सुल्तान महमूद नासिरूद्दीन के काल में दिल्ली सल्तनत में दो सुल्तान हो गए। मरहूम सुल्तान फीरोजशाह तुगलक का एक पोता महमूद नासिरूद्दीन दिल्ली से तथा फीरोजशाह का एक अन्य पोता फीरोजाबाद से दिल्ली सल्तनत पर शासन करने लगा।
इस प्रकार फीरोजशाह तुगलक की मृत्यु के बाद ई.1388 से लेकर ई.1405 तक गियासुद्दीन तुगलकशाह, अबूबक्र, नासिरूद्दीन मुहम्मदशाह, अल्लाउद्दीन सिकंदरशाह, महमूद नासिरूद्दीन तथा नुसरतशाह नामक छः सुल्तान दिल्ली के तख्त पर बैठ चुके थे। सुल्तानों की इस आवाजाही में तुगलक वंश के शहजादों ने एक दूसरे का जमकर खून बहाया जिसके कारण अब तुगलक वंश के नष्ट होने का समय आ गया था।
जिन दिनों दिल्ली सल्तनत पर दो सुल्तानों का शासन था, उन्हीं दिनों मध्यएशिया से तैमूर लंग जैसे प्रबल आक्रांता ने दिल्ली सल्तनत पर आक्रमण किया। दिल्ली सल्तनत के दोनों सुल्तानों में से किसी में इतनी शक्ति नहीं थी कि वह तैमूर लंग का सामना करे किंतु जब तैमूर पंजाब से सीधा दिल्ली आ धमका तो नासिरूद्दीन महमूद को तैमूर से युद्ध करना पड़ा किंतु नासिरूद्दीन महमूद हारकर गुजरात भाग गया।
न सुल्तान, न सेना, न वजीर, कोई भी दिल्ली को बचाने वाला नहीं रहा। तैमूर लंग के दिल्ली आक्रमण की चर्चा हम आगे चलकर विस्तार से करेंगे। जब तैमूर लंग दिल्ली को तहस-नहस करके पुनः लौट गया तब नसरतशाह फीरोजाबाद से दिल्ली आ गया और अपना दरबार दिल्ली में लगाने लगा।
कुछ ही समय बाद दिल्ली के पुराने सुल्तान महमूद नासिरूद्दीन के मन्त्री मल्लू खाँ ने नसरतशाह को दिल्ली से मार भगाया। इस पर सुल्तान नासिरूद्दीन महमूद फिर से दिल्ली लौट आया और अय्याशियों में डूब गया किंतु मल्लू खाँ ने उसे भी दिल्ली में नहीं टिकने दिया। इस पर नासिरूद्दीन महमूद कन्नौज चला गया और वहीं अपना दरबार लगाने लगा।
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ई.1405 में मल्लू खाँ मुल्तान के सूबेदार खिज्र खाँ से युद्ध करता हुआ मारा गया। इस पर नासिरूद्दीन महमूद फिर से दिल्ली आ गया। इस बार भी उसने शासन पर ध्यान देने की बजाय अय्याशियों में डूबे रहना अधिक उचित समझा। इस कारण ई.1412 में दौलत खाँ नामक एक अमीर ने दिल्ली पर अधिकार कर लिया। उसी वर्ष अर्थात् ई.1412 में सुल्तान महमूद नासिरूद्दीन की मृत्यु हो गई। उसके साथ ही तुगलक वंश का अन्त हो गया।
बहुत से इतिहासकारों का मानना है कि तुगलक साम्राज्य की विशालता उसके विनाश का कारण बनी। संचार तथा यातायात के साधनों के अभाव में इतनी विशाल सल्तनत को अपने अधीन रख पाना संभव नहीं था। वास्तव में मुहम्मद बिन तुगलक की दक्षिण विजय से दिल्ली सल्तनत को लाभ के स्थान पर हानि ही हुई। इससे सुल्तान के सैनिक उत्तरदायित्व तथा व्यय में वृद्धि हो गई। सुल्तानों का प्रायः दक्षिण अभियान पर जाना उत्तर के लिए घातक सिद्ध हो जाता था। जब सुल्तान दिल्ली में रहता था तब दक्षिण में अशांति फैल जाती थी और जब वह दक्षिण में रहता था तब दिल्ली में अशांति फैल जाती थी।
तुगलकों की सल्तनत, पूर्ववर्ती शासक वंशों की भांति, सैनिक शक्ति के आधार पर खड़ी की गई थी। ऐसा शासन तब तक ही स्थायी रहता है जब तक शासक की भुजाओं में बल होता है। विद्रोही तत्त्व सेना के ही बल पर ऐसे शासन को उखाड़ फैंकते हैं। फीरोजशाह तुगलक के अयोग्य वंशज सैनिक शक्ति के बल पर इतनी बड़ी सल्तनत को अपने अधिकार में नहीं रख सकते थे। उसका नष्ट हो जाना अवश्यम्भावी था।
सुल्तानों की हत्याओं ने तुगलकवंश के विनाश में बड़ी भूमिका निभाई थी। दिल्ली सल्तनत के सुल्तानों की हत्याओं का यह खूनी खेल ई.1192 में दिल्ली सल्तनत की स्थापना से ही आरम्भ हो गया था। इसका मुख्य कारण यह था कि तुर्कों में उत्तराधिकार का कोई निश्चित नियम नहीं था। इसलिए प्रायः प्रत्येक सुल्तान को अपने शासन के आरम्भ से लेकर अंत तक षड्यंत्रों, कुचक्रों, विद्रोहों तथा प्रतिद्वन्द्वियों का सामना करना पड़ता था।
इन षड्यंत्रों, कुचक्रों और विद्रोहों की समाप्ति प्रायः सुल्तान की हत्या से होती थी। इस परम्परा के कारण सुल्तान के दरबार में राजनैतिक दलबन्दियों का बोलबाला रहता था और प्रत्येक दल, दुर्बल शहजादों को तख्त पर बैठाकर उन्हें कठपुतली की भांति नचाता था। जब कभी इल्तुतमिश, बलबन, अल्लाउद्दीन खिलजी, मुहम्मद बिन तुगलक और फीरोज तुगलक जैसे सुल्तान दिल्ली के तख्त पर बैठने में सफल रहते थे, तब सुल्तानों एवं शहजादों की हत्याओं का सिलसिला कुछ समय के लिए रुक जाता था किंतु फिर भी कोई राजवंश दिल्ली के तख्त पर लम्बे समय तक अधिकार जमाए रखने में सफल नहीं हुआ था। ऐसी दशा में तुगलक वंश का भी नष्ट हो जाना स्वाभाविक था।
तुगलक वंश के विनाश में प्रांतीय सूबेदारों ने प्रमुख भूमिका निभाई थी। विभिन्न सूबों के पदाधिकारी तथा सेनापति स्वार्थी एवं महत्त्वाकांक्षी थे। अवसर पाते ही विद्रोह करके वे अपने स्वतंत्र राज्य की स्थापना का सपना देखते थे। जनता में भी सुल्तान तथा शासक वंश के प्रति निष्ठा नहीं थी। इसलिए जनता भी प्रायः विद्रोह का झण्डा उठाए रखती थी।
किसी भी सुल्तान द्वारा सल्तनत को सुदृढ़ तथा सुसंगठित इकाई बनाने का प्रयास नहीं किया गया था। शासन में एकरूपता, दृढ़ता तथा संगठन का सर्वथा अभाव था। प्रान्तीय शासकों को व्यापक अधिकार प्राप्त थे। वास्तव में तुगलक सल्तनत, अर्द्धस्वतंत्र राज्यों का एक असम्बद्ध सा संघ बनकर रह गया था। केन्द्र सरकार का सल्तनत के विभिन्न भागों पर दृढ़ता से नियंत्रण नहीं था। इससे विघटनकारी प्रवृत्तियां सदैव क्रियाशील रहती थीं।
दिल्ली सल्तनत में शासन का संचालन तुर्क तथा विदेशी अमीरों द्वारा होता था। इन लोगों को भारतीयों की आशा, अभिलाषा तथा आकांक्षाओं के साथ कोई सहानुभूति नहीं थी। उन्होंने स्वयं को विजेता समझा। वे भारतीय मुसलमानों को दोयम दर्जे का समझते थे और हिन्दू जनता के साथ पराजितों का सा व्यवहार करते थे। इस कारण शासन में चलने वाले षड़यंत्रों एवं परिवर्तनों से बहुसंख्यक जनता विमुख रहती थी। सुल्तान को संकट काल में जनता से कोई सहायता नहीं मिलती थी। इस कारण फीरोज तुगलक के बाद तुगलक वंश बड़ी आसानी से नष्ट हो गया।
कुछ इतिहासकारों का मानना है कि हिन्दुओं को शासन से दूर रखने के कारण तुर्की सुल्तान, हिन्दुओं की उस प्रतिभा के उपयोग से वंचित रह गए जिसका सदुपयोग करके सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में जलालुद्दीन मुहम्मद अकबर ने भारत में एक प्रबल मुगल साम्राज्य की स्थापना की थी।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता