Sunday, December 22, 2024
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शाहे बेखबर

बादशाह शाहआलम (प्रथम) को बहादुरशाह (प्रथम) तथा शाहे बेखबर भी कहा जाता है। बादशाह शाहआलम (प्रथम) को बहादुरशाह (प्रथम) तथा शाहे बेखबर भी कहा जाता है। उसके बाप-दादे सुन्नी मुसलमान थे किंतु शाहे बेखबर अपने बाप औरंगजेब से इतनी घृणा करता था कि शाहे बेखबर ने स्वयं को शिया घोषित कर दिया। इस कारण शाहे बेखबर का दरबार शिया और सुन्नी में बंट गया!

औरंगजेब के पुत्र मुअज्जमशाह ने जजाऊ के युद्ध में अपने भाई आजमशाह तथा उसके तीनों पुत्रों को मारकर दिल्ली एवं आगरा पर पूरी तरह अधिकार कर लिया। हालांकि औरंगजेब के तीसरे पुत्र कामबख्श ने भी स्वयं को बीजापुर में बादशाह घोषित कर दिया था किंतु जब जजाऊ के युद्ध में मुअज्जम और आजम तलवार के जोर पर अपने भाग्यों का फैसला कर रहे थे, तब कामबख्श बीजापुर में चुपचाप बैठा रहा।

जजाऊ युद्ध की विजय के बाद मुअज्जम शाह ने स्वयं को बहादुरशाह के नाम से मुगलों का बादशाह घोषित कर दिया। इस अवसर पर उसने अपने समर्थकों को नई पदवियाँ तथा ऊंचे दर्जे प्रदान किए। उसने लाहौर के नायब सूबेदार मुनीम ख़ाँ को अपना वज़ीर नियुक्त किया जिसने हर मुश्किल समय में बहादुरशाह का साथ दिया था और जजाऊ की जीत का सेहरा उसी की सेवाओं के कारण बहादुरशाह के सिर पर सज सका था।

मरहूम बादशाह औरंगज़ेब के वज़ीर असद ख़ाँ तथा उसके बेटे ज़ुल्फ़िक़ार ख़ाँ ने जजाऊ के मैदान में शहजादे आजमशाह का साथ दिया था किंतु मुअज्जमशाह ने उन दोनों को क्षमा कर दिया तथा उनके द्वारा औरंगजेब के समय सल्तनत को दी गई सेवाओं को स्मरण ररखते हुए पुरस्कृत किया।

बादशाह ने असद खाँ को वकील-ए-मुतलक़ तथा उसके बेटे ज़ुल्फ़िक़ार ख़ाँ को मीर बख्शी नियुक्त किया। इतने महत्वपूर्ण पदों पर अपने शत्रु पक्ष के अमीरों की नियुक्तियों को बहादुरशाह की दूरदृष्टि एवं उदारता के उदाहरण के रूप में देखा जाना चाहिए।

बहादुरशाह ने अपनी ताजपोशी के समय स्वयं को शिया मुसलमान घोषित कर दिया था। मुगलिया सल्तनत के हिसाब से यह एक आश्चर्यजनक बात थी क्योंकि उससे पहले कोई भी मुगल शासक शिया नहीं था। फिर भी भारत के मुगल बादशाह इस मामले में उदार थे और वे शिया शहजादियों से विवाह करते आए थे तथा शिया योद्धाओं को निःसंकोच अपना मंत्री एवं सेनापति बनाते रहे थे।

पूरे आलेख के लिए देखें यह वी-ब्लॉग-

औरंगजेब का चरित्र इस मामले में बड़ा विचित्र था। औरंगजेब की प्रमुख बेगम दिलरास बानो ईरान के शाही वंश की शहजादी थी जो कि शिया मत का अनुयाई था। औरंगजेब का प्रमुख वजीर असद खाँ भी शिया था किंतु औरंगजेब ने न केवल असद खाँ को अपना सबसे विश्वसनीय वजीर बना रखा था अपितु उसके पुत्र जुल्फिकार खाँ को भी शासन में महत्वपूर्ण पद दे रखा था। जबकि दूसरी ओर औरंगजेब शियाओं से इतनी घृणा करता था कि उन्हें कुफ्र मानता था। यहाँ तक कि वह दक्षिण के मुस्लिम राज्यों को केवल इसीलिए नष्ट कर देना चाहता था क्योंकि वे सुन्नी नहीं थे, शिया थे।

मुअज्जमशाह ने बादशाह बनते समय शिया मत क्यों ग्रहण किया, इस सम्बन्ध में ऐतिहासिक विवरण प्राप्त नहीं होता है किंतु कुछ ऐतिहासिक तथ्यों पर ध्यान दिए जाने से इस विषय पर तस्वीर कुछ स्पष्ट होने लगती है। मुअज्जमशाह की माँ नवाब बाई एक हिन्दू स्त्री थी, वह औरंगजेब की दूसरी बेगम थी।

उसकी कोख से औरंगजेब के सबसे बड़े पुत्र सुल्तान मुहम्मद तथा दूसरे नम्बर के पुत्र मुअज्जमशाह का जन्म हुआ था किंतु जब सुल्तान मुहम्मद ने शाहजहाँ के समय हुए उत्तराधिकार के युद्ध में अपने पिता औरंगजेब की बजाय अपने श्वसुर शाहशुजा का साथ दिया था तब से औरंगजेब और नवाबबाई के सम्बन्ध खराब हो गए थे।

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नवाब बाई की इच्छा के विरुद्ध औरंगजेब ने शहजादे सुल्तान मुहम्मद को जीवन भर जेल में डाले रखा था। जब ई.1682 में नवाब बाई के दूसरे पुत्र मुअज्जमशाह ने औरंगजेब से पहली बार विद्रोह किया तो औरंगजेब नवाब बाई से बुरी तरह नाराज हो गया। उसने नवाब बाई के माध्यम से ही मुअज्जमशाह को विद्रोह करने से रोका था और औरंगजेब ने मुअज्जमशाह को जेल में नहीं डाला था।

जब मुअज्जमशाह ने ई.1687 में दूसरी बार औरंगजेब से विद्रोह किया था तो औरंगजेब ने सात साल के लिए मुअज्जमशाह को जेल में डाल दिया तथा उसके बाद उसे लाहौर एवं काबुल का सूबेदार बनाकर स्वयं से लगभग दो हजार किलोमीटर दूर नियुक्त कर दिया। संभवतः यही कारण था कि मुअज्जम को अपने पिता से इतनी घृणा हो गई कि उसने अपने पिता का सुन्नी मत छोड़कर शिया मत अपना लिया था। संभवतः असद खाँ और जुल्फिकार खाँ को महत्वपूर्ण जिम्मेदारियां देने का कारण भी यही रहा होगा कि वे शिया थे।

जब कोई शहजादा या व्यक्ति बादशाह बनता था तो उसके नाम का खुतबा पढ़ा जाता था। प्रत्येक शुक्रवार को सल्तनत की समस्त मस्जिदों में बादशाह के नाम के खुतबे को दोहराया जाता था। मुगल बादशाहों के खुतबे में उन्हें वली कहा जाता था किंतु मुअज्जमशाह अर्थात् बहादुरशाह ने अपने नाम का जो खुतबा पढ़वाया उसमें स्वयं को वली के स्थान पर अली घोषित किया।

इस खुतबे पर सुन्नी मुल्ला-मौलवियों ने बहुत ऐतराज किया किंतु बहादुरशाह ने उनकी एक न सुनी। लाहौर में तो कुछ इमामों ने बादशाह के खिलाफ सेना भी तैयार की किंतु वह कोई कार्यवाही नहीं कर सकी।

भारत के मुगल बादशाहों के दरबार में परम्परागत रूप से सुन्नी अमीरों का बोलबाला था किंतु बहादुशाह के दरबार में शियाओं को प्राथमिकता मिलने लगी इससे दरबारी अमीरों में गुटबंदी तेज हो गई और वे एक दूसरे के विरुद्ध षड्यन्त्र करने लगे। समस्त दरबारी दो दलों में बंट गए जिन्हें ईरानी और तूरानी दल कहा जाता था। ईरानी दल शिया मत को मानने वालों का था जिसमें असद ख़ाँ तथा उसके बेटे जुल्फिकार ख़ाँ जैसे प्रबल अमीर थे। जबकि तूरानी दल सुन्नी मतावलम्बियों का था जिसमें चिनकुलिच ख़ाँ तथा फ़िरोज़ ग़ाज़ीउद्दीन जंग जैसे प्रबल अमीर थे।

बहादुरशाह मुगलों की गद्दी पर बैठने वाला सबसे वृद्ध शासक था। उसका पूर्वज बाबर 11 वर्ष की आयु में, हुमायूँ 22 वर्ष की आयु में, अकबर 14 वर्ष की आयु में, जहांगीर 36 वर्ष की आयु में, शाहजहाँ 36 वर्ष की आयु में तथा औरंगजेब 39 वर्ष की आयु में बादशाह बने थे।

जब बहादुरशाह बना तो उस समय उसकी उम्र 63 वर्ष से अधिक थी। अपने पूर्ववर्ती समस्त मुगल बादशाहों की अपेक्षा वह अत्यन्त उदार था जबकि मुस्लिम इतिहासकारों ने उस पर आलसी तथा उदासीन होने का आरोप लगाया है।

मुगल कालीन इतिहासकार ख़फ़ी ख़ाँ ने लिखा है कि, बादशाह राजकीय कार्यों में इतना अधिक लापरवाह था, कि लोग उसे ‘शाहे-बेख़बर’ कहने लगे थे किंतु इतिहासकारों का यह आरोप सही नहीं लगता है। उसके शासनकाल में सिक्खों ने बंदा बहादुर के नेतृत्व में, राजपूतों ने दुर्गादास के नेतृत्व में तथा मुसलमानों ने कामबख्श के नेतृत्व में विद्रोह किए किंतु उन सभी विद्रोहों को सफलता पूर्वक दबा दिया गया।

-डॉ. मोहनलाल गुप्ता

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