चलो दिल्ली मारो फिरंगी अठ्ठारह सौ सत्तावन की क्रांति के क्रांतिकारियों का मुख्य उद्घोष था। पूरे उत्तर भारत के क्रांतिकारी चलो दिल्ली मारो फिरंगी का नारा लगाते हुए दिल्ली की ओर बढ़ने लगे।
बंगाल नेटिव इन्फेंटरी के सैनिक नसीराबाद से लूट का धन लेकर दिल्ली की ओर कूच कर गये। उनके पास लूट का इतना अधिक माल था कि उसे ढो पाना कठिन हो रहा था। फिर भी विद्रोही सैनिक दु्रतगति से कूच करते गये। लूट के सामान से लदे होने तथा खराब सड़कों के उपरांत भी उन्होंने लम्बी यात्रा जारी रखी।
उनके साथ उनकी बीमार स्त्रियां, बच्चे तथा बहुत सारा सामान था। कुछ समय पश्चात् उन्हें लूट का एक भाग रास्ते में ही छोड़ देना पड़ा था। अजमेर के असिस्टेण्ट कमिश्नर ले. वॉल्टर्स तथा राजपूताना की फीर्ल्ड फोर्सेज के डिप्टी असिस्टेण्ट क्वार्टर मास्टर जनरल ले. हीथकोट ने विद्रोहियों का पीछा किया। उनके साथ एक हजार सिपाही थे।
यह टुकड़ी राज ट्रूप्स कहलाती थी। इसमें निकटवर्ती जयपुर तथा जोधपुर रियासतों के सैनिक थे। इन सैनिकों ने विद्रोहियों पर आक्रमण नहीं किया। इन्होंने इस बात को छिपाया भी नहीं कि उन्हें विद्रोहियों से सहानुभूति है। 18 जून 1857 को क्रांतिकारी सैनिक दिल्ली पहुँचे तथा उन्होंने दिल्ली में पड़ाव डाल दिया।
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12 जून 1857 को लाइट इन्फैण्ट्री डीसा से नसीराबाद पहुँच गई। अजमेर से 100 मील की दूरी पर एरिनपुरा छावनी में अनयिमित सेना थी जिसे जोधपुर लीजियन कहा जाता था। ब्रिटिश अधिकारियों के अधीन दो स्थानीय कोर भी थे जिनमें से एक भील कोर थी जिसमें मेवाड़ी भील सैनिक थे। दूसरी सेना खेरवाड़ा की मेरवाड़ा बटालियन थी जिसकी भरती कर्नल डिक्सन के द्वारा की गई थी। ये दोनों सेनायें अँग्रेजों के प्रति स्वामिभक्त बनी रहीं।
जब फर्स्ट बंगाल इंफैण्ट्री ने विद्रोह किया तो भील कोर ने उसे विफल कर दिया। चलो दिल्ली मारो फिरंगी का नारा लगाते हुए विद्रोहियों के दिल्ली रवाना होने के कुछ दिन बाद 12वीं बॉम्बे नेटिव इन्फैण्ट्री की इकाई, जोधपुर लीजियन की इकाई, सैकेण्ड बॉम्बे नेटिव इन्फैण्ट्री, तीन तोपें, बॉम्बे हॉर्स आर्टिलरी तथा हिज मैजस्टी की 83वीं बटालियन के 200 सिपाहियों ने नसीराबाद पहुँचकर स्थानीय लोगों को अभयदान दिया। जो अँग्रेज अधिकारी विद्रोह के दिन नसीराबाद छोड़कर ब्यावर चले गये थे, वे इन टुकड़ियों के साथ नसीराबाद लौट आये।
12 जून को फर्स्ट बॉम्बे लांसर्स का एक घुड़सवार घोड़े पर सवार होकर अपने सैनिकों की पंक्ति के समक्ष खड़ा हो गया तथा उसने अपने साथियों को विद्रोह करने के लिये आमंत्रित किया। बॉम्बे लांसर्स ने उसका पीछा किया, विद्रोही ट्रूपर, 12वीं बॉम्बे नेटिव इन्फैण्ट्री की पंक्तियों में भाग गया जहाँ उसे शरण मिल गई। ब्रिगेडियर हेनरी मकाउ ने 12वीं बॉम्बे नेटिव इन्फैण्ट्री को बैरकों से बाहर आने के आदेश दिये। इस पर केवल 40 सैनिक बाहर आये। ब्रिगेडियर ने तोपें मंगवा लीं तथा 83वीं पैदल टुकड़ी को दण्डित करने के निर्देश दिए।
थोड़ी देर में ही विद्रोही घुड़सवार को एक तोपची ने मार गिराया। उसके पांच विद्रोही साथियों को फांसी पर चढ़ा दिया गया। तीन को आजीवन कारावास दिया गया तथा पच्चीस सैनिकों के हथियार छीनकर दूसरे सैनिकों को दे दिये गये। कर्नल डिक्सन को आधुनिक अजमेर-ब्यावर का निर्माता माना जाता है। वह भारतीयों से बहुत प्रेम करता था तथा भील सैनिकों के साथ-साथ उसके सम्पर्क में आए समस्त भातीय सिपाहियों में बहुत लोकप्रिय था। इस कारण नसीराबाद के सैनिक विद्रोह से कर्नल डिक्सन को गहरा आघात पहुँचा जिससे 25 जून 1857 को ब्यावर में उसका निधन हो गया।
कर्नल एबॉट ने भारतीय सिपाहियों को गंगाजल तथा कुरान पर हाथ धरकर शपथ दिलवायी कि वे अँग्रेजी हुकूमत के प्रति वफादार रहेंगे। उसने स्वयं भी बाइबिल पर हाथ रखकर शपथ ली कि वह अपने भारतीय सैनिकों पर पूरा विश्वास रखेगा किंतु अविश्वास का वातावरण बन चुका था इसलिये इन शपथों से कुछ नहीं हुआ। 3 जून 1857 को रात्रि 11 बजे भारतीय सैनिकों ने तोपखाने पर अधिकार करके छावनी को घेर लिया तथा उसमें आग लगा दी।
कप्तान मेकडोनल्ड ने किले की रक्षा का प्रयास किया किंतु वहाँ तैनात टुकड़ी भी विद्रोही हो गयी। सैनिक कोष से 50 हजार रुपये तथा असैनिक कोष से 1 लाख 26 हजार रुपये लूट लिये गये। एक सार्जेंण्ट की पत्नी की हत्या करके उसके बच्चों को अग्नि में फैंक दिया गया। इसके अतिरिक्त कोई हत्या नहीं हुई।
नीमच छावनी से लगभग 40 अँग्रेज, औरतें व बच्चे मेवाड़ की ओर भागे। डूंगला गाँव में एक किसान ने उन्हें शरण दी। इसी समय खबर आयी कि मेवाड़ पोलिटिकल एजेंट कप्तान शावर्स बेदला के राव बख्तसिंह के नेतृत्व में सेना लेकर नीमच आ रहा है। इस पर विद्रोही सिपाहियों ने लूट का माल लेकर बैण्ड बजाते हुए छावनी से कूच किया।
10 जुलाई 1857 को कर्नल लॉरेंस ने नसीराबाद से हर मेजस्टी की 83वीं रेजीमेंट के 100 सैनिक, 12वीं बॉम्बे नेटिव इन्फैण्ट्री के 200 सैनिक, सैकेण्ड बॉम्बे कैवलेरी का एक स्क्वैड्रन तथा अजमेर मैगजीन से दो तोपें नीमच भेजीं। तब तक नीमच के क्रांतिकारी सैनिक दिल्ली के लिये कूच कर चुके थे।
राजपूताना की शाहपुरा रियासत के शासक लक्ष्मणसिंह ने क्रांतिकारी सिपाहियों को शरण दी तथा उनके लिये रसद आदि की व्यवस्था की। निम्बाहेड़ा में भी इन सिपाहियों का भव्य स्वागत हुआ। इन सिपाहियों ने देवली पहुँच कर ब्रिटिश सैनिक छावनी को लूटा। अँग्रेज पहले ही देवली को खाली करके जहाजपुर जा चुके थे।
यहाँ से विद्रोही सिपाही टोंक तथा कोटा होते हुए दिल्ली पहुँचे और दिल्ली के क्रांतिकारियों से मिलकर अंग्रेज सेना पर आक्रमण किया। कप्तान शावर्स ने सेना लेकर विद्रोही सिपाहियों का पीछा किया। वह शाहपुरा भी गया किंतु शाहपुरा के शासक ने उसके लिये नगर के द्वार नहीं खोले। शावर्स जहाजपुर व नीमच भी गया। उसकी सहायता के लिये ए.जी.जी. जार्ज लॉरेन्स भी आ गया किंतु तब तक ये क्रांतिकारी वहाँ से भी दिल्ली के लिये कूच कर चुके थे।
ए.जी.जी. ने डीसा से एक यूरोपियन सेना बुलाकर नसीराबाद में नियुक्त की तथा वहाँ स्थित समस्त भारतीय सैनिकों को सेवा मुक्त कर दिया। 12 अगस्त 1857 को नीमच छावनी के कमाण्डर कर्नल जैक्सन को सूचना मिली कि भारतीय सैनिक पुनः नीमच में विद्रोह करने की योजना बना रहे हैं। सैनिकों ने एक अँग्रेज अधिकारी को मार दिया तथा दो अधिकारियों को घायल कर दिया। मेवाड़ी सैनिकों के सहयोग से इस विद्रोह को भी दबा दिया गया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता