मुगल बादशाह फर्रुखसीयर ने महाराजा अजीतसिंह से दुश्मनी बांध ली तथा एक दिन महाराजा अजीसिंह की हत्या करने उसके डेरे पर पहुंच गया!
मुगल बादशाह फर्रूखसियर एवं जोधपुर के महाराजा अजीतसिंह के बीच सम्बन्ध शुरु से ही विचित्र प्रकार के रहे। जब ई.1713 में फर्रूखसियर बादशाह बना तो महाराजा अजीतसिंह ने फर्रूखसियर को बधाई का पत्र एवं एक हजार रुपए नजर के रूप में भिजवाए। फर्रूखसियर ने महाराजा को पांच हजार जात एवं पांच हजार सवार का मनसब दिया तथा उसे अपने दरबार में उपस्थित होने के निर्देश दिए किंतु महाराजा फर्रूखसियर के दरबार में उपस्थित नहीं हुआ।
फर्रूखसियर ने महाराजा को कई बार खिलअतें भेजीं तथा मुगल अधिकारियों को भी जोधपुर भेजा ताकि वे महाराजा को अपने साथ दिल्ली ले आएं किंतु महाराजा फर्रूखसियर के दरबार में नहीं गया। इस कारण फर्रूखसियर महाराजा अजीतसिंह से नाराज हो गया।
महाराजा अजीतसिंह का फर्रूखसियर के दरबार में नहीं जाने का एक विशेष कारण था। औरंगजेब तथा बहादुरशाह के शासन के दौरान वजीर के पद पर कार्य करने वाले जुल्फिकार खाँ ने जहांदारशाह तथा फर्रूखसियर के बीच आगरा के निकट तिलपत में हुए युद्ध में फर्रूखसियर का साथ दिया था किंतु जब फर्रूखसियर बादशाह बन गया तो फर्रूखसियर ने जुल्फिकार खाँ की हत्या करवा दी तथा वह सैयद बंधुओं को भी ठिकाने लगाने का षड़यंत्र करने लगा।
इस कारण महाराजा सोचता था कि फर्रूखसीयर महाराजा अजीतसिंह से दुश्मनी मानता होगा तथा महाराजा अजीतसिंह की भी हत्या करवाएगा। क्योंकि अजीतसिंह अजमेर के मुगल फौजदार को तंग करता रहता था।
महाराजा का सोचना गलत नहीं था क्योंकि फर्रुखसीयर सचमुच ही महाराजा अजीतसिंह से दुश्मनी मानता था। इसके एक नहीं, कई कारण थे।
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महाराजा अजीतसिंह ने मारवाड़ के आसपास के क्षेत्र में गोवध बंद करवा दिया और इस्लाम के प्रचार पर रोक लगा दी। महाराजा ने अजमेर पर भी अधिकार कर लिया। जब फर्रूखसियर ने महाराजा अजीतसिंह को पांच हजारी मनसब दिया तो उसके साथ ही उसे निर्देश भिजवाए थे कि महाराजा मालवा में हो रहे उपद्रवों को रोकने के लिए मालवा जाए किंतु अजीतसिंह वहाँ नहीं गया। इससे फर्रूखसियर ने महाराजा अजीतसिंह के विरुद्ध दुश्मनी बांध ली।
किशनगढ़ एवं नागौर के राज्य जोधपुर राज्य में से ही निकले थे, इसलिए जोधपुर के शासक इन दोनों राज्यों को अपने जागीरदार की तरह समझते थे। इसलिए महाराजा अजीतसिंह ने किशनगढ़ के राजा राजसिंह तथा नागौर के राजा इन्द्रसिंह को अपनी सेवा में उपस्थित होने के आदेश भिजवाए।
किशनगढ़ तथा नागौर के राजाओं ने महाराजा को पत्र लिखकर सूचित किया कि हम मुगल बादशाह के मनसबदार हैं तथा आपके अधीन नहीं हैं। इसलिए हम आपकी सेवा में उपस्थित नहीं होंगे। इस पर महाराजा अजीतसिंह ने उन दोनों को दण्डित करके उनसे भारी रकम वसूल की। इन सब लोगों ने दिल्ली पहुंचकर फर्रूखसियर को महाराजा अजीतसिंह के विरुद्ध भड़काया। इस पर फर्रूखसियर ने महाराजा अजीतसिंह को आदेश भिजवाए कि वह अपने पुत्र अभयसिंह को दिल्ली दरबार में भेजे किंतु महाराजा अजीतसिंह ने राजकुमार अभयसिंह को दिल्ली दरबार में नहीं भेजा तथा आम्बेर नरेश सवाई जयसिंह से सलाह करके बादशाह को लिखा कि मुझे गुजरात की सूबेदारी दी जाए। आम्बेर नरेश ने भी एक पत्र लिखकर बादशाह से मांग की कि मुझे मालवा की सूबेदारी दी जाए।
इस समय तक फर्रूखसियर और सैयदों के सम्बन्ध बहुत खराब हो चुके थे। इसलिए स्वार्थी फर्रूखसियर ने 15 अक्टूबर 1713 को सवाई जयसिंह तथा अजीतसिंह को सात हजारी जात एवं सात हजारी सवार का मनसबदार बनाया। इसके साथ ही उसने सवाई जयसिंह को मालवा का तथा अजीतसिंह को थट्टा का सूबेदार बना दिया।
जब अजीतसिंह को थट्टा की सूबेदारी मिलने की सूचना मिली तो अजीतसिंह बहुत कुपित हो गया। उसे लगा कि बादशाह ने जानबूझकर महाराजा का अपमान किया है क्योंकि सवाई जयसिंह को उसकी इच्छा के अनुसार मालवा की सूबेदारी दे दी गई थी जबकि अजीतसिंह को गुजरात की सूबेदारी की बजाय थट्टा की सूबेदारी दी गई थी जो कि नितांज अनुपजाऊ प्रदेश था।
अतः अजीतसिंह ने थट्टा जाने से मना कर दिया तथा अजमेर पर आक्रमण करके उस पर अधिकार कर लिया। अजीतसिंह के इस कार्य को एक ओर तो बादशाह फर्रूखसियर ने अपना अपमान समझा तो दूसरी ओर सवाई जयसिंह ने भी अपना अपमान समझा। इन दोनों ने महाराजा अजीतसिंह से दुश्मनी ठान ली।
फर्रूखसियर के लिए राजपूताने के केन्द्र में स्थित अजमेर की राजनीतिक स्थिति अत्यधिक महतवपूर्ण थी क्योंकि अजमेर बारहवीं शताब्दी ईस्वी से ही दिल्ली के मुसलमान बादशाहों की प्रांतीय राजधानी बना हुआ था। महाराजा अजीतसिंह द्वारा अजमेर पर कब्जा कर लेने का अर्थ मुगल बादशाह की नाक काट लेने जैसा था।
सवाई जयसिंह के लिए अजमेर का राजनीतिक महत्व इसलिए था क्योंकि वह अजमेर पर अधिकार करके सांभर की नमक की झील पर अधिकार कर सकता था जो उन दिनों राजस्व प्राप्ति का महत्वपूर्ण स्रोत था।
जबकि महाराजा अजीतसिंह के लिए अजमेर का राजनीतिक महत्व इसलिए था क्योंकि शेरशाह सूरी के समय में अजमेर, जोधपुर के राठौड़ों के अधीन हुआ करता था तथा राठौड़ अजमेर को अपनी जागीर समझते थे।
इन सब कारणों से फर्रूखसियर ने अमीर-उल-उमरा अर्थात् सैयद हुसैन अली खाँ को आदेश दिया कि वह अजमेर पर चढ़ाई करके अजीतसिंह को अजमेर से बाहर निकाल दे। सैयद हुसैन अली खाँ ने एक विशाल सेना लेकर अजमेर पर आक्रमण किया। इस सेना ने राठौड़ों को बुरी तरह परास्त किया तथा उनसे अजमेर खाली करवा लिया। इस पर महाराजा अजीतसिंह ने अपने मंत्रियों को सैयद हुसैन अली खाँ के पास भेजकर उससे संधि कर ली।
मिर्जा मुहम्मद द्वारा लिखित रोजनामचा के अनुसार अजीतसिंह ने अजमेर नगर तथा दुर्ग मुगलों को सौंप दिए, अपने पुत्र अभयसिंह को बादशाह की सेवा में दिल्ली भेज दिया तथा अपनी पुत्री इंद्रकुंवरी का विवाह फर्रूखसियर से कर दिया। खफी खाँ, इदरत खाँ एवं अन्य फारसी ग्रंथ इस संधि के होने की पुष्टि करते हैं।
अजितोदय नामक ग्रंथ में लिखा है कि जब सैयद हुसैन अली खाँ मारवाड़ पर चढ़ाई करने के लिए मेड़ता में कैम्प कर रहा था तब फर्रूखसियर ने सैयद हुसैन अली खाँ के बड़े भाई अब्दुल्ला को आगरा में मरवाने का षड़यंत्र किया। इस कारण अब्दुल्ला ने अपने भाई सैयद हुसैन अली खाँ को लिखा कि वह शीघ्र ही दिल्ली लौट आए। इस कारण सैयद हुसैन अली खाँ महाराजा से लड़ने की बजाय संधि करके लौट गया।
