शिवाजी का भारत पर प्रभाव शताब्दियों के अंतराल में भी देखा जा सकता है।
शिवाजी राजे की भीषण टक्करों से दक्षिण भारत में स्थित बीजापुर का आदिलशाही राज्य पूरी तरह कमजोर हो गया। इसी शिया मुस्लिम राज्य में से शिवाजी ने अपने हिन्दू राज्य का निर्माण किया। गोलकुण्डा का कुतुबशाही राज्य अपनी शक्ति खोकर शिवाजी के चरणों में आ गिरा।
शिवाजी द्वारा संरक्षण दिए जाने के कारण मुगल, शिवाजी के जीवित रहने तक इन दोनों राज्यों पर विजय प्राप्त नहीं कर सके। शिवाजी की मृत्यु के बाद भी मराठों ने इन दोनों राज्यों को संरक्षण देना जारी रखा। इस कारण मुगल इन राज्यों पर दो साल की घेराबंदियों के उपरांत भी विजय प्राप्त नहीं कर सके। अंत में स्वयं औरंगजेब को सेना लेकर दक्षिण के अभियान पर आना पड़ा और उसने पूरी शक्ति झौंककर किसी तरह बीजापुर एवं गोलकुण्डा पर विजय प्राप्त की।
शिवाजी राजे द्वारा मुगल साम्राज्य को दी गई भीषण टक्करों के भी गंभीर परिणाम निकले। इन टक्करों के फलस्वरूप औरंगजेब का साम्राज्य तिनकों की तरह बिखरने लगा। शिवाजी की प्रेरणा से बुंदेलखण्ड के बुंदेलों ने स्वतंत्र हिन्दू राज्य की घोषणा कर दी।
अन्य हिन्दू सरदार भी सिर उठाने लगे तथा कई मुसलमान अमीर, बागी होकर मुगलिया सल्तनत पर प्रहार करने लगे। यद्यपि शिवाजी का पुत्र सम्भाजी अयोग्य सिद्ध हुआ तथापि मराठों ने अपनी राजनीतिक शक्ति को न केवल बनाए रखा अपितु उसे और अधिक बढ़ा लिया।
इसका परिणाम यह हुआ कि औरंगजेब को अपने जीवन के अंतिम 25 वर्ष मराठों से लड़ते हुए दक्षिण के मोर्चे पर ही गुजारने पड़े। इस कारण उत्तर भारत में अव्यवस्था फैल गई। 82 वर्ष की आयु में बूढ़ा और जर्जर औरंगजेब, मराठों के विरुद्ध चलाए जा रहे अभियान में दक्षिण के मोर्चे पर ही इस दुनिया से विदा हुआ।
जीवन के अंतिम वर्षों में उसकी गर्दन हिलती थी और कमर 90 डिग्री के कोण पर झुक गई थी। वह लाठी का सहारा लेकर मुश्किल से चल पाता था किंतु मराठों को परास्त करने का हठ नहीं छोड़ सका। उसके जीवन काल में ही मुगलिया सल्तनत का दीपक, बुझने के लिए फड़फड़ाने लगा।
औरंगजेब के उत्तराधिकारियों में फर्रूखशीयर को अंतिम प्रभावशाली बादशाह कहा जा सकता है जिसका ई.1719 में सैयद बंधुओं तथा जोधपुर नरेश अजीतसिंह ने क्रूरता से वध किया था। उसके बाद किसी मुगल शासक में इतनी शक्ति नहीं थी कि वह साम्राज्य पर नियंत्रण रख पाए।
ई.1737 में फारस के शाह नादिरशाह ने भारत पर आक्रमण किया, तब मुगलों की कमजोरी पूरे हिन्दुस्तान ने अपनी आंखों से देखी। ई.1739 की गर्मियों में नादिरशाह ने दिल्ली में प्रवेश किया। उसके सिपाहियों ने दिल्ली के लाल किले में रहने वाली बेगमों, शहजादियों और बड़े-बड़े अमीरों की स्त्रियों को नंगी करके लाल किले में दौड़ाया तथा उनका शील हरण किया।
मुगल बादशाह मुहम्मदशाह रंगीला ने नादिरशाह को 70 करोड़ रुपये देकर जनता का कत्लेआम रुकवाया। नादिरशाह, मुगलों के कोष से 70 करोड़ रुपये नगद, 50 करोड़ रुपये का माल, 100 हाथी, 7 हजार घोड़े, 10 हजार ऊँट, कोहिनूर हीरा, हजारों स्त्री-पुरुष (गुलाम बनाने के लिए) तथा मुगलों के रत्न जटित तख्त ताऊस को लेकर फारस चला गया।
इसके बाद मराठे नर्मदा को पार करके दिल्ली के लाल किले तक धावे मारने लगे। मराठों ने लाल किले की छतों पर लगे हीरे-जवाहर तथा दीवारों और किवाड़ों पर लगे सोने-चांदी के पतरे उतार लिए।
मराठों की मार से मुगल शासन की इतनी दुर्गति हो गई कि ई.1748 में जब अहमदशाह, बादशाह बना तो बादशाह के कारिंदों द्वारा किसानों और प्रजा से राजस्व वसूली की कल्पना भी नहीं की जा सकती थी। एक बार बादशाह के महल के नौकरों को एक वर्ष तक वेतन नहीं मिला।
इस पर उन्होंने बादशाह के महल के दरवाजे पर एक गधा और एक कुतिया बांध दी। जब अमीर लोग महल में आते थे तो उनसे कहा जाता था कि पहले इन्हें सलाम कीजिये। यह नवाब बहादुर (बादशाह की माता का प्रेमी) हैं तथा ये हजरत ऊधमबाई (बादशाह की माँ) हैं। जब लाल किले के सैनिकों को तीन साल तक वेतन नहीं मिला तो भूखे सिपाही दिल्ली के बाजारों में ऊधम मचाने लगे।
इस पर दिल्ली के लोगों ने लाल किले के दरवाजे बारह से बंद कर दिए ताकि किले के भीतर के लोग शहर में न आ सकें। जब अमीर खाँ फौजबख्शी का निधन हो गया तब सिपाहियों ने उसका घर घेर लिया तथा तब तक लाश नहीं उठने दी जब तक कि उनका बकाया वेतन नहीं चुका दिया गया।
इस वेतन को जुटाने के लिए बख्शी के महल के गलीचे, हथियार, रसोई के बर्तन, कपड़े, पुस्तकंे तथा बाजे तक बेचे गए। कुछ सिपाहियों को इस पर भी वेतन नहीं मिला तो वे बख्शी के घर का बचा-खुचा सामान लेकर भाग गए। ई.1765 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने मुगल बादशाह शाहआलम (द्वितीय) को पेंशन देकर शासन के कार्य से अलग कर दिया।
लगभग 7 साल बाद वारेन हेस्टिंग्स द्वारा इस पेंशन को बंद कर दिया गया और ई.1857 में ईस्ट इण्डिया कम्पनी ने अंतिम मुगल बादशाह मुहम्मद शाह जफर को पकड़कर रंगून भेज दिया। मुगलों के इस सर्वनाश में देश की अन्य शक्तियों का तो हाथ था ही किंतु शिवाजी के नेतृत्व में हुए मराठों के अभ्युदय का बहुत बड़ा योगदान था।
भारतीय राजनीति में शिवाजी के नाम की गूंज आजादी की लड़ाई में भी दिखाई दी। हजारों देश-वासियों ने स्वतंत्रता अभियान के लिए मेवाड़ के महाराणाओं तथा छत्रपति शिवाजी के जीवन चरित्र से प्रेरणा ली।
जन साधारण को संगठित करने एवं उनमें राष्ट्रीयता की भावना उत्पन्न करने के लिए बाल गंगाधर तिलक ने महाराष्ट्र में जन साधारण के स्तर पर गणेश पूजन तथा शिवाजी उत्सव मनाने की परम्परा आरम्भ की तथा इन धार्मिक एवं सामाजिक समारोहों को व्यापक रूप देकर उन्हें राष्ट्रीय एकता, धार्मिक चेतना और सामाजिक एकता उत्पन्न करने का प्रभावी माध्यम बनाया।
ई.1897 में पूना के गणेशखण्ड नामक स्थान पर शिवाजी उत्सव का आयोजन किया गया। इस उत्सव के कुछ दिन बाद ठीक उसी स्थान पर पूना के कमिश्नर रैण्ड ने विक्टोरिया की 60वी वर्षगांठ का उत्सव मनाया। यह बात भारतीय युवकों को अच्छी नहीं लगी।
इसलिए 22 जून 1897 को दामोदर चापेकर ने पूना के प्लेग कमिश्नर रैण्ड तथा उसके सहायक आयर्स्ट को गोली मार दी। चापेकर बन्धुओं को फांसी हो गई। जिन लोगों ने मुखबिरी करके सरकार को चापेकर बंधुओं को जानकारी दी थी उन्हें चापेकर के दो अन्य भाइयों एवं नाटु-बंधुओं ने मिलकर मार डाला।
ये समस्त घटनाएं भारत के क्रांतिकारी आन्दोलन के आरम्भिक चरण का अंग थीं। इस प्रकार स्वतंत्रता आंदोलन के दौरान शिवाजी के नाम को हिन्दू स्वातंत्र्य एवं भारत माता के गौरव के प्रतीक के रूप में उपयोग किया गया।
स्वतंत्रता प्राप्ति के पश्चात् छत्रपति शिवाजी पर कई फीचर फिल्म बनीं। भारत सरकार ने डाक टिकट जारी किए। शिवाजी के बड़े-बड़े चित्र एवं प्रतिमाएं सम्पूर्ण भारत में यत्र-तत्र देखी जा सकती हैं। सैंकड़ों गीतों में शिवाजी के पराक्रम का वर्णन हुआ। यह शिवाजी का भारत पर प्रभाव नहीं तो और क्या है!
आचार्य चतुरसेन शास्त्री ने शिवाजी की जीवनी को आधार बनाकर चट्टान नामक उपन्यास की रचना की। मराठी लेखक शिवाजी सावंत ने शिवाजी के पुत्र सम्भाजी की जीवनी को आधार बनाकर ‘छावा’ शीर्षक से वृहद् उपन्यास की रचना की।
आज शिवाजी की मृत्यु को लगभग साढ़े तीन शताब्दियां बीत चुकी हैं किंतु शिवाजी का नाम सुनकर हिन्दू जाति की रगों में उत्साह और आनंद हिलोरें मारने लगता है। इतिहास कभी रुकता नहीं, चलता रहता है।
शताब्दियां आएंगी और जाएंगी किंतु बहुत कम अवधि के लिए, बहुत थोड़ी सी धरती पर राज्य स्थापित करने वाले इस राजा की गाथाएं, आने वाली पीढ़ियां इसी गौरव के साथ गाती रहेंगी। और शिवाजी का भारत पर प्रभाव इसी प्रकार बना रहेगा।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता