हिन्दू समाज में उत्तर वैदिक काल में जिस वर्ण व्यवस्था का उद्भव हुआ, उस वर्ण व्यवस्था ने कालांतर में श्रम विभाजन के आधार को त्यागकर कर्म एवं उसकी श्रेणी के आधार पर जाति व्यवस्था को जन्म दिया। ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्र वर्ण के साथ-साथ एक अन्य वर्ग भी अस्तित्व में आया जिसे अन्त्यज कहा जाता था। इस वर्ग में डोम, मच्छीमार, चिड़ीमार, मातंग, चाण्डाल, चमार, सरगरा, ढोली, रैगर, खटीक, मेहतर, नट, जुलाहे आदि आते थे। इस वर्ग को शूद्रों से भी नीचा माना जाता था इस कारण उन्हें अस्पृश्य माना जाता था। अर्थात् उच्च वर्ण वालों के लिये इस वर्ग के लोगों का स्पर्श करना वर्जित था। यदि कोई व्यक्ति अस्पृश्य जाति के व्यक्ति को छूता था तो स्वयं अपवित्र हो जाता था। उसे अपवित्रता से मुक्त होने के लिये स्नान करना पड़ता था। ये लोग गांव की बाहरी सीमा पर रहते थे। हिन्दू समाज की इस कुप्रथा ने इन जातियों को नीच तथा अछूत कहकर तिरस्कृत एवं बहिष्कृत जैसी स्थिति में पटक दिया था। उन्नीसवी सदी में भी हिन्दू समाज में भेदभाव एवं ऊँच-नीच की भावना व्याप्त थी। निम्न जातियों को शिक्षा प्राप्त करने, अपना परम्परागत कार्य छोड़कर अन्य कार्य करने, सामाजिक उत्सवों में भाग लेने तथा राजनीति में भाग लेने का अधिकार नहीं था। वे सार्वजनिक कुओं, तालाबों और जलाशयों से स्वयं जल नहीं ले सकते थे। उनके लिये मंदिरों में प्रवेश करना, देवता की प्रतिमा को हाथ लगाना, वेद पढ़ना आदि कार्य पूरी तरह वर्जित थे। वे सामाजिक अधिकारों से वंचित थे तथा अन्य जातियों के साथ एक पंक्ति में बैठकर भोजन नहीं कर सकते थे।
यदि कोई अस्पृश्य जाति का व्यक्ति सामाजिक वर्जनाओं का उल्लंघन करता था तो उसे बुरी तरह मारा-पीटा जाता था। विरोध करने पर उसकी तथा उसके परिवार की हत्या भी कर दी जाती थी। इन कारणों से अस्पृश्यता की कुप्रथा, हिन्दू समाज के लिये कलंक बन गई तथा भारतीय समाज का बहुत बड़ा भाग दयनीय अवस्था को प्राप्त हो गया। शिक्षा एवं संस्कारों के आलोक से वंचित रह जाने से इस वर्ग के लोग निर्धन, कुसंस्कारित, अशिक्षित तथा असभ्य हो गये। उनका कार्य उच्च समझी जाने वाली जातियों की सेवा करना मात्र था। समाज में उन्हें घृणा की दृष्टि से देखा जाता था। उनकी आर्थिक दशा अत्यंत खराब थी। उन्हें पर्याप्त भोजन तथा वस्त्र नहीं मिलता था। उन्हें आध्यात्मिक उन्नति के अवसर भी उपलब्ध नहीं थे। उनके कानों में वेदों के मंत्रों का प्रवेश निषेध था। वे मोक्ष के भी भागीदार नहीं थे।
निर्योग्यताएँ दूर करने के प्रयास
अछूतों अथवा दलितों की सामाजिक, राजनीतिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, नैतिक तथा आध्यात्मिक दशा सुधारने के लिये सबसे पहले महात्मा बुद्ध तथा महावीर स्वामी आगे आये। उन्होंने जाति प्रथा का खण्डन कर दलितों को भी अन्य मनुष्यों के ही समान बताया। बुद्ध एवं महावीर की शिक्षाओं के कारण दलितों को भी मोक्ष का भागी समझा जाने लगा। कोई भी दलित, बौद्ध धर्म का अनुयायी होकर बौद्ध आश्रम में एवं जैन धर्म का अनुयायी होकर जैन उपाश्रय में बराबरी के अधिकार से प्रवेश पा सकता था। सिद्धों एवं नाथों ने भी वर्ण व्यवस्था को निरर्थक बताया। वैष्णव संतों ने समाज के लिये भक्ति, प्रपत्ति एवं शरणागति के मार्गों का प्रतिपादन करके अछूतों के लिये भी भगवत् प्राप्ति का मार्ग खोला।
मध्य काल में रामानन्द ने जाति-व्यवस्था को दूर करने का प्रयत्न किया। उन्होंने दलितों को भी अपना शिष्य बनाया। उनके बाद कबीर, नानक, तुकाराम, एकनाथ, नामदेव आदि सन्तों ने भी अस्पृश्यता दूर करने के प्रयत्न किये। इस युग के संतों ने घोषणा की- ‘जांत-पांत पूछे नहीं कोई, हरि भजे सो हरि को होई।’ इससे धर्म-भीरू हिन्दू समाज में दलितों के प्रति करुणा और सहानुभूति का भाव तो उत्पन्न हुआ किंतु अस्पृश्यता की भावना को समाप्त नहीं किया जा सका। इस काल में जुलाहे और मोची भी भगवान के बड़े भक्त हुए और उन्हें संत का दर्जा दिया गया।
जब मुसलमानों ने भारत में प्रवेश किया तो दलितों को अपने लिये नई राह दिखाई दी। इस्लाम में जाति भेद, छुआछूत तथा अस्पृश्यता जैसी बुराइयां नहीं थीं। इस्लाम को मानने वाले समस्त मनुष्य बराबर थे। यही कारण था कि बहुत से दलित, मुस्लिम शासकों के काल में स्वेच्छा से मुसलमान बन गये किंतु उन्हें शीघ्र ही अनुमान हो गया कि विदेशी मुसलमानों ने किसी भी भारतीय मुसलमान को बराबरी का दर्जा नहीं दिया, भले ही वह हिन्दुओं की किसी भी जाति से क्यों न आया हो। इसलिये दलितों के मुसलमान बनने की प्रक्रिया रुक गई। वे हिन्दू धर्म के किनारे पर ही सही किंतु अपने धर्म में बने रहे।
आधुनिक काल में दलितोत्थान के लिये किये गये प्रयास
आधुनिक युग में सर्वप्रथम राजा राममोहन राय ने ब्रह्म-समाज के माध्यम से जाति-व्यवस्था के बन्धन शिथिल करके अस्पृश्यता दूर करने का प्रयत्न किया। इसके बाद स्वामी दयानन्द सरस्वती ने आर्य समाज के माध्यम से जाति-प्रथा, छुआछूत आदि बुराइयों का खण्डन किया। उन्होंने शुद्धि संगठन का सूत्रपात किया जिसके माध्यम से उन मुसलमानों को फिर से हिन्दू धर्म में लौट आने के लिये प्रेरित किया जो ना-ना कारणों से मुसलमान अथवा ईसाई हो गये थे। आर्य समाज ने दलितों की दशा सुधारने का अथक प्रयास किया और उन्हें उत्तर भारत के अनेक प्रांतों में कुछ सफलता भी मिली। उन्होंने अछूतों में शिक्षा का प्रसार करके उनमें नई स्फूर्ति फूंकने का प्रयास किया। महाराष्ट्र में ज्योति राव फूले ने इस दिशा में महत्वपूर्ण कार्य किया। उन्होंने सत्य शोधक समाज के माध्यम से दलितों में स्त्री-शिक्षा का प्रसार किया, अस्पृश्यता का जोरदार विरोध किया तथा ब्राह्मणवाद को चुनौती दी।
ईसाई मिशनरियों के प्रयास
1876-77 ई. में देश में भयंकर अकाल पड़ा जिसके कारण निर्धन अवस्था में जी रहे दलित, बड़ी संख्या में मरने लगे। इस अवस्था में ईसाई मिशनरियों ने आगे बढ़कर दलितों की बड़ी सहायता की। इससे प्रभावित होकर 1880 ई. से दलित जातियाँ बड़ी संख्या में धर्म परिवर्तन कर ईसाई बनने लगीं। आर्य समाज ने इस खतरे का अनुभव करते हुये इनके उद्धार के लिये प्रयत्न किये।
महात्मा गाँधी के अछूतोद्धार कार्य
1920 ई. के बाद महात्मा गाँधी के नेतृत्व में कांग्रेस ने अस्पृश्यता निवारण को अपने रचनात्मक कार्यक्रम का अंग बनाया। इसी काल में बाबा साहब भीमराव अम्बेडकर का भी इस क्षेत्र में पदार्पण हुआ। गाँधी और अम्बेडकर के प्रयासों से हरिजनों के मन्दिर प्रवेश के लिये कानून बना। अम्बेडकर द्वारा दलितों को सवर्ण हिन्दुओं से अलग मानते हुये उनके लिये अलग स्थान आरक्षित करने की माँग की गई। इसके परिणाम स्वरूप 1932 ई. में ब्रिटिश सरकार ने साम्प्रदायिक पंचाट की घोषणा की जिसके अनुसार हरिजनों को हिन्दुओं से अलग मानकर विधान मण्डलों में अलग प्रतिनिधित्व दिया गया। गाँधीजी ने इसके विरोध में पूना में अनशन किया। अन्त में गाँधीजी और अम्बेडकर के बीच पूना पैक्ट हुआ जिसमें गाँधीजी ने दलितों के लिये अलग प्रतिनिधित्व की बात स्वीकार करते हुए हिन्दुओं व दलितों का निर्वाचन संयुक्त रखा। इसी समय गाँधीजी ने दलितों को हरिजन अर्थात् ईश्वर का व्यक्ति, नाम दिया। गाँधीजी ने हरिजनों की दशा सुधारने के लिये हरिजन सेवक संघ की स्थापना की तथा हरिजन नामक समाचार पत्र निकाला जिसमें अस्पृश्यता निवारण एवं हरिजनोद्धार सम्बन्धी लेख प्रकाशित होते थे। गाँधीजी ने हरिजनोद्धार के लिये पूरे देश का दौरा किया तथा हिन्दू समाज में हरिजनों के प्रति नई दृष्टि विकसित की। 1937 ई. में ब्रिटिश प्रान्तों में कांग्रेसी सरकारें स्थापित होने के बाद हरिजनों की उन्नति, शिक्षा तथा सामाजिक प्रतिबन्धों को दूर करने की ओर ध्यान दिया गया। द्वितीय विश्व युद्ध के बाद सरकार द्वारा इस दिशा में कुछ और कार्य किये गये।
डॉ. भीमराव अम्बेडकर (1891-1965 ई.) के प्रयास
दलितों के मसीहा माने जाने वाले डॉ. भीमराव अम्बेडकर का जन्म 14 अप्रेल 1891 को हुआ। 1927 ई. में उन्होंने बम्बई से बहिष्कृत भारत नामक पाक्षिक पत्र निकाला। 1930 ई. में वे अखिल भारतीय दलित वर्ग संघ के अध्यक्ष बने तथा 1930-31 ई. में दलितों के प्रतिनिधि बनकर लन्दन में आयोजित प्रथम एवं द्वितीय गोलमेज सम्मेलनों में भाग लेने गये। वहाँ उन्होंने अछूतों को हिन्दू-समाज से पृथक् प्रतिनिधित्व दिलाने में सफलता प्राप्त की। दलितों को अलग प्रतिनिधित्च दिलवाने के विषय पर अम्बेडकर का गाँधीजी से टकराव रहा। 1936 ई. में अम्बेडकर ने इंडिपेन्डेन्ट लेबर पार्टी की स्थापना की और दलितों, मजदूरों तथा किसानों की माँगों के लिये संघर्ष किया। बाद में उन्होंने इस पार्टी को अखिल भारतीय अनुसूचित जाति संघ में बदल दिया। 1946 ई. में उन्हें संविधान प्रारूप समिति का अध्यक्ष बनाया गया। 3 अगस्त 1949 को उन्हें भारत सरकार में विधि मन्त्री बनाया गया। वे अछूत मानी जाने वाली जातियों की स्थिति में सुधार नहीं आने के कारण असंतुष्ट थे। इस कारण सितम्बर 1951 में उन्होंने अपने पद से त्यागपत्र दे दिया। अक्टूबर 1950 में अम्बेडकर ने अपने लाखों अनुयायियों के साथ बौद्ध धर्म स्वीकार कर लिया। उनकी दृष्टि में विदेशी धरती से आये किसी भी धर्म का अनुयायी होने के स्थान पर, भारत की भूमि पर उत्पन्न किसी भी धर्म का अनुयायी हो जाना अधिक श्रेयस्कर था। 6 दिसम्बर 1965 को बाबा साहब का निधन हो गया।
डॉ. अम्बेडकर ने ब्राह्मणवाद, सवर्णों एवं उच्च जातियों के दम्भ और पाखण्ड के विरुद्ध आजीवन संघर्ष किया। उन्होंने इस संघर्ष को प्रचार आन्दोलन, शास्त्रार्थ, कानूनी लड़ाई, राजनीतिक आंदोलन और अंहिसा के दायरे में रखा। बाबा साहब द्वारा आरम्भ किया गया दलितोद्धार आन्दोलन, ब्रह्म-समाज, आर्य-समाज, विवेकानन्द और गाँधीजी के रचनात्मक कार्यक्रम से अधिक प्रभावी एवं अधिक रचनात्मक था। उनकी दृष्टि में वर्ण व्यवस्था ही अस्पृश्यता की जड़ थी। इसी वर्ण-व्यवस्था के आधार पर हिन्दू समाज, दलितों के प्रति अन्यायपूर्ण, अव्यवहारिक, अमानवीय तथा शोषणकारी व्यवहार करता था। उनका कहना था कि संसार के अन्य किसी धर्म, देश और समुदाय में ऐसी आत्मघाती व्यवस्था नहीं पायी जाती। श्रम-विभाजन और विशेषीकरण की स्वाभाविक योजना से इसका कोई सम्बन्ध नहीं है। मनुष्यों को किसी भी आधार पर स्पष्टतः चार वर्णों में विभाजित नहीं किया जा सकता। पुरूष-सूक्त के अतिरिक्त कहीं भी चार वर्णों का उल्लेख नही मिलता किंतु मनु तथा याज्ञवल्क्य आदि स्मृतिकारों ने अपने ग्रन्थों में स्थायी रूप से शूद्रों को हीन स्थिति में डाल दिया और उन्हें धार्मिक, सामाजिक, आर्थिक एवं राजनैतिक अधिकारों से वंचित कर दिया। अस्पृश्यता निवारण के लिये ब्राह्मणवाद तथा ब्राह्मण-शास्त्रों की समाप्ति आवश्यक है। यह केवल राज्य की सहायता से ही किया जा सकता है। उनका मानना था कि अछूतों को सभी सार्वजनिक स्थानों के प्रयोग का अधिकार हो। स्वयं डॉ. अम्बेडकर ने 1927 ई. में महद तालाब सत्याग्रह तथा बाद में गंगासागर तालाब सत्याग्रह और 1930 ई. में कालाराम मन्दिर प्रवेश आन्दोलन चलाये। अस्पृश्यता एवं जाति-प्रथा के विरुद्ध उनका संघर्ष सफल रहा। इससे समाज में छुआछूत की भावना बहुत हद तक कम हो गई। उनके दलितोद्धार कार्यक्रम ने हिन्दू समाज और भारत राष्ट्र की महान् सेवा की है।
स्वतंत्रता-प्राप्ति के बाद समाज-सुधार के कार्य
दलितों के कल्याण के सार्थक प्रयास, भारत के स्वतंत्र होने के बाद ही आरम्भ किये जा सके। आजादी के बाद भारत सरकार एवं प्रांतीय सरकारों ने दलितों के उत्थान के लिये अनेक कार्यक्रम आरम्भ किये जो आज तक चल रहे हैं। भारत के संविधान ने धर्म, जाति, लिंग, भाषा, वर्ण इत्यादि के भेदभाव से परे सभी नागरिकों को समान राजनीतिक अधिकार प्रदान किये। इसमें दलित एवं वनवासी जनजातियाँ भी सम्मिलित थीं। संविधान की धारा 17 में कहा गया है- ‘अस्पृश्यता समाप्त कर दी गई है और इसके किसी भी रूप में अमल पर पाबन्दी है। छुआछूत से सम्बन्धित कोई भी भेदभाव कानून की नजरों में दण्डनीय अपराध होगा।’
1955 ई. में संसद ने अस्पृश्यता (अपराध) एक्ट पारित किया। इसमें स्पष्ट किया गया कि ऐसे अपराधों के लिये दण्ड, लाइसेन्स रद्द किया जाना एवं सार्वजनिक सहायता बन्द करना आदि प्रावधान सम्मिलित हैं। 1976 ई. में नागरिक अधिकार संरक्षण (संशोधन) एक्ट पारित करके, अस्पृश्यता करने वालों के लिये और भी कठोर सजा का प्रावधान किया। इस कानून की पालना करवाने के लिये विशेष अधिकारियों, विशेष न्यायालयों, विधिक सहायता आदि के प्रावधान किये गये। संविधान में जनजातियों के लिये विधायिकाओं, शैक्षणिक संस्थाओं और सरकारी सेवाओं में सीटों के आरक्षण का प्रावधान भी जोड़ा गया। आरम्भ में आरक्षण दस वर्षों के लिए किया गया किंतु तब से इसे लगातार बढ़ाया जाता रहा है। दलितों की शिक्षा के लिये शिक्षण-संस्थाओं में भी सीटों के आरक्षण की व्यवस्था की गई तथा दलित विद्यार्थियों के लिये विशेष छात्रवृत्तियों की योजनाएं आरम्भ की गईं। उनके लिये अलग से विद्यालय एवं छात्रावास खोले गये। इन उपायों के परिणामस्वरूप दलितों में शिक्षा का तेजी से प्रसार हुआ। सरकारी सेवाओं में उनके आरक्षण की व्यवस्था से उनके लिये रोजगार के अवसर बढ़े जिससे लाखों दलित परिवारों की आर्थिक स्थिति में जबरदस्त बदलाव आया है।
दलितोद्धार कार्यक्रमों का भावी स्वरूप
विगत तिहत्तर वर्षों के दलितोद्धार कार्यक्रमों को चलाये जाने के बाद भी यह अनुभव किया जा रहा है कि दलितों के उद्धार के लिये चलाये जा रहे कार्यक्रमों का लाभ बहुत बड़ी संख्या में दलित परिवारों तक नहीं पहुंच पा रहा है। इसलिये सर्वशिक्षा जैसे अभियान प्रारम्भ किये गये हैं ताकि समाज का कोई भी परिवार शिक्षा के आलोक से वंचित न रहे। यदि सम्पूर्ण भारतीय समाज शिक्षित होगा तो निश्चित रूप से समाज में कोई दलित नहीं रह जायेगा।