इस संधि के बाद फर्रूखसियर ने महाराजा अजीतसिंह को गुजरात की सूबेदारी देकर उससे मित्रता कर ली। मीराते अहमदी नामक एक तत्कालीन ग्रंथ में लिखा है कि जब महाराजा ने गुजरात पर अधिकार किया तो कोल्हापुर के कोतवाल ने महाराजा को प्रसन्न करने के लिए गाय की कुरबानी पर रोक लगा दी। इस कारण वहाँ के मुसलमान भड़क उठे। मुसलमानों की शिकायत पर बादशाह ने कुछ दिन बाद ही अजीतसिंह से गुजरात की सूबेदारी छीन ली।
इसी बीच फर्रूखसियर और सैयदों के सम्बन्ध बेहद खराब हो गए। इसलिए फर्रूखसियर ने महाराजा अजीतसिंह को एक बार पुनः दिल्ली बुलवाया। इस बार महाराजा अजीतसिंह दिल्ली गया किंतु महाराजा को अब भी बादशाह की नीयत पर संदेह था इसलिए महाराजा ने बादशाह के विरोधी खेमे अर्थात् सैयद बंधुओं से मित्रता कर ली। जब अजीतसिंह बादशाह से मिलने के लिए उसके महल में गया तो महाराजा ने सैयद अब्दुल्ला खाँ को अपने हाथी पर बैठा लिया और अब्दुल्ला खाँ के साथ ही बादशाह के सामने पेश हुआ।
अजितोदय में लिखा है कि बादशाह महाराजा अजीतसिंह से अकेले में बात करना चाहता था ताकि महाराजा के माध्यम से सैयदों के विरुद्ध कार्यवाही की जा सके किंतु जब अजीतसिंह सैयद अब्दुल्ला के साथ ही महाराजा के सामने पेश हुआ तो बादशाह महाराजा से इतना अधिक अधिक चिढ़ गया कि उसने महाराजा को पकड़कर मार डालने के प्रयास किए।
बादशाह ने महल में कुछ सिपाहियों को छिपा दिया ताकि सैयद अब्दुल्ला और महाराजा अजीतसिंह की हत्या की जा सके किंतु ये दोनों भी पूरी तरह सतर्क थे इसलिए बादशाह को इस कार्य में सफलता नहीं मिल सकी।
इसके बाद बादशाह ने महाराजा अजीतसिंह से दुश्मनी निकालने तथा उसकी हत्या करने के लिए एक और योजना बनाई। बादशाह फर्रूखसियर शिकार खेलने के बहाने, अपने सैनिकों को साथ लेकर निकटवर्ती जंगल में गया तथा लौटते समय महाराजा अजीतसिंह के पड़ाव के निकट से होकर निकला। उसकी योजना थी कि जब महाराजा अजीतसिंह बादशाह की अगवानी के लिए अपने डेरे से बाहर आएगा, उसी समय उसे पकड़कर मार दिया जाएगा।
जब महाराजा अजीतसिंह को ज्ञात हुआ कि बादशाह का काफिला महाराजा के डेरों की तरफ आ रहा है तो महाराजा अपने डेरे से निकल गया और हुसैन अली के मकान पर जाकर खड़ा हो गया। इस कारण बादशाह हाथ मलता ही रह गया और अपने उद्देश्य में सफल नहीं हो पाया।
अजितोदय नामक ग्रंथ में लिखा है कि 9 दिसम्बर 1718 को बादशाह के आदेश से शाही तोपखाने के नायक बीका हजारी ने महाराजा अजीतसिंह के डेरे पर हमला कर दिया। महाराजा की सेना ने भी अपनी तोपों के मुंह बीका हजारी की तोपों की तरफ खोल दिए।
दोनों पक्षों के बीच तीन दिनों तक रह-रहकर तोप के गोलों की वर्षा होती रही। अंत में बादशाह ने यह लड़ाई बंद करवाई तथा जफर खाँ को महाराजा के पास भेजकर इस गलती के लिए क्षमा मांगी।
फर्रूखसियर अस्थिर चित्त का बादशाह था। कुछ दिन बाद उसने फिर से अजीतसिंह से मित्रता करने का निर्णय लिया और वह अब्दुल्ला खाँ को अपने साथ लेकर अजीतसिंह से मिलने उसके डेरे पर गया। फर्रूखसियर ने महाराजा को राजराजेश्वर की उपाधि दी तथा उसे फिर से गुजरात की सूबेदारी सौंप दी। इसके बाद महाराजा अजीतसिंह फिर से अपनी राजधानी जोधपुर लौट गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता