शाहजहाँ का भय भारत के मुगल कालीन इतिहास की एक विडम्बना है। उस काल में धरती भर के शासकों में सबसे शक्तिशाली बादशाह जिसके अधीन लाखों सैनिकों की फौज थी, अपने ही बच्चों से डर गया और उसने स्वयं को अपने महल में बंद कर लिया!
जब बादशाह को ज्ञात हुआ कि वली-ए-अहद दारा शिकोह ने आगरा की हिफाजत करने के लिए अपनी सेनाओं को आगरा शहर के दरवाजों के बाहर तैनात कर दिया है तो शाहजहाँ, दारा की ओर से भी आशंकित हो गया!
शाहजहाँ ने रूपनगढ़ के राजा रूपसिंह राठौड़ को बुलाकर आदेश दिए कि वह अपने सैनिकों को हर समय बादशाही महल के बाहर नियुक्त रखे। लाल किले के समस्त दरवाजों पर भी महाराजा रूपसिंह के सिपाहियों का पहरा रहे और शाही सेनाएं शहजादे दारा शिकोह के निर्देशन में आगरा शहर के बाहर तैनात रहें।
बादशाह ने आदेश दिए कि आगरा शहर के दो दरवाजों को छोड़कर शेष समस्त दरवाजे बंद कर दिए जाएं जिनके बाहर शाही सेनाएं रहें और भीतर की ओर महाराजा रूपसिंह की टुकड़ियां रहें। महाराजा रूपसिंह के सिपाही इस बात का ध्यान रखें कि स्वयं वली-ए-अहद केवल दस सिपाहियों के साथ आगरा शहर में दाखिल हों। शहजादे दारा शिकोह को दिन के समय लाल किले में रहने की छूट रहेगी किंतु रात के समय शहजादे को लाल किले से बाहर जाना होगा।
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दारा शिकोह बादशाह के इन आदेशों को सुनकर सन्न रह गया। भयभीत बूढ़े बादशाह ने अपने शहजादों के डर से कुछ ऐसा कर दिया था जिसके कारण दारा की स्थिति सल्तनत में पहले जैसी नहीं रही। जब स्वयं दारा पर ही महाराजा रूपसिंह का अंकुश लगा दिया गया था तो दारा किस मुंह से दूसरे अमीरों एवं राजाओं को औरंगजेब से लड़ने के लिए आदेश दे सकता था!
दारा ने अपने आशंकित और बीमार पिता के सामने कुरान उठाकर कसम उठाई कि वह कभी भी बादशाह से दगा नहीं करेगा तथा बादशाह सलामत के समस्त आदेशों की अक्षरशः पालना करेगा फिर भी बादशाह को उस पर विश्वास नहीं हुआ।
बादशाह ने महाराजा रूपसिंह को बुलकार और भी सख्त लहजे में पाबंद किया कि जब तब बादशाह स्वयं बुलाकर महाराजा रूपसिंह को आदेश न दे तब तक महाराजा अपनी सेनओं की नियुक्ति कहीं अन्यत्र न करे और महाराजा स्वयं दिन में कम से कम दो बार बादशाह के हुजूर में हाजिर होकर बादशाह के हालचाल पूछे।
बादशाह ने अपनी सबसे चहेती शहजादी जहाँआरा को आदेश दिए कि वह केवल दिन के समय बादशाह के हुजूर में रहेगी, रात होते ही उसे भी ख्वाबगाह से बाहर जाना होगा।
बादशाह के इस आदेश से जहाँआरा सकते में आ गई। वह आँखों में आँसू भरकर और हाथों में कुरान लेकर अपने पिता के समक्ष पेश हुई तथा अपने पिता के कदमों पर गिरकर बोली- ‘चाहे तो मेरी देह की खाल उधड़वाकर मेरे शरीर से अलग कर दें किंतु अब्बा हुजूर के मुकद्दस कदमों से मुझे एक लम्हे के लिए भी दूर न करें। मैं दीवारों से सिर टकराकर जान दे दूंगी किंतु अपने रहमदिल पिता को अपनी नजरों से एक लम्हे के लिए भी दूर नहीं करूंगी।’
बूढ़ा और बीमार बादशाह, अपनी प्यारी बेटी जहाँआरा के आंसुओं को देखकर पिघल गया जिसने जीवन भर अपने बेरहम पिता की हर ख्चाहिश को पूरा किया था। बादशाह ने बेटी जहाँआरा को हर समय अपने हुजूर में पेश रहने की अनुमति दे दी। इससे शाहजहाँ का भय तो कम नहीं हुआ किंतु उसे दिलासा देने वाली बेटी उसके पास अवश्य आ गई थी।
जब रियाया ने देखा कि शाही सेना ने आगरा शहर को तथा महाराजा रूपसिंह के राजपूतों ने लाल किले के चारों तरफ से घेर लिया है, तो लोगों की समझ में कुछ नहीं आया। शहर में अफवाहों का बाजार गर्म हो गया। बाजार बंद हो गए और लोगों को सौदा-सुल्फा लेने में भी कठिनाई होने लगी।
शहजादी रौशनआरा ने आगरा का सारा हाल और शाहजहाँ का भय अपने भाई औरंगज़ेब को लिख भेजा। बाकी शहजादियाँ भी कहाँ पीछे रहने वाली थीं। शहजादी गौहर आरा ने मुराद को और पुरहुनार बेगम ने शाहशुजा को बड़ी तफसील से खत लिखकर भिजवाए।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता