भारतीय ज्योतिष एवं कालगणना का इतिहास अत्यंत प्राचीन है। प्रसिद्ध फ्रांसीसी ज्योतिषी विओट ने लिखा है कि भारतीयों ने नक्षत्र ज्ञान चीनियों से ग्रहण किया। एक अन्य यूरोपीय विद्वान ह्विटनी भी इस मत का समर्थक है। कुछ अन्य विद्वानों ने लिखा है कि भारतीयों ने नक्षत्र ज्ञान बेबिलोन के लोगों या अरब के लोगों से प्राप्त किया।
इन विद्वानों ने जानबूझकर सही तथ्यों की अनदेखी की है तथा ऋग्वेद को केवल ई.पू.1200 का बताकर भारतीय ज्योतिष को विदेशों से ग्रहण किया जाना बताया है। अनेक उद्धरणों से यह सिद्ध किया जा सकता है कि विदेशी विद्वान झूठ बोल रहे हैं।
जहाँ विदेशी विद्वान कह रहे हैं कि भारतीयों ने ज्योतिष का ज्ञान अरबवासियों से लिया, वहीं प्राचीन अरबवासियों ने स्वयं लिखा है कि उन्होंने अपना ज्योतिषशास्त्र भारतीय सिद्धान्तों से बनाया। ई.622 में अरब में इस्लाम का उदय हुआ। इस्लाम के अनुयाइयों ने लिखा है कि उस समय अरब में असभ्य तथा बर्बर लोग रहते थे। इसलिए मुहम्मद की सेनाओं ने इन असभ्य लोगों को मारकर इस्लाम का प्रसार किया। वस्तुतः ये दोनों तरह के लोग झूठ बोल रहे हैं। जो लोग यह कह रहे हैं कि अरबवासियों ने भारतवासियों को ज्योतिष एवं गणित का ज्ञान दिया वे भी झूठे हैं तथा तथा जो लोग यह कह रहे हैं कि इस्लाम के उदय के समय अरब में असभ्य लोग रहते थे, वे भी झूठे हैं।
अरबवासी इस्लाम के उदय से पहले भी सभ्य थे। वे तीन देवियों की पूजा करते थे जिनका साम्य दुर्गा, सरस्वती एवं लक्ष्मी से बैठता है। उन्हें ज्योतिष एवं गणित का ज्ञान था जो निःसंदेह भारत से अरब में गया था। जिस समय मुहम्मद की सेनाएं अरब के प्राचीन सभ्यता के लोगों को मार रही थीं, उस समय भारत में ब्रह्मगुप्त शून्य का अविष्कार कर रहे थे। यह शून्य ही आज सम्पूर्ण जगत में गणित एवं ज्योतिष का आधार बना हुआ है। संसार का कोई भी विज्ञान शून्य के बिना गूंगा, बहरा, लंगड़ा एवं अंधा है।
जहाँ तक सिइयू के चीनी सिद्धान्त का प्रश्न है, उसमें मूलतः 24 नक्षत्र थे जबकि वैदिक ग्रन्थों में 24 नक्षत्रों की कोई चर्चा नहीं हुई है। वेदों में अभिजीत नक्षत्र के बिना 27 तथा अभिजीत नक्षत्र सहित 28 नक्षत्रों का उल्लेख हुआ है। चीन के सिइयू सिद्धांत ने भी आगे चलकर 28 नक्षत्र मान लिए। इस प्रकार चीन ने भारतीयों से ज्योतिष ग्रहण किया है न कि भारत ने चीन से।
नक्षत्रों की महत्ता ऋग्वेद के समय से अर्थात् ईसा के जन्म से लगभग 4000 साल पहले से भी अधिक पहले समझ ली गई थी। ऋग्वेद की अनेक ऋचाओं में नक्षत्रों का उल्लेख हुआ है, यथा- मघा नक्षत्र में कन्यादान और पूर्वाफाल्गुनी में गोदान करना चाहिए। एक ऋचा में यमगृह के रक्षक दो श्वानों के रूप में अश्विनी नक्षत्र (दो तारों का युग्म) का उल्लेख हुआ है। विभिन्न ऋचाओं में सप्तर्षिमंडल, सात लोक, आकाशीय पिंडों के पारस्परिक आकर्षण का उल्लेख आया है। ऋग्वेद में उल्लेख आया है कि ‘वासंत विषुवद्दिन’ कृत्तिका नक्षत्र के स्थान पर मृगशिरा नक्षत्र में पड़ने लगा। बाल गंगाधर तिलक ने नक्षत्रों की गणना करके बताया कि यह घटना ईसा के जन्म से 4,000 वर्ष पहले घटित हुई। चूंकि वासंत विषुवद्दिन कृत्तिका नक्षत्र के स्थान पर मृगशिरा नक्षत्र में आने की गणना विशुद्ध ज्योतिषीय है, अतः भारतीय ज्योतिष भी उतना ही पुराना है, जितना कि ऋग्वेद। इस समय तक संसार में किसी भी सभ्यता के पास ज्योतिषीय ज्ञान नहीं था।
वेदों में ज्योतिष का सम्बन्ध धार्मिक-कृत्यों विशेषकर यज्ञों के आयोजनों से था किंतु बेबिलोन एवं चीन में यज्ञों की कोई परम्परा नहीं थी। भारत में वैदिक काल में कोई व्यक्ति किसी निर्दिष्ट नक्षत्र में अग्नि प्रज्वलित किये बिना, यज्ञ नहीं कर सकता था। माघ, फाल्गुन, चैत्र आदि मासों के नाम नक्षत्रों के आधार पर ही बने, और यह बात संस्कृत भाषा में ही पायी जाती है, यूनानी, लैटिन या चीनी में नहीं। नक्षत्रों के देवता वैदिक हैं, उनके बेबिलोनी या चीनी नाम नहीं पाये जाते। बेबिलोन में जो प्राचीन ज्योतिष सम्बन्धी आलेख प्राप्त हुए हैं, उनमें नक्षत्रों की गणना वैसी नहीं है जैसी कि हम वैदिक साहित्य में पाते हैं।
तैत्तिरीय संहिता और तैत्तिरीय ब्राह्मण में 27 एवं 28 नक्षत्रों का उल्लेख प्रमुखता के साथ हुआ है किंतु इन ग्रंथों के लिखे जाने से बहुत पहले, वैदिक ऋषियों ने नक्षत्रों की संख्या 27 या 28 निश्चित कर ली थी। वैदिक काल में ही नक्षत्रों, उनके नामों, उनके देवताओं आदि के क्रम यज्ञीय कृत्यों में समाहित हो चुके थे।
भारतीय ज्योतिष में समस्त नक्षत्रों के भारतीय नाम, किसी न किसी विशिष्ट अर्थ अथवा प्राकृतिक घटना के संदर्भ से संलग्न हैं और उनके साथ सार्थक अनुश्रुतियाँ भी बँधी हुई हैं। उदाहरणार्थ, आर्द्रा का अर्थ है- ‘भीगा हुआ।’ यह नक्षत्र आर्द्रा नाम से इसलिए जाना गया क्योंकि जब सूर्य आर्द्रा नक्षत्र में स्थित होता है तो वर्षा आरम्भ हो जाती है। पुनर्वसु का यह नाम इसीलिए पड़ा क्योंकि धान एवं जौ के बीज जो भूमि में पड़े थे, अब नये धान के रूप में अंकुरित हुए अर्थात् उनका ‘पुनर्वपन’ हुआ। ‘पुष्य’ नक्षत्र का नाम इसीलिए पड़ा क्योंकि इस नक्षत्र के काल में नये अंकुर बढ़ते और पोषित होते हैं।
आश्रेषा या आश्लेषा नाम इसीलिए पड़ा क्योंकि सूर्य के इस नक्षत्र में आने पर, धान या जौ के पौधे इतने बढ़ गये कि वे एक-दूसरे का आलिंगन करने लगे अर्थात् एक दूसरे का आश्रय लेने लगे। मघा नक्षत्र का नाम इसलिए मघा पड़ा क्योंकि धान या अन्य पौधे खड़े अन्नों के रूप में हो गये, जो स्वयं धन है। कृत्तिका नाम इसलिए पड़ा क्योंकि वे (6 या 7) चितकबरे मृगचर्मों के समान हैं, जिन पर वेद के छात्र वेदाध्ययन के लिए आसन जमाते थे।
ये समस्त तथ्य भारतीय ज्योतिष को भारतीय जन-जीवन की समझ से उत्पन्न ज्ञान सिद्ध करते हैं, न कि विदेशी नकल से ग्रहण किया हुआ। प्रो. जैकोबी ने स्पष्ट किया है कि कृत्तिका से आरम्भ नक्षत्र-श्रेणी, भारत की प्राचीनतम नक्षत्र-व्यवस्था नहीं थी, अपितु भारतीयों के पास इससे भी प्राचीन व्यवस्था थी, जिसमें महाविषुव के काल से आरम्भ करके गूगशीर्ष नक्षत्र से नक्षत्र श्रेणी की गणना की जाती थी।
ईसा के जन्म से कुछ हजार साल पहले लिखित ऐतरेय ब्राह्मण में लिखा है- ‘सूर्य एक है और वह कभी अस्त नहीं होता।’ अर्थात् सूर्य न तो अस्त होता है और न उदित। वह धरती के किसी न किसी भाग में चमकता रहता है। जबकि यूरोप के लोग इस बात को बहुत बाद में जान सके। ईसा के जन्म से केवल 600 साल पहले यूनान (ग्रीस) में हिराक्लिटस नामक एक ज्योतिषी ने बड़ी ही भ्रामक उक्ति कही थी- ‘एक नया सूर्य प्रति दिन जन्म लेता है और मरता है।’ वैदिक ऋषियों की धारणा से विपरीत, जैनग्रंथ ‘सूर्यप्रज्ञप्ति’ में लिखा है- ‘दो सूर्य एवं दो चन्द्र हैं। जब एक अस्त होता है तो दूसरा उदित होता है।’
बेबिलोनवासियों द्वारा ग्रह-निरीक्षण ई.पू. दूसरी सहस्राब्दी में आरम्भ किया गया था। अर्थात् ऋग्वेद की रचना के कम से कम दो हजार साल बाद। वहाँ सर्वप्रथम शुक्र ग्रह का अध्ययन हुआ। शुक्र-निरीक्षण से उत्पन्न तालिकाएँ लगभग ई.पू.1900 में बनीं। इसके बाद बृहस्पति एवं मंगल का निरीक्षण हुआ। बृहस्पति को स्वाभाविक रूप से अच्छा मान लिया गया, जबकि वह चमकदार हो या चन्द्र का अनुसरण करे।
उनके लिए मंगल दुर्भाग्य का ग्रह था किन्तु यदि वह दुर्बल हो या अस्त हो गया हो तो बुरे प्रभाव नष्ट हो जाते थे। शनि (अटल रूप से खड़ा रहने वाला) भाग्य का ग्रह कहा गया। इसी प्रकार अन्य ग्रहों के फल कहे गये। बेबिलोनिया में ग्रहों को विभिन्न नाम भी मिले। विभिन्न कालों में ग्रहों के क्रम अलग-अलग थे जिनका भारतीय ग्रह-ज्ञान से कोई सम्बन्ध नहीं है।
यूनान का कोई भी साहित्य ई.पू. 800 से पुराना नहीं है। होमर की कविताएँ एवं हेसिओड के ग्रन्थ सबसे प्राचीन यूनानी साहित्य हैं। होमर में सूर्य, चन्द्र, प्रातः एवं सायं, तारा, प्लेइआडस (कृत्तिका), ह्याडेस, ओराइन, ग्रेट बियर, सिरियस (ओराइन का कुत्ता), बूटेस का उल्लेख है, जिन्हें हेसिओड ने भी उल्लिखित किया है। हेसिओड का कथन है कि जाड़े के 60 दिनों के उपरान्त वसन्त का आगमन हुआ, किन्तु उसमें विषुव दिनों का उल्लेख नहीं है। इस बात से स्पष्ट है कि वैदिक ज्योतिषशास्त्र, इन दो यूनानी लेखकों से कई शताब्दियों पूर्व अथवा कई हजार वर्ष पूर्व, कई गुना विकसित था।
यूनानी लोग क्षयोन्मुख चन्द्र को अशुभ एवं बढ़ते चन्द्र को शुभ मानते थे। हेसिओडी पद्धति (जो ऋग्वेद से कई सहस्र वर्ष पश्चात् की है) भी शुभाशुभ दिनों की चर्चा करती है। यद्यपि हेसिओड स्वीकार करता है कि इसमें मतैक्य नहीं है। हेसिओड ने मास की पाँचवीं तिथि को विशिष्ट रूप से वर्जित माना है; अपोलो के लिए यूनान में सातवीं तिथि पवित्र थी और बेबिलोन में भी सातवीं तिथि पवित्र थी।
भारत, चीन, मिस्र, बेबिलोन, हित्ती (हिट्टाइट) एवं चाल्डियन सभ्यताएं (नियो बैबीलोनियन एम्पायर) विश्व की प्राचीनतम सभ्यताएं मानी जाती हैं। कैम्ब्रिज एंशियेण्ट हिस्ट्री के अनुसार मिस्र के लोग गणित का उपयोग ज्योतिषशास्त्र में नहीं के बराबर करते थे। हिट्टाइटों एवं चाल्डियनों में ज्योतिषी गणनाओं की कोई अवधारणा ही नहीं थी। ई.पू.800 के लगभग भी होमर एवं हेसिओड आदि यूनानी विद्वानों का ज्योतिष-ज्ञान बहुत अल्प था।
हिप्पार्कस, जो प्राचीन काल का सबसे बड़ा ज्योतिषशास्त्रज्ञ कहा गया है, उसने अपना कार्य लगभग ई.पू.130 में पूरा किया। वह मेसोपोटेमिया में किये गये ई.पू.747 के निरीक्षणों की जानकारी रखता था। टॉलेमी द्वारा ई.150 में लिखित ‘एल्मागेस्ट’ हिप्पार्कस द्वारा किये गये निरीक्षणों पर आधारित था और टॉलेमी के पूर्वजों के सारे कार्य भी हिप्पार्कस पर आधारित थे, जो टॉलेमी के स्पष्ट कार्यों के समक्ष नहीं ठहर सके। इस कारण उनका पठन-पाठन बन्द हो गया और वे नष्ट हो गये।
भारतीय ग्रन्थ यह स्वीकार नहीं करते कि भारतीय ज्योतिष शास्त्र का आधार यवन-ज्ञान था। ज्योतिषशास्त्र के ग्रन्थों में यूनानी मूल के शब्द प्राप्त नहीं होते। केवल वराहमिहिर ने अपने ग्रंथ फलित ज्योतिष में कुछ यूनानी शब्दों का प्रयोग किया है क्योंकि उन्होंने यूनान की यात्रा की थी। वराह मिहिर के ग्रंथ पंचसिद्धान्तिका में कहीं भी यूनानी शब्द का मूल प्रकट नहीं होता। इसका कारण संभवतः यह था कि इस पुस्तक के लिखने तक वराह मिहिर यूनान नहीं गए थे। वस्तुतः पंचसिद्धांतिका में भारत का सम्पूर्ण गणितीय-ज्योतिष समाया हुआ है। यह ज्ञान भारत से अन्य देशों को गया न कि वहाँ से भारत आया।
वेबर आदि ने वराहमिहिर द्वारा प्रयुक्त ‘रोमक’ एवं ‘पोलिश’ शब्दों को यूनानी बताया है। जबकि वास्तविकता यह है कि रोमक अथवा रोमश सिद्धांत वस्तुतः लोमश ऋषि का सिद्धांत है। भारत में आज भी ‘र’ को ‘ल’ और ‘ल’ को ‘र’ बोलते हैं। इसी प्रकार पोलिश सिद्धांत ‘पुलत्स्य’ अथवा उनके किसी वंशज ‘पौलत्स्य’ (विश्रवा आदि) के नाम पर है, न कि विदेश से आया हुआ कोई शब्द। यदि यह मान भी लिया जाए कि ‘रोमक’ शब्द अलेक्जेंड्रिया का है तो इससे यह सिद्ध नहीं होता कि वराहमिहिर के फलित ज्योतिष के सिद्धान्तों पर यूनानी प्रभाव है। ईसा बाद की शताब्दियों में रोमक सिद्धांत पर आधारित कोई भी ग्रन्थ या पंचांग भारत या किसी अन्य देश में प्राप्त नहीं हुआ है। न ही ऐसे किसी ग्रंथ का किसी अन्य ग्रंथ में उल्लेख ही हुआ है।
