मुहम्मद बिन तुगलक की सेनाओं के कमजोर पड़ते ही देश भर में अनेक मुस्लिम गवर्नरों ने सुल्तान से विद्रोह करने आरम्भ कर दिए। इनमें से बहुत से विद्रोह कुचल दिए गए किंतु कुछ अमीर अपने स्वतंत्र राज्य खड़े करने में सफल हो गए। इनमें तेलंगाना, बंगाल तथा गुलबर्गा प्रमुख थे।
जब मुस्लिम गवर्नर बड़ी संख्या में विद्रोह करने लगे तो हिन्दुओं ने भी नए सिरे से भाग्य आजमाने का निर्णय लिया। ई.1336 में हरिहर तथा बुक्का नामक दो भाइयों ने विजय नगर राज्य की स्थापना की। हरिहर तथा बुक्का, तेलंगाना के काकतीय राजा स्वर्गीय प्रताप रुद्रदेव (द्वितीय) के सम्बन्धी थे और दिल्ली में बन्दी बना कर रखे गए थे। ई.1335 में तेलंगाना के हिन्दुओं ने विद्रोह का झण्डा खड़ा कर दिया। इस गम्भीर स्थिति में सुल्तान ने हरिहर तथा बुक्का की सहायता से वहाँ पर शान्ति स्थापित करने का प्रयास किया। उसने हरिहर को उस क्षेत्र का शासक और बुक्का को उसका मन्त्री बनाकर भेज दिया। वहाँ पहुँचकर हरिहर ने अपनी शक्ति संगठित कर ली और विजयनगर के स्वतन्त्र राज्य की स्थापना कर ली।
आगे चलकर विजयनगर साम्राज्य अपनी समृद्धि तथा उच्च सांस्कृतिक वैभव के कारण संसार भर में प्रसिद्ध हुआ। विजयनगर साम्राज्य ने कई शताब्दियों तक दक्षिण में हिन्दू धर्म की पताका को लहराए रखा। उन दिनों काकतीय राजा प्रताप रुद्रदेव (द्वितीय) का पुत्र कृष्ण नायक वारांगल का राजा था। दक्षिण के विद्रोहों को सफल होते हुए देखकर उसे भी बड़ा प्रोत्साहन मिला। ई.1343 में उसने मुसलमानों के विरुद्ध एक संघ बनाया। ये लोग वारांगल, द्वारसमुद्र तथा कोरोमण्ड तट के समस्त प्रदेश को दिल्ली सल्तनत से स्वतन्त्र करने में सफल हुए। इस कारण दक्षिण में देवगिरि तथा गुजरात ही दिल्ली सल्तनत के अधिकार में रह गए।
उन्हीं दिनों सुनम तथा समाना के जाटों, भट्टी राजपूतों एवं पहाड़ी सामंतों ने विद्रोह किये। मुहमद बिन तुगलक ने इन विद्रोहों में कड़ा रुख अपनाया तथा विद्रोहियों के नेताओं को पकड़ कर बलपूर्वक मुसलमान बनाया। दिल्ली सल्तनत में आरम्भ हुई बगावतों की आंधी से शताधिकारी मुसलमान भी नहीं बच सके। उन दिनों कुछ विदेशी अमीरों को शताधिकारी कहा जाता था। वे लोग प्रायः एक शत सैनिकों के नायक हुआ करते थे और एक शत गाँवों में शान्ति रखने तथा कर वसूलने का उत्तरदायित्व निभाते थे।
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दिल्ली के सुल्तान के प्रति इनकी कोई विशेष श्रद्धा नहीं थी और वेे सदैव अपनी स्वार्थ-सिद्धि में संलग्न रहते थे। जब मुहमद बिन तुगलक ने उन्हें अनुशासित बनाने का प्रयत्न किया, तब उन लोगों ने विद्रोह कर दिया। इस विद्रोह का दमन करने, मुहमद बिन तुगलक को स्वयं दक्षिण जाना पड़ा। उसने विद्रोहियों को परास्त करके उन्हें तितर-बितर कर दिया। पाठकों को स्मरण होगा कि अल्लाउद्दीन खिलजी ने ई.1303 में चित्तौड़ के रावल रतनसिंह को छल से मारकर गुहिलों के चित्तौड़ राज्य को समाप्त कर दिया था तथा अपने पुत्र खिज्र खाँ को चित्तौड़ का शासक नियुक्त किया था। ई.1313 में खिज्र खाँ चित्तौड़ छोड़कर दिल्ली चला गया।
