तुगलक सुल्तानों की अदूरदर्शिता के कारण दिल्ली सल्तनत पतन के गर्त में चली गई तथा तुगलक वंश का विनाश हो गया। तुगलक वंश के नष्ट हो जाने में तैमूर लंग के आक्रमण ने महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाई थी।
तैमूर लंग का जन्म ई.1336 में मध्यएशिया में समरकंद से 50 मील दूर मावरा उन्नहर प्रांत के ‘कैच’ नगर में हुआ था। उसके पिता का नाम अमीर तुर्क अथवा अमीर तुर्गे था जो तुर्कों के बरलस कबीले की गुरकन शाखा का नायक था। इस कबीले को तुर्को-मंगोल कबीला भी कहा जाता था क्योंकि इस कबीले के लोगों में तुर्कों एवं मंगोलों के रक्त का मिश्रण हुआ था। अमीर तुर्गे ने तैमूर की शिक्षा-दीक्षा की समुचित व्यवस्था की। तैमूर ने कुरान के अध्ययन के साथ-साथ घुड़सवारी, तलवारबाजी तथा युद्धकला में महारथ हासिल कर ली। अल्पआयु में ही वह एक छोटे भूभाग का शासक बना दिया गया।
तैमूर लंग ने अपनी ‘आत्मकथा’ में लिखा है कि उसका हृदय बारह या चौदह वर्ष की आयु से ही स्वतंत्रता की भावना से ओत-प्रोत हो गया था। एक तुर्की सामन्त का पुत्र होने के कारण तैमूर लंग परम्परागत रूप से चगताई वंश के सरदार के अधीन था। संयोग से तैमूर तथा उसके स्वामी में अनबन हो गई। फलतः तैमूर को कई तरह की यातनाएं सहन करनी पड़ीं और उसे सुरक्षित स्थान की खोज में इधर-उधर भटकना पड़ा। एक बार जब शत्रु उसका पीछा कर रहे थे, तब तैमूर की एक टांग टूट गई और वह लंगड़ा हो गया, तभी से वह तैमूर लंग कहलाने लगा।
ई.1369 में 33 वर्ष की अवस्था में तैमूर को अपने शत्रुओं पर विजय प्राप्त हो गई। ई.1370 में उसने तुर्क सरदारों का एक सम्मेलन आयोजित किया जिसमें तुर्क सरदारों ने तैमूर लंग को अपना सरदार चुन लिया। ई.1370 में तैमूर ने समरकंद पर अधिकार कर लिया और वहाँ का शासक बन गया। समरकंद हाथ में आते ही तैमूर ने अपने राज्य को विशाल सल्तनत में बदलने का निर्णय लिया। कुछ ही समय में उसने ख्वारिज्म, फारस, मेसोपोटामिया आदि कई ऐतिहासिक देशों पर विजय प्राप्त कर ली और उसका साम्राज्य चंगेज खाँ के साम्राज्य जितना विस्तृत हो गया। इसके बाद तैमूर ने भारत पर आक्रमण करने का निश्चय किया।
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‘जफरनामा’ में तैमूर लंग द्वारा भारत पर आक्रमण किए जाने के कारणों का उल्लेख किया गया है। पाठकों की सुविधा के लिए बताना समीचीन होगा कि सिक्ख-गुरु गोविंदसिंह ने ई.1706 में औरंगजेब को फारसी भाषा में एक विस्तृत पत्र लिखा था, जिसे जफरनामा कहा जाता है। इसका हिन्दी में अर्थ होता है- ‘विजयपत्र’। इस पत्र में इतिहास की कुछ घटनाओं का प्रसंगवश उल्लेख हुआ है।
जफरनामा कहता है- ‘तैमूर लंग ने कुरान का अच्छा अध्ययन किया था। वह इस्लाम को भारत में फैलाने के लिए, भारत पर आक्रमण करने की योजनाएं बनाने लगा। वह भारत पर विजय प्राप्त करके काफिरों का नाश करना और इस्लामिक जगत में अपना नाम कमाना चाहता था। वह मूर्ति-पूजकों पर विजय प्राप्त करके गाजी की उपाधि प्राप्त करना चाहता था।’
तैमूर लंग को ज्ञात था कि दिल्ली का तुगलक वंश अत्यन्त दुर्बल है जिसके कारण भारत में राजनीतिक अराजकता तथा भ्रष्टाचार का प्रकोप है। तैमूर लंग भारत की इस कमजोरी का लाभ उठाना चाहता था। साथ ही वह भारत की समृद्धि से भी अवगत था और भारत की अथाह सम्पदा को लूटकर अपनी राजधानी समरकंद को समृद्ध करना चाहता था।
उन दिनों मुल्तान के शासक सारंग खाँ तथा तैमूर के पोते पीर मोहम्मद में संघर्ष चल रहा था। पीर मोहम्मद काबुल का गर्वनर था। उसने सारंग खाँ से ‘कर’ मांगा किंतु सारंग खाँ ने कर देने से इन्कार कर दिया। इस पर पीर मोहम्मद ने मुल्तान पर आक्रमण किया। पीर मुहम्मद ने सिन्धु नदी को पार करके छः माह में उच्च तथा मुल्तान पर अधिकार कर लिया। अपने पोते पीर मुहम्मद की इस सफलता ने भी तैमूर लंग को भारत पर आक्रमण करने के लिए प्रेरित किया।
तैमूर ने अप्रैल 1398 में 92,000 घुड़सवार सेना के साथ समरकन्द से प्रस्थान किया और सितम्बर 1398 में सिंधु नदी को पार करके मुल्तान पहुंच गया। जब तक तैमूर मुल्तान पहुंचता, तब तक तैमूर के पोते पीर मोहम्मद ने मुल्तान से आगे बढ़कर सिंध के पश्चिमी भाग को रौंद कर उस पर अधिकार कर लिया।
तैमूर ने मुल्तान से चलकर लाहौर पर आक्रमण किया तथा लाहौर के गर्वनर मुबारक खाँ को हरा दिया। चिनाब नदी के पास पीर मोहम्मद तथा तैमूर लंग की सेनाएं एक दूसरे से आ मिलीं। यहाँ से यह सम्मिलित सेना तुलुम्बा की ओर बढ़ी। उसने तुलुम्बा के शासक जसरथ को परास्त किया जो कि खोखरों का सरदार था। इसके बाद तैमूर लंग पाक-पतन, दीपालपुर तथा अजोधन आदि नगरों को लूटता हुआ पानीपत के मार्ग से भटनेर की ओर बढ़ा।
इस समय राव दुलीचंद भटनेर का शासक था। भटनेर दुर्ग के चारों ओर भटनेर नगर बसा हुआ था जिसके चारों ओर मिट्टी की ईंटों का एक ऊंचा परकोटा बना हुआ था। दीपालपुर तथा अजोधन आदि के सैंकड़ों लोग भागकर भटनेर नगर में शरण लिए हुए थे। जब तैमूर लंग ने भटनेर की प्राचीर पर आक्रमण किया तो भटनेर के लोगों ने भटनेर की सेना के साथ मिलकर तैमूर लंग का मार्ग रोका। कुछ ही दिनों में भटनेर की नगर-प्राचीर टूट गई तथा हिन्दू सैनिकों ने नगर की प्राचीर छोड़कर भटनेर के किले में मोर्चा संभाला।
जब राव दुलीचंद की सेना किले को बचाने में असमर्थ सिद्ध होने लगी तो राव दुलीचंद ने अपने पुत्र को तैमूर से संधि करने के लिए भेजा। 9 नवम्बर 1398 को राव दुलीचंद का पुत्र तैमूर के समक्ष उपस्थित हुआ। तैमूर ने संधि करने से मना कर दिया। इस पर राव दुलीचंद का पुत्र दुर्ग में लौट आया। तैमूर लंग ने दुर्ग पर हमले तेज कर दिये तथा भटनेर नगर के लोगों की हत्याएं करनी आरम्भ कर दीं।
राव दुलीचंद का एक भाई पूर्व में ही मुसलमान बना लिया गया था। उसका असली नाम तो अब ज्ञात नहीं है किंतु मुसलमान बनने के बाद उसे कमालुद्दीन कहा जाता था। वह भी इस घेरे में अपने भाई दुलीचंद की तरफ से लड़ रहा था किंतु जब तैमूर की सेनाएं किले पर हावी होने लगीं तो कमालुद्दीन ने तैमूर के समक्ष आत्मसमर्पण कर दिया तथा तैमूर के समक्ष प्रस्ताव भिजवाया कि वह अपने कुछ लोगों को किले में भेज दे ताकि उन्हें अमानी का धन दिया जा सके। अमानी के धन का तात्पर्य उस धन से है जो पराजित राजा और प्रजा की जान बख्शने के लिए विजेता शत्रु को समर्पित की जाती थी।
जब तैमूर लंग के आदमी अमानी का धन लेने किले के भीतर गए तो किले में रह रहे लोगों ने अमानी का धन देने से मना कर दिया। जब तैमूर के आदमी किले से खाली हाथ लौट आए तो तैमूर क्रोध से भर गया। उसने अपनी सेना को आदेश दिया कि वे किले को तोड़ डालें। इस पर तैमूर के सैनिक रस्सियों तथा सीढ़ियों की सहायता से दुर्ग की दीवारों पर चढ़ने लगे। किले के भीतर रह रहे लोगों ने अपने बच्चों एवं स्त्रियों को घरों में बंद करके उनमें आग लगा दी तथा युद्ध के लिए तैयार हो गए।
‘मुलफुजात ए तोमूरी’ एवं ‘जफरनामा’ में लिखा है कि छः दिन तक चले भयानक संघर्ष में दस हजार हिन्दू मारे गए। तैमूर की सेना को दुर्ग से विपुल अन्न, धन एवं वस्त्र प्राप्त हुए।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता