दौराई का युद्ध मुगलों के इतिहास में वैसा ही महत्व रखता है जैसा कि शामूगढ़ का युद्ध। इन दोनों युद्धों ने न केवल औरंगजेब का अपितु भारत का भी भाग्य पलट दिया। औरंगजेब का भाग्य बन गया और भारत का बिगड़ गया।
दारा की तरफ से अजमेर में बांधा गया मोर्चा प्राकृतिक दृष्टि से काफी मजूबत था किंतु व्यावहारिक दृष्टि से, चश्मे के मुंह के दोनों तरफ फैले हुए होने से, दोनों तरफ के योद्धाओं का एक दूसरे तक पहुँचना अत्यंत कठिन था। ऐसी स्थिति में चश्मे के एक तरफ की सेना के कमजोर पड़ जाने पर दूसरी ओर से सहायता नहीं पहुँचाई जा सकती थी।
इधर दारा मोर्चा जमाने में व्यस्त था और उधर औरंगजेब, अजमेर की ओर तेजी से बढ़ा चला आ रहा था। औरंगजेब अब तक की विजयों से इतना उत्साहित था तथा सेना, सामग्री और अनुभव की दृष्टि से इतना समृद्ध था कि उसे अपनी स्थिति की कमजोरी और शक्ति पर ध्यान देने की आवश्यकता ही अनुभव नहीं हुई।
औरंगजेब अपनी विजय के प्रति इतना आश्वस्त था कि उसकी सेना ने रामसर से दौराई तक की 22 मील की दूरी दो दिन में पूरी कर ली। दौराई को उन दिनों देवराई कहा जाता था। औरंगजेब ने यहीं पर अपना डेरा लगाया, अब वह दारा से केवल दो मील दूर रह गया।
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मिर्जाराजा जयसिंह ने औरंगजेब के दाहिनी ओर मोर्चा जमाया। पुर्दिल खाँ को 150 आदमियों की एक टुकड़ी के साथ, रात्रि में ही शत्रु से सम्पर्क करने के लिये भेजा गया। उसने एक मील आगे चलकर रात्रि में एक नीची पहाड़ी पर अपना मोर्चा जमाया। यहाँ से दारा का शिविर केवल एक मील रह गया था।
जब प्रातः होने पर दारा के आदमियों ने पुर्दिल खाँ को पहाड़ी पर मोर्चा जमाये हुए देखा तो उन्होंने पुर्दिल खाँ पर आक्रमण किया। इसी के साथ दौराई का युद्ध आरम्भ हो गया। इस पर औरंगजेब ने शफ्शकिन खाँ को पुर्दिल खाँ की सहायता के लिये भेजा। शफ्शकिन खाँ ने पुर्दिल खाँ के पास पहुँचकर दारा के आदमियों पर गोलाबारी आरंभ कर दी। इस पर दारा के आदमी मुड़कर पीछे चले गये।
शफ्शकिन खाँ ने पहाड़ियों पर तेजी से अपने आदमी फैला दिये। इसके बाद उसने दारा के मोर्चों की तरफ लम्बी दूरी की फायरिंग आरंभ कर दी। शफ्शकिन खाँ ने अपने मोर्चे की रक्षा के लिये शेख मीर तथा दिलेर खाँ के नेतृत्व में रक्षा टुकड़ियां तैनात कीं जो इन्हें आकस्मिक हमलों से बचा सके।
अब तक औरंगजेब की सेना ने सामान्य आक्रमणों के लिये स्वयं को व्यवस्थित कर लिया। अमीर उल उमरा तथा राजा जयसिंह को औरंगजेब के बाएं हिस्से में नियुक्त किया गया, उनका मुंह कोकला पहाड़ी की तरफ था। दाहिनी ओर नियुक्त असद खाँ तथा होशदाद खाँ को घाटी के बाईं ओर आक्रमण करने के निर्देश दिये गये जो बीठली गढ़ की तरफ की एक खड़ी चट्टान से लगी हुई थी। इसके बाद शफ्शकिन खाँ अपनी तोपों को तीन सौ गज और आगे ले गया।
11 मार्च 1659 की शाम को दोनों तरफ से भारी बमबारी आरंभ हुई जो पूरी रात चलती रही। अगले दिन का काफी हिस्सा भी इसी बमबारी में गुजर गया। वातावरण में धुंए का गुब्बार आंधी की तरह छा गया। तोपों से निकले गोलों की चिंगारियां बिजली की तरह चमकती थीं। पूरी घाटी में गंधक, आग और लपटें फैल गईं। दौराई का युद्ध परवान चढ़ गया।
इस धुएं की ओट में छिपकर दोनों ओर के सिपाही, शत्रु तोपों तक पहुंच गए और उन्होंने द्वंद्व युद्ध करके तोपचियों को काबू में कर लिया। इस कारण तोपें कुछ देर के लिये बंद हो गईं किंतु शीघ्र ही इन सिपाहियों को पीछे से आये शत्रु सैनिकों की बंदूकों की गोलियों, तलवारों तथा बर्छियों ने वापस धकेल दिया। औरंगजेब की सेना की तरफ से फायरिंग जारी रही।
औरंगजेब की सेनाएं, दारा के मोर्चे की तरफ इंदरकोट की जिस प्राचीन दीवार को गिराने के लिये तोप के गोले दाग रही थी, वह अब भी मजबूती से खड़ी हुई थी। इस पर औरंगजेब ने अपनी सेनाओं को आगे बढ़कर हमला करने को कहा किंतु औरंगजेब के सेनापतियों ने ऐसा करने से मना कर दिया तथा कहा कि जब तक तोपें अपना काम पूरा नहीं कर लेतीं, तब तक हमें आगे नहीं बढ़ना चाहिये।
दारा की सेना इस दीवार की आड़ में से औरंगजेब की सेना पर आग बरसाती रही। दारा के सिपाही ऊँचाई पर थे तथा मोर्चों एवं दीवार की आड़ में थे इसलिये उन्हें कम हानि पहुँच रही थी जबकि औरंगजेब की सेना निचाई पर थी और खुले मैदान में होने से अधिक हानि उठा रही थी।
इस प्रकार दूसरा दिन बीत जाने पर भी युद्ध में कोई प्रगति नहीं हो सकी। दारा की ओर से की गई मजबूत मोर्चाबंदी के कारण औरंगजेब की सेना को यह विश्वास हो चला था कि दारा के शिविर में घुस पाना असंभव है। औरंगजेब के सिपाही डगमगाने लगे थे।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता