दक्षिण भारत के राज्य
भारतवर्ष के मध्य भाग में पूर्व से पश्चिम दिशा की ओर, विन्ध्याचल पर्वत श्ृंखला स्थित है। प्राचीन काल में विन्ध्याचल पर्वत तथा इसके निकट का भूभाग घने वनों से आच्छादित था, जिसे पार करना अत्यन्त दुष्कर था। इस पर्वत के लगभग समानांतर नर्मदा नदी पूर्व से पश्चिम की ओर बहती है। विन्ध्याचल पर्वत तथा नर्मदा नदी के उत्तर में स्थित भूभाग उत्तरापथ अथवा उत्तर भारत कहलाता है और दक्षिण में स्थित भूभाग दक्षिणापथ अथवा दक्षिण भारत कहलाता है। प्राचीन काल में जब यातायात के साधनों की बड़ी कमी थी और मार्ग बड़े ही दुर्गम थे तब उत्तर भारत से दक्षिण भारत में जाना बहुत कठिन था। इस कारण काफी लम्बे समय तक आर्य अपनी सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार उत्तर भारत में और अनार्य अपनी सभ्यता तथा संस्कृति का विकास दक्षिण भारत में करते रहे। जब आर्य लोग सम्पूर्ण उत्तरी भारत में अपनी सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार कर चुके, तब उन्होंने दक्षिण भारत में भी प्रवेश किया और वहाँ पर भी अपनी सभ्यता तथा संस्कृति का प्रचार करना आरम्भ कर दिया। प्रारंभ में इस कार्य को ऋषियों ने आरम्भ किया। कालान्तर में बहुत से महत्त्वाकांक्षी राजकुमार भी दक्षिण भारत में गये। उन्होंने वहाँ पर अपने राज्य स्थापित कर लिये। गुप्त साम्राज्य के पतन के उपरान्त जब उत्तरी भारत में विश्ृंखलता आरम्भ हुई, ठीक उसी समय दक्षिण भारत में भी छोटे-छोटे राज्य स्थापित हो गये।
पल्लव वंश
दक्षिण के राज्यों में पल्लव वंश का बहुत बड़ा महत्त्व है। इस वंश ने दक्षिण भारत पर लगभग 500 वर्ष तक शासन किया। इस वंश का उदय लगभग 350 ई. में चोड अथवा चोल देश के पूर्वी समुद्र तट पर हुआ। इस वंश का प्रथम शासक चोल राजा का पुत्र था और उसकी माता नाग राजकुमारी थी। कहा जाता है नाग राजकुमारी की जन्मभूमि मणिपल्लवम् के ही नाम पर इस वंश का नाम पल्लव पड़ा है। इन लोगों ने काँची अथवा कांजीवरम् को अपनी राजधानी बना लिया और वहीं से शासन करने लगे। जिस समय गुप्त सम्राट् समुद्रगुप्त ने दक्षिण भारत पर आक्रमण किया, उन दिनों कांची में विष्णुगोप नामक राजा शासन कर रहा था। उसे समुद्रगुप्त ने युद्ध में परास्त कर दिया। इस वंश के प्रारम्भिक इतिहास का ठीक-ठीक पता नहीं चलता है।
सिंहविष्णु: पल्लव वंश का राजा सिहंविष्णु 575 ई. में सिंहासन पर बैठा। उसके शासन काल से इस वंश के निश्चित इतिहास का पता चलता है। सिंहविष्णु शक्तिशाली सम्राट् था। उसने पड़ोसी राज्यों पर विजय प्राप्त कर अपने साम्राज्य का विस्तार किया। उसने सम्भवतः श्रीलंका के राजा पर भी विजय प्राप्त की। उसने 600 ई. तक शासन किया।
महेन्द्रवर्मन (प्रथम): सिंहविष्णु के बाद उसका पुत्र महेन्द्रवर्मन (प्रथम) सिंहासन पर बैठा। उसका शासन काल 600 ई. से 625 ई. माना जाता है। चालुक्य राजा पुलकेशिन् (द्वितीय) ने उसके राज्य पर आक्रमण करके उसे परास्त कर दिया। इससे पल्लवों की प्रतिष्ठा को बड़ा धक्का लगा। महेन्द्रवर्मन प्रारम्भ में जैन धर्म का अनुयायी था परन्तु बाद में शैव हो गया था। उसने बहुत से मन्दिरों का निर्माण करवाया।
नरसिंहवर्मन (प्रथम): महेन्द्रवर्मन के बाद उसका पुत्र नरसिंहवर्मन (प्रथम) शासक हुआ। उसने 625 ई. से 645 ई. तक शासन किया। वह प्रतापी शाासक हुआ। उसने चालुक्यों पर आक्रमण करके उनकी राजधानी वातापी पर अधिकार कर लिया। इस प्रकार उसने चालुक्यों से अपने पिता की पराजय का बदला लिया। इस विजय से पल्लवों की प्रतिष्ठा में बड़ी वृद्धि हुई। अब वे दक्षिण के राज्यों में सर्वाधिक शक्तिशाली समझे जाने लगे। नरसिंहवर्मन के ही शासन-काल में चीनी यात्री ह्वेनसांग कांची आया। ह्वेनसांग ने कांची के विषय में लिखा है कि वह एक विशाल नगर था और उसमें हजारों बौद्ध भिक्षु रहते थे।
महेन्द्रवर्मन (द्वितीय): नरसिंहवर्मन के बाद महेन्द्रवर्मन (द्वितीय) पल्लवों का शासक हुआ। उसके राज्य काल की घटनाओं के विषय में अधिक ज्ञात नहीं होता है। उसका शासनकाल केवल दो साल के लिये था। उसके शासन में चालुक्य शासक विक्रमादित्य (प्रथम) ने आक्रमण किया। इस युद्ध में महेन्द्रवर्मन परास्त हो गया।
परमेश्वरवर्मन (प्रथम): महेन्द्रवर्मन (द्वितीय) के बाद परमेश्वरवर्मन (प्रथम) सिंहासन पर बैठा। उसके शासन काल में 655 ई. में चालुक्य राजा विक्रमादित्य (प्रथम) ने पल्लव राज्य पर आक्रमण कर उसकी राजधानी कांची पर अधिकार कर लिया। इस पर भी परमेश्वरवर्मन ने हार नहीं मानी तथा विक्रमादित्य को अपनी राजधानी काँची छोड़कर जाने पर विवश कर दिया।
नरसिंहवर्मन (द्वितीय): परमेश्वरवर्मन के बाद नरसिंहवर्मन (द्वितीय) शासक हुआ। उसने राजसिंह की उपाधि धारण की। वह अपने राज्य में शान्ति तथा सुव्यवस्था स्थापित करने में सफल रहा। कांची के कैलाशनाथ मन्दिर का निर्माण उसी ने करवाया था। वह साहित्यानुरागी शासक था।
नन्दिवर्मन (द्वितीय): पल्लव वंश का अन्तिम शक्तिशाली शासक नन्दिवर्मन था। उसने चालुक्यों के साथ सफलतापूर्वक युद्ध किया और कांची पर अधिकार कर लिया। उसने राष्ट्रकूटों तथा पाण्ड्यों से युद्ध किया। वह वैष्णव धर्म का अनुयायी था। उसने कई वैष्णव मन्दिर बनवाये। नन्दिवर्मन के बाद पल्लव वंश में कोई शक्तिशाली शासक नहीं हुआ।
अपराजितवर्मन: इस वंश का अन्तिम शासक अपराजितवर्मन था, जिसने 876 ई. से 895 ई. तक शासन किया। अन्त में चोलों ने उसे युद्ध में परास्त करके पल्लव वंश का अन्त कर दिया।
पल्लवों की सांस्कृतिक उपलब्धियाँ
भारतीय संस्कृति के विकास में पल्लवों का महत्वपूर्ण योगदान है। यह योगदान भारतीयों के जीवन के हर अंग पर देखा जा सकता है।
भक्ति आंदोलन का जन्म
आठवीं शताब्दी में भारतीय संस्कृति पर छा जाने वाले महान् धार्मिक सुधारों का जन्म पल्लवों के ही शासन काल में हुआ। अधिकांश पल्लव शासक वैष्णव धर्मावलम्बी थे। कुछ पल्लव शासक शैव धर्म में विश्वास रखते थे। इस काल में पल्लवों के प्रभाव से दक्षिण भारत में ब्राह्मण धर्म का बोलबाला हो गया। अनेक पल्लव शासकों ने अश्वमेध, वाजसनेय एवं अग्निष्टोम यज्ञ किये। पल्लवों के प्रभाव से दक्षिण भारत में मूर्ति पूजा, यज्ञ एवं कर्मकाण्डों की स्थापना हुई। प्रजा में हिन्दू धर्म की भक्ति, अवतारवाद एवं अन्य विश्वासों का प्रसार हुआ। पल्लव शासकों ने अनेक धार्मिक ग्रंथों का तमिल भाषा में अनुवाद करवाया तथा अनेक ग्रंथों की तमिल भाषा में रचना करवाई। भक्ति आंदोलन का सूत्रपात दक्षिण भारत से ही हुआ। भागवत पुराण के अनुसार भक्ति द्रविड़ देश में उपजी, कर्नाटक में विकसित हुई तथा कुछ काल तक महाराष्ट्र में रहने के बाद गुजरात में जीर्ण हो गई। दक्षिण के भक्ति आंदोलन को पल्लव एवं चोल शासकों ने संरक्षण प्रदान किया। पल्लवों के शासन काल में शैव आचार्य नायनार तथा वैष्णव आचार्य आलवार ने बौद्ध एवं जैन विद्वानों से शास्त्रार्थ करके उन्हें परास्त किया। इससे दक्षिण में बौद्ध एवं जैन धर्म की जड़ें हिल गईं। नायनारों तथा आलवारों का भक्ति आंदोलन छठी शताब्दी से नौवीं शताब्दी ईस्वी तक चला।
स्थापत्य कला का विकास
आज के तमिल प्रदेश को तब द्रविड़ देश कहा जाता था। पल्लव शासकों ने इस क्षेत्र में जिस स्थापत्य शैली का विकास किया, उसे द्रविड़ शैली कहा जाता है। इस प्रदेश पर पल्लवों ने छठी से दसवीं शताब्दी तक शासन किया। उनके शासन काल की वास्तुकला के उदाहरण उनकी राजधानी कांची तथा महाबलीपुरम् में अधिक पाये जाते हैं। पल्लव कलाकारों ने वास्तुकला को काष्ठ कला एवं गुहाकला से मुक्त किया। पल्लवकालीन कला को चार शैलियों में विभक्त किया जा सकता है-
1. महेन्द्रवर्मन शैली, 2. मामल्ल शैली, 3. राजसिंह शैली तथा 4. नन्दिवर्मन शैली।
महेन्द्रवर्मन शैली: इस शैली का विकास 610 ई. से 640 ई. के मध्य हुआ। इस शैली के मंदिरों को मण्डप कहा जाता है। ये मण्डप साधारण स्तम्भ युक्त बरामदे हैं जिनकी पिछली दीवार में एक या अधिक कक्ष बनाये गये हैं। ये कक्ष कठोर पाषाण को काटकर गुहा मंदिर के रूप में बनाये गये हैं। मण्डप के बाहरी द्वार पर दोनों ओर द्वारपालों की मूर्तियां लगाई गई हैं। मण्डप के स्तम्भ सामान्यतः चौकोर हैं। महेन्द्र शैली के मण्डपों में मण्डगपट्टु का त्रिमूर्ति मण्डप, पल्लवरम् का पंचपाण्डव मण्डप, महेन्द्रवाड़ी का महेन्द्र विष्णुगृह मण्डप, मामण्डूर का विष्णु मण्डप विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
मामल्ल शैली: इस शैली का विकास 640 ई. से 674 ई. तक की अवधि में नरसिंहवर्मन (प्रथम) के शासन काल में हुआ। नरसिंहवर्मन ने महामल्ल की उपाधि धारण की थी इसलिये इस शैली को महामल्ल शैली कहा जाता है। इसी राजा ने मामल्लपुरम् की स्थापना की जो बाद में महाबलीपुरम् कहलाया। इस शैली में दो प्रकार के मंदिरों का निर्माण हुआ है- 1. मण्डप शैली के मंदिर तथा 2. रथ शैली के मंदिर। मण्डप शैली के मंदिर वैसे ही हैं जैसे महेन्द्रवर्मन के काल में बने थे किंतु मामल्ल शैली में उनका विकसित रूप दिखाई देता है। महेन्द्रवर्मन शैली की अपेक्षा मामल्ल शैली के मण्डप अधिक अलंकृत हैं। इनके स्तम्भ सिंहों के शीर्ष पर स्थित हैं तथा स्तम्भों के शीर्ष मंगलघट आकार के हैं। इनमें आदिवराह मण्डप, महिषमर्दिनी मण्डप, पंचपाण्डव मण्डप तथा रामानुज मण्डप विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
रथ शैली के मंदिर विशाल पाषाण चट्टान को काटकर बनाये गये हैं। ये रथ मंदिर, काष्ठ के रथों की आकृतियों में बने हुए हैं। इनकी वास्तुकला मण्डप शैली जैसी है। इन रथों का विकास बौद्ध विहार तथा चैत्यगृहों से हुआ है। प्रमुख रथ मंदिरों में द्रोपदी रथ, अर्जुन रथ, नकुल-सहदेव रथ, भीम रथ, धर्मराज रथ, गणेश रथ, पिडारि रथ आदि हैं। ये सब शैव मंदिर हैं। द्रोपदी रथ सबसे छोटा है। धर्मराज रथ सबसे भव्य एवं प्रसिद्ध है। इसका शिखर पिरामिड के आकार का है। यह मंदिर दो भागों में है। नीचे का खण्ड वर्गाकार है तथा इससे लगा हुआ संयुक्त बरामदा है। यह रथ मंदिर आयताकार तथा शिखर ढोलकाकार है। मामल्ल शैली के रथ मंदिर अपनी मूर्तिकला के लिये भी प्रसिद्ध हैं। इन रथों पर दुर्गा, इन्द्र, शिव, गंगा, पार्वती, हरिहर, ब्रह्मा, स्कन्द आदि देवी-देवताओं की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। नरसिंहवर्मन (प्रथम) के साथ ही इस शैली का भी अंत हो गया।
3. राजसिंह शैली: नरसिंहवर्मन (द्वितीय) ने राजसिंह की उपाधि धारण की थी। इसलिये उसके नाम पर इस शैली को राजसिंह शैली कहा जाता है। महाबलीपुरम् में समुद्रतट पर स्थित तटीय मंदिर और कांची में स्थित कैलाशनाथ मंदिर तथा बैकुण्ठ पेरुमाल मंदिर इस शैली के प्रमुख मंदिर हैं। इनमें महाबलीपुरम् का तटीय शिव मंदिर पल्लव स्थापत्य एवं शिल्प का अद्भुत स्मारक है। यह मंदिर एक विशाल प्रांगण में बनाया गया है जिसका गर्भगृह समुद्र की ओर है तथा प्रवेश द्वार पश्चिम की ओर। इसके चारों ओर प्रदक्षिणा पथ तथा सीढ़ीदार शिखर है। शीर्ष पर स्तूपिका निर्मित है। इसकी दीवारों पर गणेश तथा स्कंद आदि देवताओं और गज एवं शार्दुल आदि बलशाली पशुओं की मूर्तियां उत्कीर्ण हैं। कांची के कैलाशनाथ मंदिर में राजसिंह शैली का चरमोत्कर्ष दिखाई देता है। इसका निर्माण नरसिंहवर्मन (द्वितीय) के शासन काल में आरंभ हुआ तथा उसके उत्तराधिकारी महेन्द्रवर्मन (द्वितीय) के शासनकाल में पूर्ण हुआ। द्रविड़ शैली की समस्त विशेषतायें इस मंदिर में दिखाई देती हैं। मंदिर में शिव क्रीड़ाओं को अनेक मूर्तियों के माध्यम से अंकित किया गया है। इस मंदिर के निर्माण के कुछ समय बाद ही बैकुण्ठ पेरुमल का मंदिर बना। इसमें प्रदक्षिणा-पथ युक्त गर्भगृह है तथा सोपान युक्त मण्डप है। मंदिर का विमान वर्गाकार तथा चार मंजिला है जिसकी ऊँचाई लगभग 60 फुट है। प्रथम मंजिल में भगवान विष्ण के विभिन्न अवतारों की मूर्तियां हैं। मंदिर की भीतरी दीवारों पर राज्याभिषेक, उत्तराधिकार चयन, अश्वमेध, युद्ध एवं नगरीय जीवन के दृश्य अंकित किये गये हैं। यह मंदिर पल्लव वास्तुकला का पूर्ण विकसित स्वरूप प्रस्तुत करता है।
4. नन्दिवर्मन शैली: इस शैली के मंदिरों में वास्तुकला का कोई नवीन तत्व दिखाई नहीं देता किंतु आकार-प्रकार में ये निरंतर छोटे होते हुए दिखाई देते हैं। इस शैली के मंदिर, पूर्वकाल के पल्लव मंदिरों की प्रतिकृति मात्र हैं। ये मंदिर नंदिवर्मन तथा उसके उत्तराधिकारियों के शासन में बने थे। इस शैली के मंदिरों में स्तम्भ शीर्षों में कुछ विकास दिखाई देता है। इस शैली के मंदिरों में कांची के मुक्तेश्वर तथा मातंगेश्वर मंदिर तथा गुड़ीमल्लम का परशुरामेश्वर मंदिर उल्लेखनीय हैं। इनमें सजीवता का अभाव है। इससे अनुमान होता है कि इन मंदिरों के निर्माता किसी संकट में थे। दसवीं शताब्दी के अंत तक इन मंदिरों का निर्माण लगभग बंद हो गया।
साहित्य का विकास
पल्लव शासन में संस्कृत तथा तमिल भाषाओं के साहित्य का उन्न्यन हुआ। पल्लवों के समय नायनार तथा आलवार संतों के भक्ति आंदोलन ने वैष्णव साहित्य तथा तमिल भाषा के विकास में अपूर्व योगदान किया। अधिकांश पल्लव शासक विद्यानुरागी थे। उन्होंने कवियों और साहित्यकारों को राज्याश्रय दिया। पल्लवों की राजधानी कांची अत्यंत प्राचीन काल से ही संस्कृत विद्या के केन्द्र के रूप में विख्यात रही। पतंजलि के महाभाष्य से ज्ञात होता है कि मौर्य काल में भी कांची की ख्याति दूर-दूर तक विस्तृत थी। छठी शताब्दी ईस्वी के अंतिम दिनों में सिंहविष्णु ने संस्कृत के विद्वान भारवि को अपने दरबार में आमंत्रित किया। उस समय भारवि कांची में गंगराज दुर्विनीत के साथ रह रहे थे। भारवि ने अपने प्रसिद्ध ग्रंथ किरातार्जुनीय की रचना इसी समय की। माहुर अभिलेख के अनुसार किसी वैदिक विद्यालय की सहायता के लिये राज्य की ओर से तीन ग्राम दान में दिये गये थे।
राजा महेन्द्रवर्मन (प्रथम) अपने समय का महान लेखक था। उसने मत्तविलासप्रहसन नामक ग्रंथ की रचना की। इस ग्रंथ में तत्कालीन समाज एवं संस्कृति का वर्णन मिलता है। सम्पूर्ण नाटक हास्य तथा विनोद से सम्पन्न है। राजा महेन्द्रवर्मन (प्रथम) शैव था। उसने बौद्ध धर्म पर सुनीतिपूर्ण आक्रमण किया। उसकी शैली सरल तथा ललित है। अनेक स्थलों पर उसने काव्य शक्ति का चमत्कार दिखाया है। छंदों के प्रयोग में उसने विशेष प्रतिभा का परिचय दिया है। राजा महेन्द्रवर्मन ने नृत्य कला पर भी पुस्तक लिखी। उसने चित्रकला तथा संगीत के सिद्धांतों की व्याख्या करने के लिये दक्षिणचित्र नामक ग्रंथ की रचना की। पल्लव नरेश नरसिंहवर्मन भी उच्च कोटि का विद्यानुरागी था। उसकी राजसभा में दशकुमारचरितम् के रचयिता दण्डी रहते थे। पल्लव शासकों के अधिकांश लेख संस्कृत भाषा में उत्कीर्ण हैं।
निष्कर्ष: इस प्रकार पल्लवों का भारतीय संस्कृति के उन्नयन में महत्वपूर्ण योगदान है। पल्लवों की वास्तुकला भारतीय इतिहास में महत्वपूर्ण स्थान रखती है। पल्लवों ने बौद्ध चैत्यों से विरासत में प्राप्त कला का विकास करके नवीन शैलियों को जन्म दिया जो चोल एवं पाण्ड्य काल में पूर्ण विकसित हो गईं। पल्लव कला की विशेषतायें दक्षिण-पूर्वी एशिया तक विस्तृत हुईं। पल्लवों ने कला, साहित्य एवं संस्कृति के क्षेत्र में भारत को बहुत कुछ दिया। उनकी कला का प्रभाव भारत से बाहर अन्यान्य द्वीपों की कला, साहित्य एवं संस्कृति पर भी पड़ा।