तैमूर लंग की सेना ने भटनेर के किले पर अधिकार करके दस हजार हिन्दुओं को मौत के घाट उतार दिया। इसके बाद वह सरस्वती नामक नगर पर चढ़ बैठा। इस कुछ ग्रंथों में ‘सरसुति’ भी कहा गया है। वहाँ तैमूर ने कई हजार हिन्दुओं को पकड़कर बलपूर्वक मुसलमान बनाया। इसके बाद वह फतेहाबाद, अहरोनी, कैथल तथा पानीपत होते हुए लोनी की तरफ बढ़ा।
10 दिसम्बर 1398 को तैमूर लंग ने यमुना नदी पार की तथा वह लोनी में घुस गया। उन दिनों मैमून नामक एक हिन्दू सरदार लोनी के किले का शासक था। तैमूर ने उसके समक्ष प्रस्ताव भेजा कि यदि वह आत्मसमर्पण कर दे तो उसके प्राण बक्श दिए जाएंगे किंतु मैमून ने लड़ते हुए मरने को श्रेयस्कर समझा।
तैमूर ने किले के चारों ओर सुरंगें खुदवा दीं। इस पर किले के भीतर रह रहे लोगों ने अपने परिवारों के सदस्यों को जीवित ही अग्नि में जला दिया और स्वयं भी तलवारें हाथ में लेकर मरने-मारने को तैयार हो गए। 11 दिसम्बर 1398 को तैमूर ने लोनी के किले पर विजय प्राप्त कर ली तथा किले में मौजूद प्रत्येक हिन्दू को तलवार के घाट उतार दिया। इसके बाद तैमूर ने किले में आग लगवा दी।
अब तैमूर लंग दिल्ली की ओर बढ़ा। तैमूर की दृष्टि में यह उसके जीवन का निर्णायक युद्ध होने वाला था। वह भविष्य की आशंका से भयभीत था। दिल्ली की प्रबल सेना के समक्ष उसकी सेना चींटी की तरह मसली जा सकती थी।
इसलिए जब तैमूर दिल्ली के निकट पहुंचा तो उसने अपनी सेना को दिल्ली के बाहर ही पड़ाव डालने का आदेश दिया ताकि दिल्ली पर आक्रमण करने की तैयारी की जा सके। तैमूर लंग को अनुमान था कि तुगलकों की विशाल सेना के रहते दिल्ली में घुसना आसान नहीं होगा।
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इस समय तक तैमूर लंग ने भारत के एक लाख हिन्दुओं को बंदी बना लिया था। इतने सारे बंदियों के रहते वह दिल्ली पर आक्रमण नहीं कर सकता था। इसलिए उसने अपनी सेना को आदेश दिया कि समस्त हिन्दू-बंदियों का कत्ल कर दिया जाये।
‘मुलफुजात ए तोमूरी’ के हवाले से इलियट ने लिखा है- ‘तैमूर को संदेह था कि यदि दिल्ली की सेना से होने वाले युद्ध में तैमूर की पराजय हो जाती तो तैमूर के शिविर में बंदी बनाकर रखे गए एक लाख हिन्दू, तैमूर की पराजय का समाचार सुनकर ही अपने बंधन तोड़ देते, हमारे डेरों को लूट लेते और शत्रु से जा मिलते। इस प्रकार उनकी संख्या और शक्ति बढ़ जाती।’
मध्यएशिया से आए बर्बर तुर्कों ने तैमूर के आदेश पर एक लाख निर्दोष एवं निरीह हिन्दुओं के सिर काटकर यमुनाजी में फैंक दिए जिससे यमुनाजी का जल लाल हो गया। हजारों शव यमुनाजी के तट पर बिखर गए, जिन पर कई महीनों तक गिद्ध एवं चील आदि मांसभोजी पक्षी मण्डराया करते थे। इन एक लाख लोगों की तैमूर लंग से कोई शत्रुता नहीं थी, वे हाथों में हथियार लेकर तैमूर की सेना से लड़ने के लिए नहीं आए थे।
मार डाले गए हिन्दुओं का अपराध केवल इतना था कि वे शांति-प्रिय थे और उन्हें लड़ना नहीं आता था। वे किसान थे, जुलाहे थे, पशुपालक थे, कुम्हार, लुहार और सुथार थे, व्यापारी थे, पोथीधारी ब्राह्मण थे। वे अपना-अपना काम करके पेट भरते थे, किसी को लूटने, लड़ने-मारने के लिए कहीं नहीं जाते थे।
जैसे जंगल में भूखा शेर निरीह हिरणों का शिकार किया करता है, वैसे ही मध्यएशिया से आए बर्बर और खूनी लड़ाकों ने भारत के इन निरीह लोगों को काट डाला। शांति पाने की आशा करना मानव-मन की सबसे श्रेष्ठ इच्छा है किंतु प्रकृति का विधान ऐसा है कि केवल शांति की आशा पालने से शांति नहीं मिलती, उसके लिए मूल्य चुकाना पड़ता है। जो समुदाय अपने देश, अपने समाज तथा मानव-मूल्यों के लिए संघर्ष नहीं करता, उसे जीने का अधिकार नहीं मिलता। उसे शांति नहीं मिलती।
ये निरीह लोग जिनके शव काटकर यमुनाजी में बहा दिए गए थे अथवा जंगल में पड़े सड़ रहे थे, शांति के आकांक्षी थे किंतु शांति कैसे मिलती है, उसकी प्रक्रिया से परिचित नहीं थे। भारत के लोगों ने सदियों से केवल इतना ही सीखा था कि हर व्यक्ति के लिए एक अलग काम होता है। युद्ध करना क्षत्रियों का काम है, किसानों, जुलाहों, लुहारों, सुथारों, व्यापारियों, ब्राह्मणों एवं चरवाहों को युद्ध से भला क्या काम है?
यह नीति तब तक तो ठीक थी, जब तक कि भारत के ही क्षत्रिय राजा परस्पर लड़ते थे। वे एक दूसरे के महलों, किलों, सोने के सिक्कों एवं दासियों को छीनते थे किंतु जब मध्यएशिया के आक्रांताओं ने भारतीय राजाओं के साथ-साथ भारतीय प्रजा को भी अपने निशाने पर लिया, तब शांति की यह नीति अप्रासंगिक हो गई।
इस काल में आवश्यकता इस बात की थी कि हिन्दूकुश पर्वत से लेकर यमुनाजी के तट तक विस्तृत हरे-भरे मैदानों में रहने वाले लोग हाथों में हथियार लेकर लड़ते किंतु उन्हें युद्ध हेतु तत्पर करने के लिए किसी प्रबल नेतृत्व की आवश्यकता थी किंतु भारत के तत्कालीन शासकों में इतनी योग्यता नहीं थी कि वे जनता का नेतृत्व कर सकें।
वे तो जनता को भेड़-बकरियों की तरह हांकना जानते थे, यही कारण था कि उस काल की जनता भेड़-बकरियों की तरह व्यवहार करती थी और अपनी गर्दन शत्रु की तलवार के नीचे धर देती थी। यही कारण था कि तैमूर लंग के सिपाहियों ने भारत के एक लाख मनुष्यों को भेड़-बकरियों की तरह ही काट डाला था।
कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि 18 दिसम्बर 1398 को तैमूर लंग तथा दिल्ली की सेना के बीच संघर्ष हुआ। दिल्ली की सेना में 10 हजार अश्वारोही, 40 हजार पैदल सिपाही तथा 125 हाथी थे। इस युद्ध में दिल्ली की सेना आसानी से परास्त हुई तथा भाग खड़ी हुई।
जब दिल्ली की सेना भाग खड़ी हुई तो तुगलक सुल्तान, सेनापति एवं प्रधानमंत्री शतरंज के मोहरों की तरह बेजान होकर रह गए। अब उन्हें भी भागने के अतिरिक्त और कुछ नहीं सूझा। वे भी सिर पर पैर रखकर चोरों की तरह अलग-अलग दिशाओं में भाग गए। उन्हें भय था कि कहीं तैमूर के सिपाही उन्हें देख न लें किंतु तैमूर तो इस घटना पर स्वयं हैरान था।
उसने इस दृश्य की कल्पना नहीं की थी, इसलिए वह अपनी सेना को इन भगोड़ों के पीछे नहीं दौड़ा सका। संभवतः उसकी आवश्यकता ही नहीं थी। जब तुगलक दिल्ली छोड़कर ही भाग रहे थे, तब इस बात से क्या अंतर पड़ता था कि वे जियें या मरें!
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता