मुहम्मद गौरी ई.1194 में कन्नौज के शासक महाराज जयचंद को मार दिया। मुहम्मद गौरी ने इस अभियान में कन्नौज, काशी एवं बनारस में भी भारी विध्वंस किया। इन नगरों में स्थित मंदिरों, महलों एवं किलों से मिली सम्पत्ति को 1400 ऊँटों पर लादकर गजनी चला गया। सर थॉमस होल्डिच ने लिखा है कि लूट का माल 4 हजार ऊँटों पर लादकर ले जाया गया। यह भारत पर मुहम्मद का अंतिम अभियान था।
‘उत्तर प्रदेश में बौद्धधर्म का विकास’ नामक ग्रंथ के लेखक डॉ. नलिनाक्ष दत्त तथा डॉ. कृष्णदत्त बाजपेई ने लिखा है कि सारनाथ भी मुहम्मद गौरी के हाथों से नहीं बच सका। वहाँ के अनेक विशाल भवन नष्ट कर दिए गए। सारनाथ के बौद्ध भिक्षु या तो मारे गए या अन्यत्र चले गए। धीरे-धीरे यह स्थान पूर्णतः निर्जन बन गया। मुगल काल में यहाँ के टीलों पर एक भवन बना जिसे चौखण्डी कहते हैं। कुछ लेखकों का मानना है कि सारनाथ का विध्वंस तो महमूद गजनवी के सेनापति नियाल्तगीन ने बनारस अभियान के समय ही कर दिया था। सारनाथ तभी से वीरान पड़ा था।
ई.1197 में मुहम्मद गौरी के बड़े भाई गयासुद्दीन की मृत्यु हो गई। उस समय गयासुद्दीन का एक नाबालिग पुत्र जीवित था जिसका नाम महमूद था। मुहम्मद गौरी ने महमूद को एक बड़े प्रांत का प्रांतपति बना दिया तथा स्वयं गजनी एवं गौर सहित सम्पूर्ण सल्तनत का स्वामी बन गया।
उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा प्रकाशित ‘कन्नौज का इतिहास’ के लेखक आनन्द स्वरूप मिश्र ने लिखा है कि मोहम्मद गौरी का वध ई.1205-1206 में झेलम के समीप जंगली लोगों ने किया था, जब वह रात को अपने खेमे में सो रहा था।
अंग्रेज लेखक स्मिथ ने लिखा है कि शहाबुद्दीन की हत्या पंजाब के झेलम जिले में ढामियाक अथवा दामयेक नामक स्थान पर कट्टरपंथी मुसलमानों के एक समूह द्वारा की गई थी। कुछ लेखकों के अनुसार मुहम्मद गौरी का वध विद्रोही गक्खरों ने किया था। भारत में कुछ लोग मानते हैं कि मुहम्मद गौरी की हत्या पंजाब में रहने वाले खोखर जाटों ने की थी। संभवतः खोखरों को ही मुस्लिम इतिहासकारों ने गक्खर लिखा है।
इस रोचक इतिहास का वीडियो देखें-
आनन्द स्वरूप मिश्र ने लिखा है कि मुहम्मद गौरी ने भारत पर नौ बड़े आक्रमण किए थे जिनमें से सात आक्रमणों में उसे विपुल सम्पत्ति हाथ लगी थी। मुहम्मद गौरी की सम्पत्ति का अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि उसके पास 500 मन हीरे थे। यह विशाल सम्पत्ति मुहम्मद की रक्षा नहीं कर सकी। वह भी उन अभागे सुल्तानों एवं बादशाहों की तरह गुमनाम लोगों द्वारा निर्ममता से मौत के घाट उतार दिया गया जिन्हें अपनी शक्ति, साम्राज्य एवं सम्पत्ति का बड़ा घमण्ड था।
आज भले ही अफगानिस्तान, पाकिस्तान एवं भारत के करोड़ों लोग मुहम्मद गौरी के नाम की आहें भरते हैं, उसके नाम की मिसाइलें और स्मारक बनवाते हैं किंतु इतिहास की कड़वी सच्चाई यह है कि उस काल में किसी को मुहम्मद के प्रति कोई सहानुभूति नहीं थी। मुहम्मद का मृत शरीर मुहम्मद गौरी के किसी भी सेनापति, किसी भी गुलाम और किसी भी शाही व्यक्ति के काम का नहीं था। इसलिए उसके मृत शरीर के लिए एक मकबरा तक बनवाने की आवश्यकता अनुभव नहीं की गई और उसका शव उस मकबरे में दफनाया गया जो मुहम्मद गौरी की पुत्री के लिए बनाया जा रहा था।
ई.1192 में चौहान पृथ्वीराज (तृतीय) की मृत्यु तथा ई.1194 में महाराज जयचंद की मृत्यु भारत के प्राचीन इतिहास के काल खण्ड की अंतिम बड़ी घटनाएं मानी जाती हैं। इसके बाद उत्तर भारत के मैदानों में हिन्दू राज्यों के स्थान पर तुर्क शासन की स्थापना हो गई और भारत का इतिहास मध्यकाल में प्रवेश कर गया।
कुछ इतिहासकारों ने भारत के इतिहास के वर्गीकरण में हर्षवर्द्ध्रन की मृत्यु के बाद से लेकर सम्राट पृथ्वीराज चौहान की मृत्यु तक के काल को ‘राजपूत काल’ कहा है। यह ई.648 से लेकर ई.1192 तक का काल है किंतु दिल्ली सल्तनत की स्थापना मुहम्मद गौरी की मृत्यु के बाद ई.1206 में हुई थी, इसलिए सामान्यतः ई.648 से लेकर ई.1206 तक की अवधि को भारत के इतिहास में राजपूत काल कहा जाता है।
ई.1192 में दिल्ली पर मुहम्मद गौरी का अधिकार हो जाने से लेकर ई.1206 में मुहम्मद गौरी की मृत्यु होने तक दिल्ली पर मुहम्मद गौरी का हिन्दुस्तानी गवर्नर कुतुबुद्दीन ऐबक शासन करता रहा। उसके अधीन पंजाब के बहुत बड़े हिस्से से लेकर दिल्ली, अजमेर, कन्नौज, बनारस तथा बदायूं आदि के क्षेत्र थे। ये क्षेत्र सिंधु और सरस्वती से लेकर पंजाब की पांचों बड़ी नदियों- झेलम, चिनाव, रावी, सतलुज, व्यास से होते हुए गंगा एवं यमुना की अंतर्वेदी तक विस्तृत थे।
अंतर्वेदी को अब गंगा-यमुना का दो-आब कहा जाता है। सिंधु के तट से लेकर गंगा के मैदान तक विस्तृत यह क्षेत्र संसार के सर्वाधिक उपजाऊ क्षेत्रों में से एक था। धरती के इस भूखण्ड पर संसार की सर्वाधिक उन्नत एवं समृद्ध संस्कृति का प्रसार था। वेदों के मंत्र इसी क्षेत्र में प्रकट हुए थे। पुराणों की गाथाएं इन्हीं क्षेत्रों में लिखी गई। श्री राम की अयोध्या, श्री कृष्ण की मथुरा, भगवान भोलेनाथ शिव की काशी इसी भूक्षेत्र में स्थित थी। भगवान वेदव्यास ने गीता का तथा महर्षि वाल्मीकि ने रामायण का प्रणयन इसी क्षेत्र में किया था। शकुंतला का पुत्र भरत इन्हीं मैदानों में खेला था। पाण्डवों ने इन्हीं मैदानों में अपनी दिग्विजय यात्रा की थी। चाणक्य और चंद्रगुप्त जैसे गुरु-शिष्य इसी भूखण्ड में प्रकट हुए थे। सम्राट समुद्रगुप्त ने इन्हीं मैदानों को जीतकर भारत राष्ट्र की कल्पना को साकार किया था।
दिल्ली सल्तनत की स्थापना के साथ ही भारत के इतिहास का वह स्वर्णकाल बीत चुका था जब थाणेश्वर का सम्राट हर्षवर्द्धन, मरुभूमि के गुर्जर प्रतिहार नरेश तथा सपादलक्ष के चौहान इन मैदानों के स्वामी हुआ करते थे। समय बदल चुका था, वेदों की ऋचाएं शांत हो चुकी थीं, स्वर्ग से आने वाली हवाएं रास्ता भूल चुकी थीं तथा नदी तटों से उठने वाले यज्ञकुण्डों के धूम्र-वलय काल के गाल में समा चुके थे। अब इन मैदानों तथा उनमें बहने वाली नदियों का स्वामी मुहम्मद गौरी का जेर-खरीद गुलाम कुतुबुद्दीन ऐबक था और निर्दोष हिन्दुओं के रक्त से भीग-भीग कर धरती लाल हो चुकी थी।
जैसे ही ई.1206 में मुहम्मद गौरी की हत्या हुई, उसके गवर्नरों में सल्तनत पर अधिकार करने के लिए छीना-झपटी मच गई क्योंकि मुहम्मद गौरी के कोई पुत्र नहीं था।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता