जब जालोर के राजा कान्हड़देव ने अल्लाउद्दीन खिलजी की सेना को गुजरात जाने के लिए जालोर राज्य से होकर नहीं निकलने दिया तो अल्लाउद्दीन खिलजी की सेना सिंध एवं जैसलमेर के रेगिस्तान में होती हुई गुजरात पहुंची थी। जैसलमेर के भाटियों ने अल्लाउद्दीन खिलजी की सेना पर आक्रमण किया था किंतु दिल्ली सल्तनत की सेना काफी विशाल थी इसलिए भाटी उन्हें गुजरात की तरफ जाने से नहीं रोक पाए थे।
उस समय जैतसिंह (प्रथम) जैसलमेर का शासक था। हालांकि जैतसिंह से पहले भी जैसलमेर राज्य दो बार मुस्लिम सेना से भयानक संघर्ष कर चुका था। पहला संघर्ष ई.1025 में उस समय हआ था जब महमूद गजनवी गजनी से सोमनाथ गया था और दूसरा संघर्ष बलबन के समय में हुआ था। उन दोनों संघर्षों में ही भाटियों ने गजनी और दिल्ली की सेनाओं को थार की तलवार का पानी पिलाया था किंतु जब ई.1299 में जैसलमेर की सेना दिल्ली की सेना को सोमनाथ की तरफ जाने से नहीं रोक सकी तो जैसलमेर के भाटियों को इस बात का बड़ा दुःख हुआ और वे किसी उचित अवसर की प्रतीक्षा करने लगे।
ई.1304 में दिल्ली के सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी की माँ लगभग साढ़े पांच सौ खच्चरों पर सोने-चांदी की अशर्फियां, कीमती रेशमी कपड़े तथा खाने-पीने की बहुमूल्य वस्तुएँ लेकर मुल्तान एवं सिंध होते हुए जैसलमेर राज्य के रास्ते हज करने मक्का जा रही थी, तब भाटियों ने दिल्ली की सेना को अपनी तलवार का पानी पिलाने का निश्चय किया।
‘जैसलमेर री ख्यात’ में लिखा है कि- ‘बादशाह गोरीया पीरां की मोहरां की खचरां साढ़े पाँच सौ नगर थट्टा सूं मुल्तान जाती थीं।’ अर्थात् 550 खच्चरों पर केवल सोने की मोहरें बताई गई हैं। यह तथ्य सही प्रतीत नहीं होता किंतु इतना अवश्य कहा जा सकता है कि सुल्तान की माँ के पास बहुत बड़ी मात्रा में सोने-चांदी की मोहरें थीं। इस ख्यात के अनुसार नवाब मेहबू खाँ दिल्ली की तरफ से फौज लेकर आया तथा नवाब फरीद खाँ मुल्तान की तरफ से फौज लेकर आया ताकि सुल्तान की माँ को मार्ग में सुरक्षा दी जा सके।
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उस समय जैसलमेर पर जैतसिंह (द्वितीय) का शासन था। उसके अत्यंत वृद्ध होने के कारण उसके पुत्र मूलराज तथा रतनसिंह राज्यकार्य देखा करते थे। उन्होंने थट्टा से मुल्तान जाते हुए दिल्ली के सुल्तान अल्लाउद्दीन की माँ के काफिले को रोका तथा खच्चरों को पकड़कर जैसलमेर दुर्ग में ले आए। जब यह सूचना दिल्ली पहुंची तो अल्लाउद्दीन खिलजी बहुत कुपित हुआ। उसने करीम खाँ एवं अली खाँ नामक अमीरों के नेतृत्व में एक विशाल सेना जैसलमेर भेजी।
‘जैसलमेर री ख्यात’ तथा ‘जैसलमेर की तवारीख’ का वर्णन मिलता-जुलता है जबकि मूथा नैणसी ने इस घटना का वर्णन अलग ढंग से किया है। उसके अनुसार शाह का पीरजादा रूम (कुस्तुंतुनिया) गया था। रूम के सुल्तान ने पीरजादा को एक करोड़ रुपए का माल दिया था। जब वह रूम से जैसलमेर होता हुआ दिल्ली जा रहा था, तब 200 बादशाही सवार उसके पास थे। मूलराज भाटी ने उन्हें मारकर उनका धन और घोड़े ले लिए। जब सुल्तान को अपने शहजादे के मारे जाने की सूचना मिली तो उसने कमालुद्दीन को 7,000 सवार देकर जैसलमेर भेजा जिसने जैसलमेर का दुर्ग घेर लिया।
कर्नल टॉड ने इस घटना का वर्णन तीसरे ढंग से किया है। टॉड ने लिखा है कि मुल्तान तथा थट्टा दोनों ही अल्लाउद्दीन खिलजी के अधिकार में थे। जब वहाँ से लूटा गया धन 1,500 घोड़ों एवं 1,500 खच्चरों पर लादकर भक्कर के मार्ग से दिल्ली के शाही खजाने में जमा कराने हेतु ले जाया जा रहा था, तब जैसलमेर के शासक जैतसिंह भाटी के पुत्रों ने शाही खजाने को लूटने के प्रयोजन से 700 घुड़सवार एवं 1,200 ऊँटों का काफिला बनाकर अनाज के व्यापारियों के रूप में शाही काफिले का पीछा करते हुए पंचनद (अब पचपदरा) के मुकाम पर शाही खेमों के निकट पहुंचकर अपना डेरा डाल दिया।
रात्रि में भाटियों ने शाही खजाने पर आक्रमण किया तथा 400 मंगोल एवं इतने ही पठान सैनिकों की हत्या करके खजाना लूट लिया। जब बचे हुए सैनिकों ने दिल्ली पहुंचकर इसकी सूचना अल्लाउद्दीन खिलजी को दी तो उसने जैसलमेर के विरुद्ध सेना भेजी। सुल्तान का सेनापति कमालुद्दीन गुर्ग 7,000 अश्वारोहियों सहित जैसलमेर पहुंचा एवं उसने दुर्ग घेर लिया।
जब जैसलमेर दुर्ग के घेरे को तीन वर्ष का समय होने आया तब सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी को कमालुद्दीन गुर्ग पर संदेह हुआ कि वह जानबूझ कर जैसलमेर में पड़ा हुआ है तथा दिल्ली नहीं आना चाहता है। इस पर अल्लाउद्दीन खिलजी ने अपने निजी गुप्तचरों को जैसलमेर भेजा। इन गुप्तचरों ने जैसलमेर जाकर पूरी बात का पता लगाया तथा दिल्ली लौटकर सुल्तान अल्लाउद्दीन खिलजी को सूचना दी कि कमालुद्दीन गुर्ग तथा जैसलमेर के राजकुमार मूलराज को चौसर खेलने का बड़ा शौक है, इसलिए दोनों में दोस्ती हो गई है तथा वे मिलकर चौसर खेल रहे हैं। इस घेरे का कोई अर्थ नहीं है।
इस पर अल्लाउद्दीन खिलजी ने ‘हजार दीनारी’ अर्थात् मलिक काफूर को एक विशाल सेना के साथ जैसलमेर रवाना किया। मलिक केसर को भी उसके साथ भेजा गया। मलिक काफूर तथा मलिक केसर ने जैसलमेर पहुंचकर मोर्चा संभाला। मलिक काफूर चाहता था कि वह दुर्ग पर सीधा हमला करे किंतु कमालुद्दीन गुर्ग इस पक्ष में था कि परम्परागत नीति से लड़ते हुए दुर्ग को जीता जाए ताकि कम से कम सैनिकों की हानि हो। इस नीति के अनुसार मुस्लिम सेना तब तक हिन्दू दुर्ग को घेरकर रखती थी जब तक कि दुर्ग के भीतर रसद सामग्री कम न हो जाए तथा हिन्दू सेना स्वयं ही दुर्ग का दरवाजा खोलकर बाहर न आ जाए।
मलिक काफूर ने कमालुद्दीन गुर्ग की एक न सुनी और अपनी सेना लेकर सीधे ही दुर्ग पर हमला कर दिया तथा पहाड़ी चढ़कर सीधे ही मुख्य द्वार तक पहुंच गया। मलिक काफूर ने अपने हाथियों को मुख्य द्वार पर धकेला ताकि लकड़ी के दरवाजे को तोड़ा जा सके किंतु हाथी मुख्य दरवाजे को नहीं तोड़ सके। इस पर मलिक काफूर ने अपने सैनिकों को आदेश दिया कि वे रस्सी बांधकर दुर्ग की दीवारों एवं कंगूरों पर चढ़ जाएं।
मलिक काफूर को यह देखकर आश्चर्य हुआ कि राजपूतों ने अब तक कोई प्रतिरोध नहीं किया। इसलिए उसका उत्साह बढ़ता चला गया। सैंकड़ों सैनिक रस्सियां बांधकर दुर्ग की दीवार पर चढ़ने लगे तथा जैसे ही वे दीवार के आधे से अधिक हिस्से को पार कर गए तब राजपूतों ने पहली बार रणभेरी बजाई तथा एक साथ सैंकड़ों राजपूत सैनिक दुर्ग की प्राचीर के ऊपर प्रकट हुए। उन्होंने दीवारों पर चढ़ रहे मुस्लिम सैनिकों पर तीर, पत्थर और जलते हुए कपड़े फैंकने आरम्भ कर दिए।
राजपूतों की इस अप्रत्याशित कार्यवाही से शत्रु सेना घबरा गई। सैंकड़ों सैनिक दीवार से नीचे गिरकर मर गए। उसी समय दुर्ग का द्वार खुला तथा राजपूतों ने मलिक काफूर के सैंकड़ों सैनिकों को काट डाला। राजपूतों का ऐसा प्रचण्ड रूप देखकर दिल्ली सल्तनत के सैंकड़ों सैनिकों ने पहाड़ी के ऊपर से ही घाटी में छलांग लगा दी और प्राण गंवा बैठे। इस प्रकार एक दिन की कार्यवाही में ही दिल्ली की सेना सिर पर पैर रखकर दिल्ली की ओर भाग छूटी।
सुल्तान का भांजा एवं जवांई मलिक केसर वहीं पर मारा गया किंतु मलिक काफूर के प्राण बच गए और वह अपने बचे हुए सैनिकों के साथ दिल्ली की ओर रवाना हो गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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