अकबर के तीन शहजादों में से दो छोटे शहजादे मुराद और दानियाल अत्यधिक शराब पीकर मर चुके थे। तीसरा तथा सबसे बड़ा शहजादा सलीम भी अत्यधिक शराब पीकर न केवल खुद मौत के कगार पर जा खड़ा हुआ था अपितु अपने बुरे दोस्तों की सोहबत में अपने बाप अकबर तथा पूरी मुगलिया सल्तनत को मौत के कगार पर खींच कर ले जा रहा था। अकबर के बाद वही मुगलिया सल्तनत का उत्तराधिकारी हो सकता था किंतु बुरे आदमियों की संगत के कारण उसका दिमाग विकृत हो चला था। उसे बादशाह बनने की बड़ी शीघ्रता थी। वह अकबर के जीते जी उसकी सारी सम्पत्ति तथा राज्य पर अधिकार करना चाहता था किंतु अकबर इस अयोग्य, धोखेबाज, शराबी और अय्याश शहजादे को बादशाह नहीं बनाना चाहता था।]
ई. 1591 में जब अकबर गंभीर रूप से बीमार पड़ा तब अवसर पाकर सलीम ने बादशाह के भोजन में विष मिलवा दिया किंतु किसी तरह अकबर बच गया। जब अकबर मामले की तह तक गया तो उसका सारा संदेह सलीम पर ही गया। उसने सदैव के लिये सलीम को अपनी दृष्टि से च्युत कर दिया।
सलीम की इस दुष्टता से अकबर के जीवन में चारों ओर निराशा छा गयी। उसने हिन्दू नरेशों को अपनी सल्तनत का रक्षक नियुक्त कर कजलबाश, चगताई, ईरानी और तूरानी अमीरों से तो अपने राज्य की रक्षा कर ली थी किंतु कुल में ही जन्मा कुपुत्र, अकबर के सीने में जहर बुझी कटारी की तरह गढ़ गया। उससे निजात पाने का कोई उपाय नहीं था।
अंत में अकबर ने सलीम के पुत्र खुसरो को अपना उत्तराधिकारी बनाने का विचार किया। खुसरो के प्रति आसक्ति और अपने प्रति उपेक्षा देखकर सलीम बादशाह से खुल्लमखुल्ला विद्रोह करने पर उतारू हो गया।
जब सलीम को मेवाड़ नरेश अमरसिंह के विरुद्ध अभियान के लिये भेजा गया तो वह मेवाड़ न जाकर अजमेर में ही अपना डेरा जमा कर बैठ गया। उन्हीं दिनों अजमेर के सूबेदार शहबाजखाँ कम्बो की मृत्यु हो गयी। सलीम ने अवसर मिलते ही शाही खजाने के एक करोड़ रुपये तथा शहबाजखाँ की निजी सम्पत्ति पर कब्जा कर लिया।
उन्हीं दिनों सलीम को ज्ञात हुआ कि इस समय अकबर असीरगढ़ के मोर्चे पर है तथा आगरा के किले में राजकीय कोष के दो करोड़ रुपये रखे हुए हैं। सलीम ने उस कोष को हथियाने के लिये अजमेर से आगरा की ओर प्रयाण किया किंतु किलेदार और कोषाध्यक्ष की सतर्कता के कारण सलीम उस कोष को हाथ नहीं लगा सका। इसके बाद सलीम यमुना पार करके प्रयाग चला गया और उसने अपने आप को स्वतंत्र बादशाह घोषित कर अपना दरबार जमा लिया। कुछ ही दिनों बाद उसे बिहार से भी शाही कोष के तीस लाख रुपये छीनने का अवसर मिल गया। शाही कोष से छीने गये लगभग डेढ़ करोड़ रुपये के बल पर सलीम ने तीस हजार सिपाही इकट्ठे कर लिये।
सलीम के विद्रोह के समाचार सुनकर अकबर असीरगढ़ का मोर्चा छोड़कर आगरा आया। जब सलीम को ज्ञात हुआ कि अकबर आगरा आ गया है तो सलीम ने प्रचारित किया कि वह भी अपने पिता की अभ्यर्थना करने के लिये आगरा जायेगा। वास्तव में तो उसका निश्चय अकबर को कैद करके स्वयं बादशाह बनने का था।
सलीम अपने तीस हजार सिपाही लेकर चारों तरफ लूटमार करता हुआ आगरा की ओर बढ़ा। अकबर सलीम के इरादों को भांप गया। उसने अपने आदमियों के माध्यम से उसे कहलवाया कि यदि वह अपनी सेना को भंग करके प्रयाग लौट जाये तो उसे क्षमा कर दिया जायेगा।
पिता की यह उदारता देखकर सलीम ने अपनी सेना प्रयाग को लौटा दी और अकबर से कहलवाया कि मैं आपकी सेवा में प्रस्तुत होना चाहता हूँ। अकबर ने सलीम को अपनी सेवा में उपस्थित होने की अनुमति दे दी। आगरा आकर सलीम बादशाह के पैरों में गिर पड़ा और फूट-फूट कर रोया। उसका यह भाव देखकर अकबर ने उसे क्षमा कर दिया तथा उसे बंगाल और उड़ीसा का सूबेदार बनाकर बंगाल जाने के आदेश दिये तथा अपना खास तातार गुलाम उसकी सेवा में नियुक्त कर दिया।
इलाहाबाद लौटकर सलीम पुनः मक्कार आदमियों से घिर गया और उसने बंगाल जाने से मना कर दिया। वह प्रयाग में नित्य दरबार आयोजित करके लोगों को मनसब और जागीरें बांटने लगा। इस समस्या का अंत न आता देखकर अकबर ने खानखाना को दक्षिण से बुलाने का विचार किया किंतु दक्षिण में खानखाना की सफलताओं को देखते हुए उसे वहाँ से हटाया जाना उचित नहीं था इसलिये बहुत सोच-विचार के उपरांत अकबर ने अबुलफजल को आगरा बुलवाया।