावित होकर उसे ‘खास सरदार’ बना दिया जिससे वह चालीस गुलामों के दल का सदस्य हो गया। रुकुनुद्दीन फीरोजशाह के काल में सुल्तान का विरोध करने के कारण बलबन को कारागार में डाल दिया गया परन्तु रजिया के काल में वह फिर से अपने पुराने पद पर बहाल हो गया। थोड़े ही दिन बाद वह ‘अमीरे शिकार’ बना दिया गया। रजिया को पदच्युत करने में बलबन ने विद्रोहियों का साथ दिया था। बहरामशाह के काल में बलबन ‘अमीरे आखूर’ के पद पर नियुक्त कर दिया गया और उसे हांसी तथा रेवाड़ी की जागीरें भी मिल गईं। 1245 ई. में मंगोलों ने सिंध पर आक्रमण किया। बलबन ने उनके विरुद्ध सैनिक अभियान का नेतृत्व किया तथा उन्हें भगा दिया। इससे प्रसन्न होकर सुल्तान मसूदशाह ने उसे ‘अमीरे हाजिब’ के पद पर नियुक्त कर दिया।
प्रधानमंत्री पर पर नियुक्ति
1246 ई. में बलबन ने मसूदशाह के स्थान पर नासिरुद्दीन को सुल्तान बनाने के अभियान में प्रमुखता से भाग लिया। नासिरुद्दीन ने बलबन को अपना प्रधान परामर्शदाता तथा ‘नायब-ए-मुमालिक’ अर्थात् सल्तनत का प्रधानमंत्री बनाया। प्रधानमंत्री पद पर पहुँच जाना बलबन के लिये बड़ी उपलब्धि थी। नासिरुद्दीन ने जब उसे प्रधानमंत्री बनाया तो उससे कहा कि मैंने शासन तंत्र तुम्हारे हाथ में सौंप दिया है इसलिये कभी ऐसा काम मत करना जिससे तुम्हें और मुझे अल्लाह के सामने लज्जित होना पड़े। नासिरुद्दीन शांत स्वभाव का सुल्तान था इसलिये बलबन सदैव उसके प्रति स्वामिभक्त रहा। 1249 ई. में बलबन ने अपनी पुत्री का विवाह सुल्तान नासिरुद्दीन के साथ कर दिया। इससे सल्तनत में बलबन का रुतबा और भी बढ़ गया। 1249 ई. में बलबन को उलूग खान की उपाधि दी गई। इस प्रकार वह मलिक से खान बना दिया गया। इसके साथ ही वह अमीरों का प्रधान तथा साम्राज्य का नायब सुल्तान बना दिया गया। नासिरुद्दीन की धार्मिकता तथा उदारता के कारण बलबन को अपनी प्रतिभा प्रदर्शित करने का पूर्ण अवसर प्राप्त हुआ। उसने मंत्री के कर्त्तव्यों को बड़ी योग्यता के साथ पूरा किया।
बलबन को पदच्युत किया जाना
बलबन की बढ़ती हुई शक्ति के कारण बहुत से अमीर उससे ईर्ष्या करने लगे। बलबन भी निरंकुश ढंग से काम करता था। इसलिये सुल्तान भी उसके कई कामों से असंतुष्ट हो जाता था। 1252-53 ई. में जब बलबन दिल्ली से बाहर गया हुआ था तब इन अमीरों ने सुल्तान के कान भरे और बलबन को अपदस्थ करवा दिया। सुल्तान ने बलबन को हांसी की जागीर में चले जाने की आज्ञा दी। बलबन सुल्तान की आज्ञा मानकर हांसी की जागीर पर चला गया।
बलबन की पुनः नियुक्ति
बलबन को हटाकर सुल्तान ने नये सिरे से अमीरों की नियुक्तियां कीं। बहुत से पुराने अमीरों को उनके पदों से हटा दिया गया। काजी मिनहाज-सिराज को भी उसके पद से हटा दिया गया। शीघ्र ही बलबन को पदच्युत करने के दुष्परिणाम सामने आने लगे और सल्तनत का काम बिगड़ने लगा। अतः विवश होकर 1254 ई. में सुल्तान ने बलबन को फिर से दिल्ली बुला लिया। अब बलबन राज्य का सर्वेसर्वा हो गया और सुल्तान की मृत्यु तक राज्य का वास्तविक शासक बना रहा।
प्रधानमंत्री के रूप में बलबन की उपलब्धियाँ
प्रधानमंत्री के रूप में बलबन की उपलब्धियाँ उसे दिल्ली सल्तनत का वास्तविक शासक होने का गौरव प्रदान करती हैं।
1. विद्रोही हिन्दुओं का दमन: बलबन एक कट्टर मुसलमान था। उसे मुस्लिम इतिहासकार पैगम्बर मानते थे जिसे अल्लाह ने भारत में इस्लाम के प्रसार हेतु भेजा था। अतः स्वाभाविक ही था कि बलबन विद्रोही राजपूत राजाओं का कठोरता से दमन करता। उसने रणथंभौर, ग्वालियर तथा चंदेरी के राजाओं का दमन करके इन राज्यों को दिल्ली के अधीन बनाया। दोआब के विद्रोहियों का दृढ़़ता से दमन किया। उसने दोआब के अधिकतर पुरुषों का वध कर दिया तथा उनकी स्त्रियों और बच्चों को पकड़कर गुलाम बना लिया।
2. खोखरों का दमन: नासिरुद्दीन के सुल्तान बनने से पूर्व राज्य में अराजकता व्याप्त थी। चारों ओर अशांति छाई हुई थी। उत्तर में खोखर जाति उत्पात मचा रही थी तथा भारत पर आक्रमण करने वाले मंगोलों को सहायता दे रही थी। प्रधानमंत्री बनते ही 1246 ई. में बलबन ने खोखरों के विरुद्ध अभियान करके दृढ़़ता से उनका दमन किया।
3. मेवातियों का दमन: मेवाती बड़े विद्रोही प्रवृत्ति के थे। उन्होंने दिल्ली के चारों ओर लूटमार मचा रखी थी। इस कारण व्यापारियांे का दिल्ली से बाहर निकलना असंभव सा हो गया था। बलबन ने मेवातियों को दबाने के लिये एक विशाल सेना भेजी। इस सेना ने मेवातियों का निर्दयता से दमन किया तथा दिल्ली के चारों ओर के मार्ग निरापद कर दिये।
4. विद्रोही सूबेदारों का दमन: 1255 ई. में अवध के सूबेदार कुतुबखां और सिन्ध के सूबेदार किशलूखां ने विद्रोह किया। दिल्ली के कई अमीर उनके साथ हो गये। बलबन ने पूरी ताकत लगाकर इन सूबेदारों और अमीरों का दमन किया। उसने शम्सी अमीरों का भी दमन किया जो स्वयं को दूसरों से अधिक अभिजात्य मानते थे। बलबन ने कई सरदारों से उनकी जागीरें छीन लीं। जब बलबन की कार्यवाहियां जारी रहीं तो कोतवाल फखरुद्दीन ने बलबन से कहा कि वह इन अमीरों के विरुद्ध और कठोर कार्यवाही नहीं करे। इस पर बलबन ने अमीरों तथा सूबेदारों का पीछा छोड़ा।
5. बंगाल के विद्रोह का दमन: बंगाल के सूबेदार तुगरिल खाँ ने दिल्ली से सम्बन्ध विच्छेद करके अवध पर आक्रमण कर दिया। इस पर जाजनगर के राजा ने तुगरिल खाँ का सामना किया तथा तुगरिल खाँ को परास्त कर दिया। तुगरिल खाँ ने बलबन से सहायता मांगी। इस पर बलबन को बंगाल में कार्यवाही करने का अवसर मिल गया। बलबन ने तुगरिल खाँ पर आक्रमण करके उससे युद्ध का हरजाना मांगा। इस पर तुगरिल खाँ ने अवध की जागीर बलबन को दे दी तथा स्वयं दिल्ली के अधीन हो गया।
6. मंगोलों से राज्य की सुरक्षा: इस समय तक मंगोल गजनी तथा ट्रांसऑक्सियाना पर अधिकार कर चुके थे तथा बगदाद के खलीफा को मौत के घाट उतार चुके थे। मंगोल, सिंध और पंजाब पर बार-बार आक्रमण करके वहाँ निरंतर लूटमार मचा रहे थे। उनके आक्रमणों को रोकने के लिये बलबन ने पश्चिमोत्तर सीमा के लिये अलग सेना का गठन किया तथा उस सेना को स्थाई रूप से पश्चिमोत्तर सीमा पर तैनात कर दिया। बलबन ने वहाँ कई दुर्ग भी बनवाये जिनमें सेना को रखा जा सके।
निष्कर्ष
उपरोक्त तथ्यों से स्पष्ट है कि 1246 ई. में प्रधानमंत्री बनने के बाद बलबन राज्य के हर अंग पर छाया रहा। उसने राज्य को स्थायित्व दिया, दरबार में शांति तथा अनुशासन को बनाये रखा जिससे सुल्तान नासिरुद्दीन 20 वर्ष तक दिल्ली पर शासन कर सका। वास्तव में इल्तुतमिश के बाद सुल्तान नासिरुद्दीन ही इतनी दीर्घ अवधि तक शासन कर सका था। इसका सम्पूर्ण श्रेय बलबन को जाता है। प्रधानमंत्री के रूप में बलबन ने इस्लाम के प्रसार के लिये कोई भी अवसर हाथ से नहीं जाने दिया।
बलबन का राज्यारोहण
18 फरवरी 1266 को सुल्तान नासिरुद्दीन की मृत्यु हो गई। उसके कोई पुत्र नहीं था। इसलिये उसने अपने जीवन काल में अपने श्वसुर गयासुद्दीन बलबन को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त कर दिया था। इसलिये सुल्तान की मृत्यु के बाद बलबन बिना किसी विरोध के दिल्ली का सुल्तान हो गया। इब्नबतूता तथा इसामी आदि परवर्ती लेखकों ने उसे राज्य हड़पने वाला बताया है किंतु आधुनिक इतिहासकारों ने इस धारणा को निराधार बताया है।
बलबन की समस्याएँ
यद्यपि बलबन निर्विरोध दिल्ली के तख्त पर बैठा था परन्तु उसे अनेक कठिनाइयों तथा समस्याओं का सामना करना पड़ा। ये समस्याएँ निम्नलिखित थीं-
(1) सल्तनत को सुदृढ़़ बनाने की समस्या: यद्यपि भारत में तुर्की साम्राज्य को स्थापित हुए लगभग 60 वर्ष हो चुके थे परन्तु चारों दिशाओं से दिल्ली सल्तनत पर आक्रमण होते रहे थे। इस कारण सल्तनत में तुर्की संस्थाएं संगठित तथा सुव्यस्थित नहीं हो पाई थीं। केन्द्रीय तथा प्रांतीय सरकारों के संगठन में कोई उन्नति नहीं की गई थी और न विजेता तथा विजित में सम्पर्क बनाने का प्रयत्न किया गया था। विजेता अब भी विदेशी समझे जाते थे। भारत की जनता उन्हें घृणा की दृष्टि से देखती थी और उनका आधिपत्य स्वीकार करने के लिए तैयार नहीं थी। साधारण सुरक्षा की भी कोई व्यवस्था नहीं की गई थी। अमीरों की भक्ति सदैव संदिग्ध रहती थी और वे षड़यंत्र तथा कुचक्र रचने में संलग्न रहते थे।
(2) आर्थिक समस्या: सल्तनत के विभिन्न भागों में विद्रोह होते रहने के कारण राजकोष का बहुत बड़ा अंश सेना पर व्यय करना पड़ता था। मंगोलों के आक्रमणों को रोकने तथा विद्रोहियों का दमन करने में काफी धन व्यय करना पड़ता था। अनेक सरदार समय-समय पर कर देना बन्द करके उपद्रव करने लगते थे। इसका राज्य की आय पर बहुत बुरा प्रभाव पड़ता था। राज्य की आर्थिक दशा को सुधारे बिना अन्य समस्याओं को सुलझना असम्भव था।
(3) चालीस गुलामों की समस्या: इल्तुतमिश ने सुल्तान की स्थिति को सुदृढ़़ बनाने के लिए चालीस गुलामों के मण्डल का गठन किया था परन्तु कालान्तर में यही गुलाम सुल्तान के लिए घातक हो गये। वे षड़यंत्रकारी एवं विघटनकारी शक्तियों का नेतृत्व करने लगे। अतः उनका दमन करना आवश्यक था। वे बलबन के सुल्तान बन जाने से भी असंतुष्ट थे।
(4) हिन्दू सरदारों तथा भूमिपतियों की समस्या: हिन्दू सरदारों तथा भूमिपतियों को नियन्त्रित रखना किसी समस्या से कम नहीं था। यद्यपि बलबन के पूर्ववर्ती सुल्तानों ने उनके दमन का भरपूर प्रयास किया था परन्तु इस कार्य में स्थाई सफलता नहीं मिल सकी थी। अपने प्रधानमंत्री काल में बलबन भी इस कार्य को करता रहा था किंतु फिर भी दूरस्थ क्षेत्रों यथा- राजपूताना, बुन्देलखंड तथा बघेलखंड में राजपूतों के स्वतन्त्र राज्य स्थापित हो गये थे। सल्तनत की सुरक्षा के लिए इन विद्रोही हिन्दू सरदारों का दमन करना नितान्त आवश्यक था।
(5) मंगोलों के आक्रमण की समस्या: मंगोल सरदारों ने सिन्धु नदी को पार करके सिन्ध तथा पश्चिमी पंजाब में अपने शासक नियुक्त कर रखे थे। बलबन अपने प्रधानमंत्री काल में पश्चिमोत्तर सीमा पर एक अलग सेना नियुक्त कर चुका था किंतु फिर भी मंगोल आक्रमणकारियों से दिल्ली सल्तनत को सदैव खतरा बना रहता था।
(6) सल्तनत को निश्चित स्वरूप प्रदान करने की समस्या: बलबन ऐसे समय में तख्त पर बैठा था जब तुर्कों की सत्ता स्थायी रूप से भारत में स्थापित हो गई थी। अब राजनीतिक व्यवस्था एक निश्चित स्वरूप प्राप्त कर रही थी और बलबन का कार्य उसे निश्चित स्वरूप देने और उसे स्थायी बनाने का था।
(7) राजत्व के आदर्शों की समस्या: दिल्ली सल्तनत में अब तक राजत्व के आदर्शों तथा उनके क्रियात्मक रूप में विभेद नहीं हो सका था। इल्तुतमिश के निर्बल उत्तराधिकारी जिनको सदैव अपनी जान के लाले पड़े रहते थे, इस कार्य को नहीं कर सके। न तो उन्हें इसका कोई अनुभव था और न उनमें इस कार्य के करने की योग्यता थी। बलबन अनुभवी, दूरदर्शी, विचारशील तथा दृढ़़ संकल्प का व्यक्ति था। अतः उसमें राजत्व के आदर्शों तथा उनके क्रियात्मक रूप में विभेद करने की क्षमता थी किंतु इन्हें लागू करने के लिये धैर्य एवं लगन की भी आवश्यकता थी।
समस्याओं का निवारण
उपर्युक्त विवरण से स्पष्ट है कि बलबन के लिये दिल्ली का ताज काँटों से भरा हुआ था परन्तु बलबन लम्बे समय से दिल्ली सल्तनत में विभिन्न प्रशासकीय कार्य कर चुका था तथा विगत 20 वर्षों से वह राज्य के प्रधानमंत्री के रूप में कार्य कर रहा था इसलिये उसे इन समस्याओं से निबटने में विशेष कठिनाई नहीं होने वाली थी। बलबन ने अपने शासन को मजबूत करने के लिये निम्नलिखित कदम उठाये-
(1.) सुल्तान की प्रतिष्ठा की स्थापना: बलबन ने सुल्तान के पद को प्रतिष्ठित तथा गौरवान्वित करने के लिये कई कदम उठाये। उसका कहना था कि रसूल के अतिरिक्त अन्य कोई पद इतना गौरवपूर्ण तथा प्रतिष्ठित नहीं होता जितना सुल्तान का। सुल्तान इस पृथ्वी पर अल्लाह का प्रतनिधि होता है और उसके कार्यों से सर्वशक्तिमान अल्लाह की मर्यादा दिखाई देनी चाहिये। अल्लाह शासन का भार उच्च-वंशीय लोगों को ही प्रदान करता है। बलबन में उच्च-वंशीय भावना इतनी प्रबल थी कि वह निम्न-वंश के व्यक्तियों को राज्य में कोई उच्च पद प्रदान नहीं करता था और न उनकी भेंट अथवा उपहार स्वीकार करता था। दिल्ली का जखरू नामक अत्यन्त समृद्धशाली व्यापारी लाखों टंक की भेंट के साथ सुल्तान के दर्शन करना चाहता था परन्तु सुल्तान उसे दर्शन देना अपनी प्रतिष्ठा के विरुद्ध समझता था। फलतः सुल्तान ने उसकी प्रार्थना को अस्वीकार कर दिया। सुल्तान तथा उसके पद की मर्यादा को बढ़ाने के लिए बलबन ने अपने दरबार को ईरानी ढंग पर संगठित किया। उसके दरबार को विविध प्रकार से सजाया गया। सुल्तान के अंगरक्षक प्रज्वलित अस्त्रों तथा आकर्षक वस्त्रों से अंलकृत होकर, पंक्तियाँ बनाकर सुल्तान के पीछे खड़े रहते थे। प्रत्येक व्यक्ति को चाहे वह कितना ही बड़ा क्यों न हो, दरबार में पूर्ण अनुशासन रखना पड़ता था। सुल्तान के समक्ष न कोई हँस सकता था और न मजाक कर सकता था। इस प्रकार बलबन ने सुल्तान के पद को अधिकाधिक प्रतिष्ठित तथा गौरवान्वित बनाने का प्रयत्न किया।
(2.) उलेमाओं को राजनीति से अलग करना: दिल्ली में उन दिनों उलेमाओं का बोलबाला था। शक्तिशाली होने के कारण उनका चारित्रिक पतन हो गया था। बरनी के अनुसार उलेमा न तो ईमानदार थे और न उनमें धार्मिकता रह गई थी। बलबन ने इन रूढ़िवादी तथा कर्त्तव्य-भ्रष्ट उलेमाओं को राजनीति में भाग लेने से वंचित कर दिया। बलबन उलेमाओं का आदर-सत्कार करता था और तब तक भोजन नहीं करता था जब तक कि कम से कम एक दर्जन उलेमा उसके पास नहीं बैठे हों परन्तु उसने उलेमाओं के दुर्गुणों के कारण उन्हें सल्तनत की राजनीति से अलग कर दिया। प्रोफेसर हबीबुल्लाह ने इसे बलबन की सबसे बड़ी भूल माना है। उन्होंने लिखा है कि बलबन का सबसे बड़ा दोष यह था कि उसने मुसलमानों के प्रभाव को राजनीति और शासन में स्वीकार नहीं किया।
(3.) चालीस गुलाम सरदारों के दल की समाप्ति: बलबन ने अनुभव किया कि सुल्तान की निरंकुशता के मार्ग में सबसे बड़ी बाधा तुर्की अमीर थे जिनका नेतृत्व चालीस के मण्डल के हाथों में था। प्रमुख तुर्की अमीरों के इस मण्डल ने सुल्तान को अपने हाथों की कठपुतली बना लिया था। बलबन ने सुल्तान तथा उसके उत्तराधिकारियों का भविष्य सुरक्षित करने के लिये चालीस सरदारों के इस मण्डल को नष्ट करने का निश्चय किया। उसने अपने व्यक्तिगत सेवकों का नया दल बनाया और उन्हें ऊँचे पदों पर नियुक्त किया। उसने रक्त की शुद्धता तथा तुर्कों की श्रेष्ठता को आधार बनाकर उन लोगों को दरबार से निकाल बाहर किया जिन्होंने हिन्दू-धर्म का परित्याग करके और इस्लाम ग्रहण करके राज्य में ऊँचे पद प्राप्त कर लिये थे। उसने ऐसे लोगों को भी हटा दिया जिनके वंश के विषय में किसी प्रकार का सन्देह था। उसने चालीस अमीरों में से जो दुर्बल तथा अयोग्य हो गये थे, उन्हें पेन्शन देकर घर बैठा दिया। अमीरों की विधवाओं तथा उनके बच्चों के लिए भी गुजारा निश्चित कर दिया। उसने केवल युवकों को ही राज्य की सेवा में रखा और कार्य तथा योग्यता के अनुसार उनका वेतन निश्चित किया। चालीसा मण्डल की समाप्ति बलबन की सबसे बड़ी सफलता कही जा सकती है जिसके कारण वह लगभग 21 साल तक दिल्ली पर निर्विघ्न शासन कर सका।
(4.) प्रान्तपतियों पर नियन्त्रण: दरबारी अमीरों पर नियन्त्रण करने के उपरान्त बलबन ने प्रान्तपतियों की ओर ध्यान दिया। उसने विद्रोही प्रांतपतियों को नष्ट कर दिया। शम्सी सरदारों में उन दिनों सबसे अधिक प्रबल शेरखाँ सुन्कर था जो सीमान्त प्रदेश का शासक था। बलबन की शम्सी सरदार विरोधी नीति से वह अत्यन्त शंकित तथा आतंकित हो गया और सुल्तान से मिलने के लिए दिल्ली नहीं आया। बलबन ने उसे दरबार में उपस्थित होने के लिये आदेश भेजा। शेरखाँ चार वर्ष तक आनाकानी करता रहा। अन्त में बलबन ने उसे विष दिलवाकर उसकी हत्या करवा दी। इसके बाद बलबन ने शेर खाँ के स्थान पर सीमान्त प्रदेश में बंगाल के हाकिम तातार खाँ को और तातार खाँ के स्थान पर तुगरिल बेग को बंगाल का सूबेदार नियुक्त कर दिया। सीमान्त प्रदेश के दुर्गों के शासकों में परस्पर विद्वेष था। बलबन ने उन्हें यह आरोप लगाकर बंदीगृह में डाल दिया कि उन्होंने अपने कार्य में असावधानी बरती है। अवध का इक्तादार अमीन खाँ बंगाल के आक्रमण में विफल होकर लौटा तो बलबन ने उसे मृत्यु दण्ड देकर उसका शव अयोध्या के फाटक पर लटकवा दिया। इसी प्रकार अवध के इक्तादार हैबात खाँ को अपने एक गुलाम की हत्या कर देने के अपराध में 500 कोड़े लगावाये। बदायूं के सूबेदार मलिक बकबक को जनसाधारण के सम्मुख कोड़ों से पीटा गया क्योंकि उसने एक गुलाम को कोड़ों से पीट-पीटकर मार डाला था।
(5.) मेवातियों का दमन: मेवाती लोग दिल्ली के आस-पास लूट-मार किया करते थे और अवसर पाते ही राजधानी दिल्ली में भी घुसकर लूटपाट करते थे। बलबन ने अनुभवी मलिकों तथा अपनी सेना की सहायता से मेवातियों का दमन आरम्भ किया। उसने उनके नगरों तथा गाँवों को भस्म करवा दिया और उन जंगलों को साफ करवा दिया जिनमें वे भाग कर शरण लिया करते थे।
(6.) दोआब के विद्रोह का दमन: दो आब का क्षेत्र लगातार विद्रोह का गढ़ बना हुआ था। दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों ने इन विद्रोहों को कई बार दबाने का प्रयास किया था किंतु अवसर पाते ही विद्रोही सिर उठा लेते थे। इन दिनों भी दोआब में बड़ी अशान्ति फैली हुई थी। सड़कें अत्यन्त असुरक्षित थीं और डाकुओं की लूटमार के कारण व्यापार मन्द पड़ गया था। बलबन ने दोआब में उपद्रव करने वालों को बड़ी कठोरता से दण्ड दिया। उसने दोआब को कई खण्डों में विभक्त कर दिया तथा इन खण्डों में अफगान सैनिकों की छावनियाँ स्थापित कीं।
(7.) रूहेलखण्ड में विद्रोह का दमन: जिस समय बलबन दोआब में विद्रोहियों का दमन कर रहा था, उन्हीं दिनों कटेहर में उत्पात आरम्भ हो गया। बलबन स्वयं एक विशाल सेना लेकर कटेहर गया। उसने विद्रोहियों की बस्तियों में आग लगवा कर उन्हें नष्ट कर दिया। उनकी स्त्रियों तथा बच्चों को बन्दी बना लिया और 9 वर्ष से अधिक अवस्था वाले लड़कों एवं पुरुषों की नृशंसतापूर्वक हत्या कर दी। इस भीषण नरमेध के उपरान्त कटेहर का विद्रोह शान्त हो गया।
(8.) मंगोलों से संघर्ष: मंगोलों ने सिन्ध नदी के पश्चिमी प्रदेश पर अधिकार कर लिया था। पंजाब का अधिकांश भाग भी उन्हीं के अधीन चला गया था। बरनी लिखता है कि व्यास नदी ही अब दिल्ली सल्तनत की पश्चिमी सीमा थी और उसके उस पार का सम्पूर्ण प्रदेश मंगोलों के अधिकार में था। बलबन के लिये यह संभव नहीं था कि वह पंजाब से मंगोलों को निष्कासित कर सके। इसलिये उसने मंगोलों को व्यास-रावी के दोआब में रोके रखने की व्यवस्था की। उसने लाहौर के दुर्ग की मरम्मत करवा कर उसमें एक सुसज्जित सेना रख दी। 1271 ई. में बलबन स्वयं लाहौर गया और उसने उन किलों की मरम्मत करवाई जिन्हें मंगोलों ने नष्ट-भ्रष्ट कर दिया था। बलबन ने सीमान्त प्रदेश को तीन भागों में विभक्त कर दिया और प्रत्येक भाग में एक अधिकारी नियुक्त किया। एक क्षेत्र में तातार खाँ को, दूसरे में शाहजादा मुहम्मद को और तीसरे में बुगरा खाँ को नियुक्त किया। इन समस्त क्षेत्रों में चुने हुए सैनिक रखे गये। राजधानी में भी एक विशाल सेना सदैव विद्यमान रहती थी। मंगोलों ने कई बार व्यास को पार करके आगे बढ़ने का प्रयत्न किया किंतु बलबन के सेनापतियों ने उनके समस्त प्रयत्न निष्फल कर दिये।
(9.) बंगाल में विद्रोह का दमन: 1279 ई. में बलबन बीमार पड़ा। इस समय वह काफी वृद्ध हो गया था। इन दिनों पश्चिमोत्तर सीमा पर मंगोलों के आक्रमण भी बढ़ गये थे। बलबन के दोनों पुत्र इन आक्रमणों को रोकने में व्यस्त थे। इस स्थिति का लाभ उठाकर बंगाल के सूबेदार तुगरिल खाँ ने स्वयं को स्वतन्त्र शासक घोषित कर दिया और सुल्तान मुगसुद्दीन की उपाधि धारण की। उसने अपने नाम की मुद्रायें भी चलाई और अपने नाम से खुतबा भी पढ़वाया। बलबन ने तुगरिल के विरुद्ध कई बार सेनाएँ भेजीं परन्तु सफलता प्राप्त नहीं हुई। अन्त में बलबन दिल्ली का प्रबन्ध कोतवाल फखरूद्दीन को सौंपकर, अपने पुत्र बुगरा खाँ तथा एक विशाल सेना के साथ बंगाल के लिए चल दिया। लगभग छः वर्ष के लगातार प्रयासों के बाद बलबन का लखनौती पर अधिकार हो सका। तुगरिल अपने कुछ साथियों के साथ जाजनगर के जंगलों में भाग गया। बड़ी खोज के बाद तुगरिल को पकड़ा जा सका। उसे लखनौती के बाजार में सरेआम सूली पर लटकाया गया तथा उसका सिर काटकर नदी में फेंक दिया गया। उसकी स्त्रियों तथा बच्चों को कैद कर लिया गया। सुल्तान ने तुगरिल के साथियों तथा सम्बन्धियों को बड़ा कठोर दण्ड दिया। लखनौती में तीन दिन तक निरन्तर हत्याकाण्ड चलता रहा। विद्रोहियों का दमन करने के उपरान्त बलबन ने बंगाल का शासन प्रबन्ध अपने पुत्र बुगरा खाँ को सौंप दिया। उसने शहजादे को चेतावनी दी कि यदि वह दुष्टों के कहने में आकर विद्रोह करेगा तो उसकी वही दशा होगी जो तुगरिल की हुई थी।
निष्कर्ष
इस प्रकार हम देखते हैं कि दिल्ली सल्तनत के समक्ष कुतुबुद्दीन ऐबक के समय से जो समस्याएँ चली आ रही थीं, वे बलबन के समय भी विद्यमान थीं। पश्चिमोत्तर सीमांत क्षेत्र में खोखरों का उपद्रव, पश्चिमोत्तर सीमा पर मंगोलों के आक्रमण, दिल्ली के निकट मेवातियों के उत्पात, गंगा-यमुना के दोआब में हिन्दुओं के विद्रोह, राजपूताना, बुंदेलखंड तथा बघेलखंड में हिन्दू सरदारों के विद्रोह, बंगाल के गवर्नरों के विद्रोह, अमीरों के षड़यंत्र आदि बहुत सी ऐसी समस्याएँ थीं जो पूरे गुलामवंश के शासन के दौरान बनी रहीं। बलबन इनमें से केवल षड़यंत्रकारी अमीरों की समस्या का स्थायी समाधान ढूंढ सका था।
बलबन का राजत्व सिद्धान्त
बलबन ने अपने राज्य को स्थाई, सुल्तान को प्रभावशाली तथा शासन को मजबूत बनाने के लिये राजत्व के सिद्धांत का निर्माण किया। बलबन ने अपने राजत्व के सिद्धांतों की जानकारी अपने शाहजादा मुहम्मद को एक आदेश के रूप में दी। बलबन के राजत्व के सिद्धान्त इस प्रकार थे-
(1.) सुल्तान दैवी अधिकारों से सम्पन्न होता है: बलबन का विश्वास था कि सुल्तान को देवत्व प्राप्त होता है और उसमें दैवी अंश विद्यमान होता है। वह सुल्तान को इस पृथ्वी पर रसूल का प्रतिनिधि समझता था। वह राजपद को अत्यन्त पवित्र समझता था। उसका मानना था कि सुल्तान को रसूल की विशेष कृपा प्राप्त रहती है जिससे अन्य लोग वंचित रहते हैं।
(2.) सुल्तान स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश होता है: बलबन सुल्तान के स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश शासन में विश्वास करता था। उसकी दृढ़़ धारणा थी कि स्वेच्छाचारी तथा निरंकुश शासक ही राज्य को सुसंगठित एवं सुरक्षित करके अपनी रियाया को अनुशासन में रख सकता है। बलबन ने अपने सम्पूर्ण शासन काल में इस सिद्धान्त का अनुसरण किया और अमीरों तथा उलेमा लोगों की शक्ति तथा प्रभाव को नष्ट करके स्वयं असीमित सत्ता का केन्द्र बन गया।
(3.) राजपद गौरवपूर्ण होता है: बलबन की यह धारणा थी कि सुल्तान का पद अत्यन्त गौरवपूर्ण होता है। इसलिये प्रत्येक सुल्तान को अपना गौरव उन्नत बनाये रखना चाहिए। बलबन ने अपने जीवन काल में इस सिद्धान्त का अनुसरण किया और स्वयं को गौरवान्वित बनाये रखा। उसने दरबार में मद्यपान करके आने तथा हँसी-मजाक करने पर रोक लगा दी। वह स्वयं भी अत्यन्त गम्भीर रहा करता था और साधारण लोगों से बात नहीं करता था। वह निम्न वर्ग के लोगों से भेंट लेना भी हेय समझता था।
(4.) सुल्तान को कर्त्तव्यपरायण होना चाहिए: बलबन की धारणा थी कि सुल्तान को कर्त्तव्य परायण होना चाहिए और सदैव प्रजा-पालन का चिन्तन करना चाहिए। सुल्तान को आलसी अथवा अकर्मण्य नहीं होना चाहिए। उसे सदैव सतर्क तथा चैतन्य रहना चाहिए।
(5.) सुल्तान को कठोरता से शासन करना चाहिए: बलबन अपने विरोधियों तथा विद्रोहियों का क्रूरता से दमन करने में विश्वास करता था। चोर-डकैतों, मेवातियों, षड़यंत्रकारी अमीरों तथा विद्रोही सामन्तों के कुचक्रों को उसने कठोरता से कुचला।
बलबन का शासन प्रबन्ध
बलबन की सैनिक उपलब्धियाँ उतनी बड़ी नहीं हैं जितनी बड़ी शासकीय उपलब्धियाँ हैं। उसने दिल्ली सल्तनत को स्थायित्व प्रदान किया। विद्रोहियों का दमन किया तथा राज्य में व्यवस्था स्थापित की। उसके द्वारा किये गये कार्यों का संक्षिप्त विवरण इस प्रकार से है-
(1.) सल्तनत में शान्ति की स्थापना: इल्तुतमिश की मृत्यु के उपरान्त दिल्ली सल्तनत में अंशाति तथा कलह बढ़ गया था। बरनी ने लिखा है- ‘सब लोगों के हृदय से राज का भय निकल गया था और देश की बड़ी दुर्दशा हो रही थी।’ बलबन ने बड़ी दृढ़़ता से अंशाति तथा कलह को दबाकर विद्रोहियों का दमन किया और सुल्तान की सत्ता तथा धाक को फिर से स्थापित किया। उसने अपराधियों, विरोधियों एवं षड़यंत्रकारियों को कठोर दण्ड देकर लोगों को राजाज्ञाओं का पालन करने के लिए विवश किया।
(2.) सुल्तान में केन्द्रीभूत शासन की स्थापना: इल्तुमिश की मृत्यु के बाद शासन में अमीरों का बोलबाला हो गया था जिसके कारण सुल्तान अपनी इच्छा से कार्य नहीं कर सकता था। बलबन ने अमीरों का दमन करके फिर से ऐसे स्वेच्छाचारी केन्द्रीभूत शासन की पुनर्स्थापना की जिसमें शासन की सारी शक्तियाँ सुल्तान में केन्द्रीभूत थीं। सुल्तान कोई भी महत्वपूर्ण कार्य अपने राज्याधिकारियों अथवा पुत्रों पर पूर्ण रूप से नहीं छोड़ देता था। इससे शासन के समस्त कार्यों में सुल्तान का परामर्श एवं आज्ञा प्राप्त करना आवश्यक हो गया।
(3.) सेना में स्फूर्ति का संचार: यद्यपि बलबन ने राज्य-विस्तार नहीं किया परन्तु राज्य को शत्रुओं एवं विद्रोहियों से सुरक्षित रखने के लिये उसने सुसंगठित तथा सेना की व्यवस्था की। उसने अपनी सेना को अनुभवी तथा राज-भक्त मलिकों के हाथों में सौंपा। सेना में हाथियों और घोड़ों की संख्या में वृद्धि की। सैनिकों को जागीर के स्थान पर नकद वेतन देने पर जोर दिया गया। प्रान्तीय तथा स्थानीय हाकिम अपने सैनिकों को नकद वेतन न देकर भूमि ही दिया करते थे। बलबन ने सेना को इमादुलमुल्क के नियन्त्रण में रख दिया जो योग्य तथा कर्त्तव्य परायण अमीर था। उसे ‘दीवाने आरिज’ (सैन्य सचिव) बना दिया। इमादुल्मुल्क ने सेना का अच्छा प्रबन्ध किया और उसमें अनुशासन स्थापित किया। बलबन ने सम्भवतः घोड़ों को दाग लगवाने की प्रथा आरम्भ की। सैनिकों को अनुशासित बनाने के लिये उनका वेतन बढ़ा दिया गया। अश्व सेना तथा पैदल सेना का समुचित संगठन किया गया। यद्यपि बलबन तथा इमादुल्मुल्क ने सेना में बड़ा परिवर्तन नहीं किया परन्तु अच्छे वेतन एवं कठोर अनुशासन से सेना में नई स्फूर्ति का संचार हुआ।
(4.) दुर्गों का निर्माण एवं जीर्णोद्धार: बलबन के शासन काल में विद्रोहों के फूट पड़ने तथा मंगोलों के आक्रमण का सदैव भय लगा रहता था। इसलिये बलबन ने पुराने दुर्गों का जीर्णोद्धार करवाया। सीमा प्रदेश में उन मार्गों पर नये दुर्गों का निर्माण करवाया जिन मार्गों से होकर मंगोल भारत पर आक्रमण करते थे।। इन दुर्गों में योग्य तथा अनुभवी सेनापतियों के नेतृत्व में सशस्त्र सेनाएँ रखी गईं। सेनाओं को अच्छे शस्त्र उपलब्ध करवाये गये। इस प्रकार बाह्य आक्रमणों को रोकने एवं आंतरिक विद्रोहों का दमन करने के लिये बलबन ने समुचित व्यवस्था की।
(5.) निष्पक्ष न्याय व्यवस्था: बलबन के लिये सुल्तान तथा सल्तनत का हित सर्वोपरि था। इसलिये वह अपने सम्बन्धियों को दण्डित करने में भी संकोच नहीं करता था। वह किसी की भी मनमानी सहन नहीं करता था। बलबन ने बदायूं के सूबेदार मलिक बकबक को और अवध के इक्तादार हैबात खाँ को अपने नौकरों के साथ दुर्व्यवहार के अपराध में कठोर दण्ड दिये। इससे लोगों में सुल्तान का भय बैठ गया। अब वे अपने नौकरों तथा गुलामों के साथ भी दुर्व्यवहार करने का साहस नहीं करते थे। सल्तनत में अपराधों तथा अत्याचारों का पता लगाने के लिये बलबन ने एक मजबूत गुप्तचर विभाग का गठन किया। ये गुप्तचर सुल्तान को समस्त प्रकार के अत्याचारों तथा अन्यायों की सूचना देते थे। अपराध के सिद्ध हो जाने पर अपराधी को बिना किसी पक्षपात के दण्ड दिया जाता था।
(6.) योग्य एवं कुलीन लोगों को राजकीय नौकरियाँ: बलबन ने शासन व्यवस्था को मजबूत बनाने के लिये योग्य तथा प्रतिभावान व्यक्तियों को राजकीय सेवा में नियुक्त किया। बड़ी नौकरियां देते समय वह व्यक्ति के उच्च कुलीन होने पर जोर देता था। वह हिन्दुओं तथा निम्न कुलीन वंश के मुसलमानों को राज्य में उच्च-स्थान नहीं देता था।
(7.) मजबूत गुप्तचर व्यवस्था: सुल्तान ने समस्त प्रान्तों तथा जिलों में गुप्तचर रखे। जिनके माध्यम से बलबन को राजधानी तथा अन्य प्रान्तों की महत्वपूर्ण घटनाओं, अमीरों के कुचक्रों, षड़यंत्रों एवं विद्राहों की सूचनाएँ मिलती थीं। गुप्तचरों को अच्छा वेतन मिलता था और उनकी निष्ठा का परीक्षण होता रहता था। कर्त्तव्य भ्रष्ट गुप्तचरांे को कठोर दण्ड दिया जाता था।
(8.) ऐश्वर्य एवं गौरव पूर्ण दरबार: बलबन का दरबार सम्पूर्ण एशिया में अपने ऐश्वर्य एवं गौरव के लिए प्रसिद्ध था। सुल्तान महंगे एवं सुन्दर वस्त्र पहन कर दरबार में आता था। अमीर, मलिक एवं अन्य दरबारी भी करीने से वस्त्र पहनकर दरबार में आ सकते थे। दरबार में हँसना, बातें करना तथा बिना अदब के खड़े होना मना था। सुल्तान स्वयं भी दरबार में नहीं हँसता था। इस कारण दूसरों को हँसने का साहस ही नहीं होता था।
(9.) उच्च नैतिक स्तर: बलबन उच्च नैतिक स्तर में विश्वास रखता था। उसे दुष्ट तथा अशिष्ट लोगों से घृणा थी। वह ऐसे लोगों की संगति कभी नहीं करता था। उसने स्वयं मद्यपान त्याग दिया था और राज्य में मदिरा का क्रय-विक्रय बंद कर दिया था। वह प्रजा के नैतिक स्तर को ऊँचा उठाना चाहता था और अपराधी का दमन बड़ी कठोरता से करता था इस काम में प्रायः क्रूरता भी हो जाती थी।
(10.) कला तथा साहित्य को प्रोत्साहन: बलबन को फारसी कला तथा साहित्य से प्रेम था। वह फारसी साहित्य का आश्रयदाता था। कवि अमीर खुसरो को उसकी विशेष कृपा प्राप्त थी। मंगोलों के अत्याचारों से आतंकित होकर दिल्ली आने वाले फारसी कवियों को बलबन का आश्रय प्राप्त होता था।
बलबन की मृत्यु
1285 ई. में मंगोलों ने तैमूर खाँ के नेतृत्व में फिर भारत पर आक्रमण किया। शहजादे मुहम्मद ने मंगोलों का रास्ता रोका। मंगोल पराजित होकर भाग गये किंतु शाहजादा मुहम्मद मारा गया। शाहजादे की मृत्यु से बलबन को करारा आघात लगा। लगभग 1287 ई. के मध्य में बलबन की भी मृत्यु हो गई।
बलबन का चरित्र और उसके कार्यों का मूल्यांकन
बलबन का उत्कर्ष उस युग की एक बड़ी घटना थी जिसने न केवल भारत अपितु मध्य एशिया तक के राजनीतिक घटनाक्रम को प्रभावित किया था।
(1) शारीरिक कुरूपता: बलबन का शरीर मजबूत था किंतु उसकी कद काठी सुंदर नहीं थी। उसका कद छोटा और रंग काला था। उसके चेहरे पर चेचक के दाग थे। उसकी भद्दी सूरत के कारण इल्तुतमिश ने उसे खरीदने से मना कर दिया था। तब बलबन ने विनम्र भाव से कहा था कि जहाँपनाह जहाँ आपने इतने गुलाम अपने लिये खरीदे हैं, तो ईश्वर के लिये मुझे खरीद लीजिये। उसकी कुरूपता के कारण ही बलबन को भिश्ती का काम सौंपा गया था।
(2) भाग्य का प्राबल्य: बलबन को बचपन में परिवार के सदस्यों ने ईर्ष्यावश गुलाम बनाकर बेच दिया किंतु वह प्रबल भाग्य का धनी था। इस कारण उसे बुखारा, गजनी तथा दिल्ली जैसे शहरों में बेचा गया जहाँ भाग्य के उत्कर्ष के लिये अनेक मार्ग खुले हुए थे। यह बलबन के भाग्य का ही प्राबल्य था कि उसे ख्वाजा जमालुद्दीन तथा इल्तुतमिश जैसे मालिकों ने खरीदा। इससे उसके उत्कर्ष के मार्ग खुल गये। उसे शिक्षित होने तथा राजकृपा प्राप्त करने का अवसर मिला। भाग्य के बल पर वह निरंतर आगे बढ़ता चला गया। उसने रजिया तथा मसूदशाह को तख्त से उतारने के अभियानों में भाग लिया। भाग्य से दोनों बार उसके पक्ष का शहजादा विजयी होकर तख्त पर बैठा। इससे बलबन का उत्कर्ष तेजी से हुआ। नासिरुद्दीन ने बलबन को राज्य का प्रधानमंत्री तथा अपना उत्तराधिकारी बनाया।
(3) अतुल्य स्वामिभक्ति: यद्यपि वह दो सुल्तानों के प्रति हुई बगावत में सक्रिय रहा था किंतु जब सुल्तान नासिरुद्दीन ने उसे प्रधानमंत्री बना दिया तो वह सुल्तान के प्रति पूर्णतः स्वामिभक्त हो गया। सुल्तान नासिरुद्दीन ने जब नाराज होकर उसे दिल्ली से निकाल दिया तब भी बलबन ने धैर्य से काम लिया तथा सुल्तान के आदेश का पालन किया। इससे उसके प्रति सुल्तान का विश्वास बढ़ गया।
(4) अकाट्य कूटनीति: बलबन में कूटनीति से काम लेने की क्षमता थी। जब सुल्तान नासिरुद्दीन ने उसे प्रधानमंत्री के पद से हटाकर हांसी भेज दिया तो उसने विद्रोह का मार्ग न अपनाकर चुपचाप सुल्तान का आदेश स्वीकार कर लिया तथा भाग्य को अपने पक्ष में होने की प्रतीक्षा करने लगा। जब भाग्यवश उसे पुनः दिल्ली में बुलाकर पुराने पद पर बहाल किया गया तो उसने सुल्तान को पूरी तरह से अपने पक्ष में करने के लिये अपनी पुत्री का विवाह सुल्तान से कर दिया। इससे दरबार में अन्य कोई अमीर उसे चुनौती देने योग्य नहीं रहा।
(5) इस्लाम पर विश्वास: बलबन अपने व्यक्तिगत एवं सार्वजनिक जीवन में इस्लाम के सिद्धांतों का पालन करता था। वह इस्माल के प्रचार, तुर्की रक्त की उच्चता, तथा सुल्तान की सर्वोच्चता में विश्वास करता था। उसने इस्लाम के सिद्धांतों के आधार पर अपने राज्य का गठन किया।
(6) संकीर्ण रूढ़िवाद: इस्लाम में विश्वास करने के कारण वह हिन्दुओं को राज्य में उच्च स्थान दिये जाने के विरुद्ध था। उसने उन हिन्दुओं को भी अमीरों के पद से हटा दिया जो राज्य पद प्राप्त करने के लिये इस्लाम अपना कर मुसलमान बन गये थे।
(7) उलेमाओं पर नकेल: इस्लाम में विश्वास करने के कारण वह उलेमाओं का बहुत आदर करता था तथा तब तक भोजन नहीं करता था जब तक कि एक दर्जन उलेमा उसके साथ बैठकर भोजन नहीं कर रहे हों। इस पर भी उसने उलेमाओं को शासन में हस्तक्षेप करने से रोक दिया। इस कारण दरबार में होने वाले षड़यंत्रों एवं कुचक्रों पर रोक लग गई।
(8) फारसी साहित्य से लगाव: बलबन में फारसी सहित्य के प्रति लगाव था। उसने मंगोलों के भय से भागकर दिल्ली आने वाले फारसी साहित्यकारों को अपने दरबार में प्रश्रय दिया। फारसी कवि अमीर खुसरो को उसने बहुत आदर दिया।
(9) राजत्व में विश्वास: बलबन का पिता दस हजार परिवारों का खान था। इसलिये बलबन ने बचपन से ऐश्वर्य तथा प्रभुत्व देखा था। ख्वाजा जलालुद्दीन तथा इल्तुतमिश जैसे मालिकों के सानिध्य में भी वह ऐश्वर्य तथा सत्ता के बीच पला। इस कारण वह स्वयं को श्रेष्ठ एवं दूसरों से उच्चतर समझता था। यही कारण था कि वह राजत्व के सिद्धान्त का निरूपण कर सका। उसने सुल्तान को, सल्तनत के अन्य अमीरों की अपेक्षा इतना ऊँचा उठा दिया कि कोई अमीर सुल्तान की अवहेलना करने अथवा बराबरी करने की तो दूर, उसकी ओर आँख उठाकर नहीं देख सकता था। इससे सल्तनत में सुल्तान की स्थिति अत्यंत प्रबल हो गई। उसके द्वारा प्रतिपादित राजत्व के आदर्शों तथा सिद्धान्तों ने आगे चलकर अलाउद्दीन खिलजी तथा मुहम्मद तुगलक जैसे प्रबल तुर्क शासकों का पथ-पदर्शन किया।
(10) शासन में कठोरता का समावेश: बलबन ने अपने युग की विध्वंसकारी शक्तियों से निबटने के लिये शासन में कठोरता की नीति का समावेश किया। उसने विरोधियों तथा राज्यद्रोहियों को कठोर दण्ड दिये। उसका न्याय विधान बड़ा कठोर था। वह बिना किसी भेद-भाव के अपराधियों को कठोर दण्ड देता था।
(11) दूरदृष्टि: बलबन ने भविष्य में आने वाले संकटों का सामना करने के लिेय दूरदृष्टि से काम लिया। उसने सीमांत प्रदेशों की सुरक्षा के लिये नये दुर्ग बनवाये एवं पुराने दुर्गों की मरम्मत करवाकर वहाँ सेनाएं नियुक्त कीं। उसने अयोग्य लोगों को सेवा से हटा दिया। बूढ़े अमीरों के स्थान पर उनके युवा पुत्रों को सेवा में रखा। बलबन ने अपने जीवन-काल में ही अपने योग्य पुत्र मुहम्मद को अपना उत्तराधिकारी घोषित कर दिया परन्तु दुर्भाग्यवश उसकी युद्ध क्षेत्र में मृत्यु हो गई। इसके बाद बलबन ने बुगरा खाँ को अपना उत्तराधिकारी बनाया और उसके बंगाल चले जाने पर अपने बड़े पुत्र मुहम्मद के पुत्र खुसरो को अपना उत्तराधिकारी नियुक्त किया।
बलबन के चरित्र एवं कार्यों का मूल्यांकन करते हुए डॉ. ईश्वरी प्रसाद ने लिखा है- ‘बलबन का चालीस वर्षों का क्रियाशील जीवन मध्यकालीन भारत के इतिहास में अनूठा है। उसने राजपद के गौरव को बढ़ाया और लौह तथा रक्त की नीति का अनुसरण कर शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित की।’
बलबन का इतिहास में स्थान
बलबन का मध्यकालीन भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान है। उसका एक साधारण व्यक्ति से शक्तिशाली शासक बन जाना इस बात का प्रमाण है कि वह असाधारण प्रतिभा का स्वामी था।
ईश्वरी प्रसाद का मत है- ‘बलबन जिने अपनी वीरता तथा दूरदर्शिता से मुस्लिम राज्य को विपत्ति काल में नष्ट होने से बचाया, मध्ययुगीन भारतीय इतिहास में वह सदैव एक महान् व्यक्तित्व रहेगा।’
प्रो. हबीबुल्ला का मत है- ‘बलबन ने बड़ी सीमा तक खिलजी राज्य व्यवस्था की पृष्ठभूमि का निर्माण किया।’
अवध बिहारी पाण्डेय के अनुसार- ‘यदि हम बलबन के कार्य को एक शब्द में व्यक्त करना चाहें तो वह है-सुदृढ़ीकरण। यही उसकी नीति का मूल मंत्र था।’
डॉ. ए. एल. श्रीवास्तव में लिखा है- ‘बलबन ने तुर्की सल्तनत की रक्षा का सुचारु प्रबन्ध किया और उसे नया जीवन प्रदान किया। यही उसका सबसे महान् कार्य था। उसने सुल्तान की प्रतिष्ठा का पुररुस्थान किया। यह उसकी दूसरी सफलता थी। राज्य में सर्वत्र पूर्ण शांति और व्यवस्था की स्थापना करना उसका महत्वपूर्ण कार्य था। उस युग में तुर्की सल्तनत को जिन कठिनाइयों और संकटों का सामना करना पड़ा, उनको देखते हुए यह मानना पड़ेगा कि बलबन की सफलताएं साधारण कोटि की न थीं।’