ईसा के जन्म से कई हजार साल पहले, भारत में ऐसे गणितज्ञ एवं ज्योतिषी हो चुके थे जिन्होंने गणित एवं ज्योतिष के ऐसे-ऐसे सिद्धान्त स्थापित किए जो आज भी विश्व भर में प्रचलित हैं किंतु उनका श्रेय भारत को नहीं मिल सका। भारत का गणित और ज्योतिष भारत से चलकर अरब और मिस्र होते हुए यूनान पहुंचा और वहीं के लोगों ने उस गणित और ज्योतिष का श्रेय ले लिया।
ईसा के जन्म से लगभग 500 साल पहले ग्रीस (यूनान) में उत्पन्न हुए गणितज्ञ-दार्शनिक पाइथोगोरस का उदाहरण हमारे सामने है। पाइथोगोरस ने मिस्र के ‘मेम्फिस’ नगर के पुजारियों से विद्याध्ययन किया था तथा उनसे ‘पाइथोगोरस प्रमेय’ के बारे में जानकारी प्राप्त की थी। मेम्फिस के ये शाकाहारी पुजारी अपनी बुद्धि के लिए जाने जाते थे। यूनानी साहित्य में इस बात के उल्लेख हैं कि मिस्रवासियों ने इस प्रमेय का ज्ञान भारतवासियों से प्राप्त किया था। भारत के गणितज्ञ इस प्रमेय का प्रयोग पाइथोगोरस के जन्म के बहुत पहले से कर रहे थे। मिस्र के पुजारियों को शाकाहारी जीवनशैली भी भारत से ही प्राप्त हुई थी।
पाइथोगोरस मिस्र के गुरुकुल में सीखे गए गणित, ज्योतिष एवं शाकाहारी जीवनशैली से इतना अधिक प्रभावित हुआ कि उसने रोम जाकर वहाँ की जनता में गणित एवं ज्योतिष के साथ शाकाहारी जीवन शैली का प्रचार करने के लिए जनव्यापी आंदोलन चलाया। केवल वही लोग पाइथोगोरस के विद्यार्थी बन सकते थे जो जीवन भर शाकाहारी बने रहने का संकल्प लेते थे। जो लोग पाइथोगोरस से गणित सीखना चाहते थे और मांसाहार नहीं छोड़ सकते थे, उन्हें एक पर्दे के पीछे बैठकर पाहथोगोरस के व्याख्यान सुनने होते थे। न तो वे पाइथोगोरस का मुंह देख सकते थे और न पाइथोगोरस उनका मुंह देखना चाहता था।
मिस्रवासियों को शाकाहार का ऐसा दृढ़ विचार भारतवासियों के अतिरिक्त और कहाँ से मिल सकता था! मिस्र तो वैसे भी अफ्रीकी देश है जहाँ की प्रजा मांसाहार पर अधिक निर्भर रहती आई है। अतः निश्चित रूप से मिस्र के पुजारियों को शाकाहार का विचार उन भारतीय गणितज्ञों एवं ज्योतिषियों से मिला जिन्होंने भारतीय ज्योतिष विद्या को मिस्र के पुजारियों तक पहुंचाया था। मिस्र के पुजारियों ने शाकाहारी जीवन शैली तथा भारतीय गणित एवं ज्योतिष का ज्ञान पाइथोगोरस को प्रदान किया। इस प्रकार यह ज्ञान यूरोप तक पहुंच गया।
गणितीय ज्योतिष की तरह फलित ज्योतिष भी भारत में पहले आया और विदेशों में बाद में। ऋग्वेद आदि ग्रंथों में ग्रहों के आधार पर वर्षा, आंधी, बादल आदि की जानकारी प्राप्त करने के उल्लेख हैं यहाँ तक कि राशियों के भी उल्लेख हैं जो आज फलित ज्योतिष की प्रमुख आधार बनी हुई हैं। जबकि बेबिलोन एवं असीरिया आदि सभ्यताओं में फलित ज्योतिष बहुत बाद में आया।
बेबीलोन आदि देशों में पंचांग सम्बन्धी फलित ज्योतिष बहुत बाद का विकास है। स्वप्नों, पक्षियों की उड़ानों एवं स्वरों, भेड़ों के कलेजे पर पड़े संकेतों (जो बेबीलोन या रोम में देव-यज्ञों के समय काटे जाते थे) से भी ओझा अथवा भोपे भविष्यवाणियाँ किया करते थे।
असीरिया में आकाशीय स्थितियों एवं ग्रहों की दशाओं के आधार पर अन्न-उत्पत्ति, बाढ़, अन्धड़, शत्रु-आक्रमण एवं अन्य उपद्रवों के विषय में फलित ज्योतिष द्वारा भविष्यवाणी की जाती थी। आकाश के नक्षत्रों एवं पृथ्वी की घटनाओं का सम्बन्ध देवों के विचारों से समझा जाता था और आसन्न घटनाएँ उनसे परिलक्षित की जाती थीं। हम इसे भौतिक फलित ज्योतिष कह सकते हैं।
चीन के ज्योतिष में बारह राशियाँ इस प्रकार हैं- चूहा, बैल, बाघ, खरगोश, ड्रैगन (अग्नि फेंकता साँप), सर्प, अश्व, भेड़, बन्दर, मुर्गी, कुत्ता एवं सूअर। एक ही प्रकार के नक्षत्रों को विभिन्न नाम दे दिये गये हैं। मिस्र के धार्मिक ज्योतिषशास्त्र में बारह राशियों का अभाव है। मिस्र वासियों को सिकन्दर के काल से पहले, राशि-ज्ञान प्राप्त नहीं था, बहुत थोड़ी सी राशियाँ रोम-काल से प्राचीन ठहरती हैं।
असीरिया के लोगों ने ज्योतिष ज्ञान यूफ्रोट (दजला-फरात) की घाटियों में विकसित किया था। इस कारण बहुत से विद्वान् राशि-ज्ञान का उद्गम बेबिलोन को मानते हैं। जबकि बहुत से विद्वान यूनान को ही सभी ज्ञानों का मूल मानते हैं। इन विद्वानों का मानना है कि यह ज्ञान क्लीयोस्ट्रेटस का दिया हुआ है, जो प्लिनी के अनुसार ई.पू.520 का है। ई.1953 में लिखित ग्रंथ ‘हिस्ट्री ऑफ साइंस’ में सार्टन ने लिखा है कि बेबिलोन के लोगों ने क्लीयोस्ट्रेटस से एक हजार वर्ष पहले ही राशि-ज्ञान प्राप्त कर लिया था। यह बात सही नहीं है क्योंकि क्लीयोस्ट्रेटस ने छठी शताब्दी ईस्वी में राशियों को बराबर विस्तारों में बाँटा था और उसने यह विज्ञान भारतीय ज्योतिष से प्राप्त किया था।
बेबिलोन एवं ग्रीस (यूनान) में कर्मफल एवं पुनर्जन्म के सिद्धान्त नहीं पाये जाते थे। अतः वहाँ के ज्योतिषी अपने ज्योतिष के माध्यम से प्रजा को यह नहीं कह सकते थे कि वे अपने जीवन को चरित्रवान् बनाएं ताकि उन्हें वर्तमान तथा अगले जीवन में कठिनाइयाँ न भोगनी पड़ें।
छठी शताब्दी ईस्वी में भारतीय गणितज्ञ ज्योतिषी वराहमिहिर ने ईरान के शहंशाह नौशे खाँ के आमन्त्रण पर ‘जुन्दीशापुर’ नामक स्थान पर एक वेधशाला की स्थापना की जिससे वेधशालाओं के निर्माण, उनके वेध एवं वेध से प्राप्त गणनाओं के आधार पर सारणियों एवं पंचांगों के निर्माण की विद्या मध्य एशिया में पहुंची। वराहमिहिर ने यूनान की भी यात्रा की थी। वराहमिहिर के कुछ सिद्धांत यूनानी ज्योतिष एवं गणित में अपनाए गए।
ब्रह्मगुप्त ने अपने ग्रंथ ‘ब्राह्मस्फुटसिद्धान्त’ में शून्य का अलग अंक के रूप में उल्लेख किया। इस अंक ने विश्व की समस्त गणित को बदल दिया। उन्होंने इस ग्रन्थ में ऋणात्मक अंकों और शून्य पर गणित करने के सभी नियमों का वर्णन किया। ये नियम वर्तमान समय में भी मानव जाति की गणित सम्बन्धी समझ के बहुत निकट हैं। तब से अब तक शून्य के सम्बन्ध में एक भी नया सिद्धान्त नहीं खोजा जा सका है।
भास्कर (प्रथम) ने सातवीं शताब्दी ईस्वी में संख्याओं को हिन्दू दाशमिक पद्धति में लिखना आरम्भ किया। इससे पहले विश्व के किसी भी हिस्से में दाशमिक प्रणाली का प्रचलन नहीं हुआ था। उन्होंने आर्यभट की कृतियों पर टीका लिखी और उसी सन्दर्भ में ज्या (Sin X) पद गद्ध का परिमेय मान बताया। ऐसा सबसे पहले भारत में हुआ। श्रीधराचार्य अथवा आचार्य श्रीधर आठवीं अथवा नौंवी शताब्दी इस्वी के महान गणितज्ञ थे। उन्होंने शून्य की व्याख्या की तथा द्विघात समीकरण को हल करने सम्बन्धी सूत्र का प्रतिपादन किया।
अतः यह किसी भी प्रकार से सिद्ध नहीं किया जा सकता कि भारतीय ज्योतिष विश्व के अन्य देशों के ज्योतिष का ऋणी है। वास्तविकता यह है कि विश्व-ज्योतिष ही भारतीय ज्योतिष का ऋणी है।
आर्यभट, वराहमिहिर, ब्रह्मगुप्त, श्रीधर, मुंजाल तथा भास्कर जैसे गणितज्ञ-ज्योतिषी तो धरती से चले गए किंतु उन्होंने संसार को ज्योतिष का जो ज्ञान दिया, उसकी चमक सदियां व्यतीत होते चले जाने पर भी बनी रही। इस ज्योतिष की गूंज पूरी दुनिया में हर कालखण्ड में सुनाई देती रही। अरबवासियों ने भारतीयों से ज्योतिष का ज्ञान प्राप्त करके अपने यहाँ वेधशालाएं स्थापित कीं। अरब के रेगिस्तान की ये वेधशालाएं अरब आक्रांताओं के साथ विश्व के कई भागों में पहुंचीं। अरब की भूमि से भारतीय ज्योतिष का ज्ञान मिस्र तक पहुंच और वहाँ से यूनान तक पहुंचा।
ईसा की सातवीं शताब्दी ईस्वी में सम्पूर्ण विश्व में इस्लाम की आंधी जोरों से उठी। सम्पूर्ण अरब और मिस्र तथा एशिया एवं यूरोप के बहुत से देश इस्लाम की इस आंधी में तिनकों की तरह उड़ गए। रोम की प्राचीन सभ्यता भी अपना अस्तित्व खो बैठी। लगभग पंाच सौ साल तक भारत के वीर राजा इस्लाम के आक्रांताओं से लड़ते रहे किंतु दुर्भाग्य से बारहवीं शताब्दी ईस्वी में भारत पर तुर्कों का शासन हो गया। सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में तुर्क शासक तो नष्ट हो गए किंतु उनके स्थान पर मंगोल शासक मुगलों के नाम से भारत पर शासन करने लगे। जब मुगलों का शासन क्षीण पड़ा तो अंग्रेज इस देश पर अधिकार जमाकर बैठ गए। लगभग साढ़े सात सौ साल की पराधीनता की अवधि में भारतवासियों ने अपने गणित एवं ज्योतिष सम्बन्धी ज्ञान को तो नहीं भुलाया किंतु इस ज्ञान पर गौरव का अनुभव करना भूल गए।
ईसा के जन्म से कई सौ वर्ष पहले उज्जैन में एक वेधशाला का निर्माण हुआ जिसे मुस्लिम आक्रांताओं ने तोड़ डाला। आज जिस स्तम्भ को दिल्ली की कुतुबमीनार कहा जाता है, वस्तुतः वह गुप्तकाल में निर्मित एक वेधशाला थी। इसे भी मुसलमानों ने तोड़कर कुव्वत उल इस्लाम नामक मस्जिद में बदल दिया। भारत के वेधशास्त्रियों ने वेधशाला बनाने का ज्ञान मध्य एशिया तक पहुंचाया। ये वेधशालाएं मध्य एशिया में तो टिकी रहीं किंतु भारत की धरती से वेधशालाओं को नष्ट कर दिए जाने से भारत के पण्डित इस ज्ञान को भुला बैठे।
पंद्रहवीं शताब्दी ईस्वी में मध्य एशिया के उज्बेकिस्तान नामक देश की राजधानी समरकंद में एक वेधशाला बनवाई गई। यह वेधशाला उलूग बेग मिर्जा ने बनवाई थी। इस वेधशाला को ‘जीचशाही’ कहा जाता था। इस वेधशाला में तीन मंजिलें थीं। उलूग बेग मिर्जा ने इस वेधशाला में सूर्य, चन्द्र एवं अन्य नक्षत्रों की गति का अध्ययन करके कूरकानी जीच (पंचांग) तैयार किया था। यह पंचांग इतना प्रसिद्ध हुआ कि कई शताब्दियों तक विश्व के कई देशों में यही पंचांग प्रचलित रहा।
उस समय तक सम्पूर्ण विश्व में केवल 7-8 वेधशालाओं का निर्माण हुआ था जिनमें से सबसे पहली वेधशाला भारत के उज्जैन राज्य के राजा विक्रमादित्य के समय में बनी थी। जब सोलहवीं शताब्दी ईस्वी में उलूग बेग मिर्जा का वंशज बाबर दिल्ली और आगरा का शासक हुआ तो उसने अपनी जीवनी बाबरनामा में दुनिया भर में स्थित वेधशालाओं का उल्लेख किया। बाबर ने यह स्वीकार किया कि उज्जैन की वेधशाला संसार में सबसे पहले बनी थी और उसके निर्माण का समय ई.पू.57 था। बाबर ने इस वेधशाला में बने पंचांग में कुछ दोष भी बताए थे। वस्तुतः उज्जैन की इसी वेधशाला में वराहमिहिर तथा ब्रह्मगुप्त ने अपने अनुसंधान किए थे।
बाबर के समय मध्य एशिया में एक और पंचांग का उपयोग होता था जिसे ‘ईलखानी जीच’ कहते थे। इसे ख्वाजा नसीर तूसी ने हुलाकू खाँ के समय ‘मरागा’ में तैयार किया था। संभवतः इस पंचांग को अरब देशों में स्थापित वेधशालाओं द्वारा की गई गणनाओं के आधार पर तैयार किया गया था। बाबर ने ‘मामूनी जीच’ का भी उल्लेख किया है जिसे मामून खलीफा द्वारा निर्मित वेधशाला में तैयार किया गया था। उसने ‘बतलीमूस’ नामक वेधशाला का भी उल्लेख किया है। इस प्रकार भारत का ज्योतिष ज्ञान अरब देशों में भी पर्याप्त विस्तार पा गया। बाद में जब अंग्रेजों का भारत पर शासन हुआ तो उन्होंने अरबवासियों को बड़े गणितज्ञ के रूप में प्रस्तुत किया ताकि भारतवासियों को अपने ज्ञान के गौरव का भान न रह सके। (मेरी पुस्तक भारतीय ज्योतिष एवं कालगणना का इतिहास से।)
– डॉ. मोहनलाल गुप्ता
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