इस पर अल्लाउद्दीन खिलजी ने जालोर के स्वर्गीय चौहान राजा कान्हड़देव के भाई मालदेव सोनगरा को चित्तौड़ दुर्ग पर नियुक्त किया। मालदेव सात साल तक चित्तौड़ का किलेदार रहा। ई.1322 के लगभग चित्तौड़ दुर्ग में ही उसका निधन हुआ। उसके बाद उसका पुत्र जैसा अर्थात् जयसिंह चित्तौड़ का दुर्गपति हुआ। उन दिनों गुहिलों की एक शाखा सीसोद में जागीरदार के रूप में शासन कर रही थी जो राणा कहलाते थे। जब ई.1336 में विजयनगर साम्राज्य की स्थापना हो गई तथा ई.1337 में मुहम्मद बिन तुगलक के एक लाख सिपाही करांचल के अभियान में मार डाले गए तो सीसोद के राणाओं ने भी अपने पुराने राज्य का उद्धार करने का निश्चय किया।
ई.1338 में एक दिन राणा हमीर के सैनिकों ने अचानक चित्तौड़ दुर्ग पर धावा बोल दिया। दुर्ग में स्थित सोनगरा सिपाही संभल नहीं पाए और राणा हम्मीर के सैनिकों ने तुगलक तथा चौहान सैनिकों को पकड़-पकड़कर रस्सियों से बांध दिया। दुर्गपति जैसा किसी तरह भाग निकलने में सफल हो गया। इसके बाद राणा के सैनिकों ने शत्रु सैनिकों के शरीरों के साथ बड़े-बड़े पत्थर बांध दिए और उन्हें दुर्ग की दीवारों से नीचे गिरा दिया। देखते ही देखते दुर्ग पर सिसोदियों का अधिकार हो गया।
चित्तौड़ से निकाल दिये जाने के बाद जैसा दिल्ली पहुंचा तथा सुल्तान को सारी परिस्थिति से अवगत करवाया। सुल्तान मुहम्मद बिन तुगलक ने जैसा को एक सेना देकर पुनः चित्तौड़ के लिये रवाना किया। इस बीच राणा हमीर पूरी तैयारी कर चुका था। उसने अपने सम्पूर्ण संसाधन झौंककर दुर्ग की मरम्मत करवा ली तथा चित्तौड़ के पुराने विश्वस्त राजाओं एवं जागीरदारों को दुर्ग की रक्षा के लिए बुला लिया। इन तैयारियों एवं श्रेष्ठ रणनीति के कारण राणा हम्मीर की सेना दिल्ली की सेना पर भारी पड़ गई। दिल्ली की सेना न केवल परास्त हुई अपितु सिसोदियों द्वारा लगभग पूरी नष्ट कर दी गई।
इस प्रकार ई.1303 में छल-बल से की गई रावल रत्नसिंह की पराजय का बदला ई.1338 में ले लिया गया। चित्तौड़ दुर्ग में महावीर स्वामी के मंदिर में महाराणा कुम्भा के समय का एक शिलालेख लगा है जिसमें राणा हमीर को असंख्य मुसलमानों को रणखेत में मारकर कीर्ति संपादित करने वाला कहा गया है।
इस विजय से राणा हमीर का हौंसला बढ़ गया। उसने एक-एक करके मेवाड़ राज्य के समस्त पुराने क्षेत्रों पर अधिकार कर लिया। इसके बाद उसने जीलवाड़ा, गोड़वाड़, पालनपुर तथा ईडर पर भी अधिकार कर लिया। राणा हमीर ने मेवाड़ी भीलों के एक बड़े दल को मारा तथा हाड़ौती के मीणों के विरुद्ध कार्यवाही करके हाड़ा देवीसिंह को बूंदी का राज्य दिलवाया। हाड़ा राजपूत रणथंभौर के चौहानों से ही निकले थे।
इस प्रकार मुहम्मद बिन तुगलक के शासन काल के ठीक मध्य में गुहिलों के साम्राज्य की पुनर्स्थापना हो गई और कुछ ही वर्षों में छोटी सी सीसोद जागीर का जागीरदार हमीर, चित्तौड़ का पराक्रमी महाराणा बन गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता