Friday, November 22, 2024
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अध्याय – 32 (ब) : मुगलकालीन अर्थव्यवस्था – व्यापार एवं वाणिज्य

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व्यापार तथा वाणिज्य

मुगल काल में आन्तरिक एवं बाह्य, दोनों प्रकार का व्यापार उन्नति पर था। पुरातन समय से ही भारत के बाह्य देशों के साथ वाणिज्यिक सम्बन्ध थे। देश की आवश्यकताओं को पूर्ण करने के पश्चात् जो सामग्री शेष बचती थी, उसका बाह्य देशों में निर्यात कर दिया जाता था। यातायात एवं परिवहन की समस्या व्यापारियों तथा सामान ले जाने वाले साधनों से पूर्ण होती थी। देश में व्यापार के लिए अनेक सड़कें तथा रास्ते थे, जो सरकार द्वारा सुरक्षित रखे जाते थे। इन सड़कों से युद्ध के समय विशाल सेनाएँ गुजरती थीं। उस समय भाप के जहाज के अभाव के कारण समुद्री व्यापार खतरनाक था, फिर भी व्यापारी तथा विदेशी सौदागर माल बाहर ले जाते थे।

विदेशी व्यापार

सल्तनतकाल में भारत का व्यापार प्रशान्त महासागर और भू-मध्यसागर के देशों तक फैला हुआ था। अरबी यात्री भारत के माल को इन देशों में ले जाकर बेचते थे और वहाँ से सोना, रत्न, मोती, खजूर, घोड़े आदि विविध सामान भारत में लाते थे। मुल्तान और काश्मीर के रास्ते एशियाई देशों के साथ थल मार्ग से व्यापार होता था। लाहौर, मुल्तान, लाहरीबन्दर (सिन्ध में), कैम्बे, पटना, आगरा आदि में बड़े बाजार थे जहाँ विदेशों से वस्तुएँ आती थीं और देश के विभिन्न भागों में भेजी जाती थीं। विदेशी व्यापार दो मार्गों से होता था- (1) समुद्री मार्ग तथा (2) स्थल मार्ग द्वारा।

विदेशी व्यापारी नील, शोरा तथा बुने हुए वस्त्रों के बदले सौंदर्य एवं प्रसाधन सामग्री भारत लाते थे। इस सामग्री को गुजरात, दिल्ली, आगरा, राजस्थान तथा मालवा के बाजारों में बेचा जाता था।

समुद्री व्यापार

अधिकतर समुद्री व्यापार ‘अफ्रीकी’ व्यापारियों के हाथ में था। कुछ सीमा तक इस व्यापार पर उनका एकाधिकार था। भारत को पश्चिमी देशों के साथ मिलाने वाले दो मुख्य सीधे समुद्री मार्ग थे- एक तो फारस की खाड़ी वाला तथा दूसरा लाल समुद्र वाला। लाल समुद्री मार्ग खतरनाक चट्टानों, पथरीले मार्गों एवं कोहरा आदि बाधाओं के कारण दुष्कर था। अतः नाविक तथा सौदागर फारस की खाड़ी वाले मार्ग को अधिक पसन्द करते थे। यह मार्ग ईराक में बगदाद से चीन में कैण्टन तक जाता था। अरब यात्री इब्नबतूता (1333-1346 ई.) को अदन में हिन्दू सौदागरों के बहुत से जहाज मिले। उनमें कैम्बे, किलन तथा कालीकट आदि कई बन्दरगाहों से माल लाया गया था। वहाँ से भारतीय माल अफ्रीका के समुद्री तट दमिश्क और सिकंदरिया तथा यूरोप के विभिन्न देशों को ले जाया जाता था। इन बन्दरगाहों से भारतीय माल चीन, लंका, इण्डोनेशिया तथा भारतीय टापुओं को जाता था।

मुगल काल में भारत में अनेक महत्त्वपूर्ण बन्दरगाह थे जहाँ विश्व के विभिन्न भागों से बड़ी संख्या में व्यापारी आते थे। पश्चिमी सीमा में लहारीबन्दर, गुजरात में कैंबे, गोआ और कोचीन तथा पूर्वी तटीय मछलीपट्टम, पुलीकट तथा नजरकटन एवं बंगाल में हुगली, सतगाँव, श्रीपुरा तथा चटगाँव आदि बंदरगाह उल्लेखनीय थे। अरब तथा फारस के जहाज खजूर, फल, घोड़ों, समुद्री मोतियों तथा रत्नों को लेकर भारत आते थे और उनके बदले में गुड़, चीनी, मक्खन, जैतून के फल, नारियल तथा कपड़े ले जाते थे। विविध प्रकार की धातुओं से बने बर्तन और विभिन्न प्रकार की विलास की वस्तुएँ भी भारत से निर्यात की जाती थीं। अफगानिस्तान, फारस तथा मध्य एशिया के साथ मुल्तान, कोटा तथा खैबर दर्रे के रास्ते से स्थल मार्ग व्यापार के अतिरिक्त माल कारोमण्डल, समुद्री तट के रास्ते से फारस ले जाया जाता था।

मुगल काल में भारतीय निर्यात की मुख्य वस्तुएँ, सूती कपड़ा, अनाज, तेल के बीज, ज्वार, चीनी, चावल, नील, सुगंधित पदार्थ, सुगन्धित लकड़ी तथा पौधे, कर्पूर, लवंग, नारियल, विभिन्न जानवरों की खालें, गेंडे तथा चीते की खाल, चंदन की लकड़ी, अफीम, काली मिर्च तथा लहसुन थे। विदेशों में भारतीय कपास से बने कपड़ों की बड़ी माँग थी। यह माँग जावा, सुमात्रा, बोड़ा, मलाया, बोर्नियो, अकनि, पेगु, स्याम, बेटम आदि पूर्वी देशों तक ही सीमित नहीं थी, अपितु पश्चिमी देशों में भी भारतीय सूती कपड़े की पर्याप्त माँग थी। वर्थया ने भारत भ्रमण (1503-1508 ई.) के विवरण में लिखा है कि गुजरात की कैम्बे तथा बंगाल की बंगला दो बंदरगाह समस्त फारस, तातार, तुर्की, सीरिया, बर्बरी अर्थात् अफ्रीका, अरब, फेलिक्स, इथोपिया तथा भारत के समुद्रों के अनेक टापुओं को रूई तथा सिल्क के विभिन्न प्रकार के सामान भेजते थे। उसने कैम्बे से हर वर्ष जाने वाले पृथक्-पृथक देशों के तीन जहाजों का उल्लेख किया है। अनुमान है कि बंगाल से रूई तथा रेशम के 50 जहाज निर्यात होते थे। बिहार तथा मालवा में अफीम की पैदावार होती थी जो राजपूताना, बरार तथा खानदेशों को भेजी जाती थी। यहाँ से वह अफीम पेगु (लोअर बर्मा), जावा, चीन, मलाया, फारस एवं अरब देशों को भेजी जाती थी।

भारत में मुगल काल में सोने तथा चाँदी की खानें नहीं थीं इसलिये ये धातुएं विदेशों से आयात की जाती थीं। इन धातुओं को भारत से बाहर भेजे जाने पर रोक थी। विदेशी व्यापारी सोना तथा चाँदी लेकर आते थे और उसके बदले में बहुत सी वस्तुएँ ले जाते थे। सोना मुख्यतः चीन, जापान, मलक्का, तथा अन्य समीपवर्ती देशों से, मूँगा पेगु से तथा मोती और विभिन्न प्रकार के रत्न फारस तथा अरब से आते थे।

स्थलीय व्यापार

मुगलों के शासन काल में थल मार्ग से सीमांत देशों के साथ होने वाले व्यापार में अभूतपूर्व प्रगति हुई। बाबर के अनुसार भारत और काबुल के बीच सफल व्यापार होता था। भारत, अपने सीमांत देशों, मध्य एशियाई देशों और अफगानिस्तान से सूखे मेवे, ताजे फल, अम्बर हींग, खुरखुरे लाल पत्थर आदि का आयात करता था तथा इसके बदले में कपड़े, कम्बल, चीनी, नील, औषधि सम्बन्धी जड़ी-बूटी आदि का निर्यात करता था। हिमालय के राज्यों तथा तिब्बत से कस्तूरी, चीनी लकड़ी, खेतचीनी, अमीरा (आँखों की एक मूल औषधि), जेद, बढ़िया ऊन, सोना, ताँबा, सीसा, तिब्बती गाय की दुम, शहद, सोहागा, मोम, ऊनी सामान तथा बाज पक्षी से लदे हुए काफिले भारत आते थे। नेपाल से भारत को पशु तथा सींग, कस्तूरी, सोहागा, चिरैता (औषधि  की जड़ी-बूटी), मजीह (रंग), इलायची, चौरीस (तिब्बती गाय की दुम), महीन रोयें, बाज पक्षी तथा बालचर (सुगंधित घास) आते थे। इनके बदले में तैयार वस्त्र, नमक, धातु, चीनी, मसाले आदि नेपाल को जाते थे। भूटान से भारत को कस्तूरी तथा तिब्बती गाय की दुम आते थे। पुर्तगाली डाकुओं के कारण पेगु के साथ भारत का व्यापार बहुत सफल नहीं था। पेगु को भारत में बुने हुए कपड़े के थान, सूत तथा अफीम का निर्यात होता था। इसके बदले में सोने, चाँदी तथा मूल्यवान पत्थर भारत आते थे।  खुरासानी व्यापारी तुर्की गुलामों और सुस्त्री नामक कपड़े का व्यापार करते थे। बाबर और हुमायूँ के काल में इस व्यापार की काफी उन्नति हुई। तुर्किस्तान में रहने वाले अजाक लोग भारत को निर्यात करने के लिए घोड़े पालते थे। 6,000 अथवा इससे अधिक के झुण्डों में घोड़े भारत भेजे जाते थे। अरब यात्री इब्नबतूता ने वर्णन किया है कि हीरमुज, अदन, क्रीमिया तथा अजाक से अच्छी नस्ल के घोड़े भारत को भेजे जाते थे। इन घोड़ों को सिंध तथा मुल्तान दोनों स्थानों में पाला जाता था।

व्यापार सन्तुलन

उपर्युक्त तथ्यों के आधार पर कहा जा सकता है कि व्यापार का सन्तुलन भारत के पक्ष में था। विभिन्न देशों के व्यापारी भारतीय बन्दरगाहों पर आते थे तथा उपयोगी वस्तुएँ, जड़ी-बूटियाँ और गोंद के बदले में सोना तथा रेशम देते थे। यह क्रम मौर्यों के समय से चल रहा था जो कि मुगलों के समय में भी चलता रहा। इसीलिए भारत में सोने और चाँदी का विपुल भण्डार हो गया। इसी विपुल सम्पदा के कारण विदेशी आक्रान्ता भारत की ओर आकर्षित होते थे।

विदेशी तथा भारतीय व्यापारी

आन्तरिक व्यापार

भारत के समुद्री व्यापार में अरब तथा तुर्की के व्यापारी महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाते थे। खुरासानी व्यापारी चीन, फारस, अरब तथा भूमध्य स्थित देशों एवं भारत के साथ थल व्यापार में बड़े सक्रिय थे। उत्तर भारत के मुल्तानी, गुजराती, बनिये, राजपूताना, मध्य भारत तथा गुजरात के बंजारे आदि ऐसे व्यापारी थे जो दूर देशों के साथ व्यापार करते थे। उनमें से कइयों के पास अपने बड़े जहाज थे। इटली के यात्री निकोलो कोंटी (1419-1444 ई.) का कहना है कि इन व्यापारियों में से एक व्यापारी इतना धनाढ्य था कि उसके पास अपना माल ढोने के 40 जहाज थे। भारतीय व्यापारी अधिकतर व्यापार पूर्वी अफ्रीका, लाल समुद्री बन्दरगाहों, फारस की खाड़ी के देशों तथा दक्षिणी पूर्वी एशिया के भागों, विशेषकर सुमात्रा तक करते थे। दिल्ली सल्तनत के सुल्तान तथा उनके उत्तरवर्ती मुगल विदेशी व्यापार के हक में नहीं थे। इन मुसलमान शासकों ने भारतीय व्यापारियों के हितों की रक्षा भी नहीं की। 1547 ई. में एक समझौते के द्वारा विजयनगर का समुद्री व्यापार पुर्तगालियों के कारण सुरक्षित नहीं था। भारतीय व्यापारियों को अपनी सुरक्षा की व्यवस्था स्वयं करनी पड़ती थी। भारत के विदेशी व्यापार में वृद्धि के लिये विदेशी व्यापारी ही मुख्य रूप से उत्तरदायी थे। जब वास्को-डी-गामा ने 1498 ई. में अन्तरीप द्वीपसमूह का मार्ग ज्ञात किया था, उसके बाद लगभग एक शताब्दी तक भारतीय समुद्री व्यापार पर पुर्तगालियों का एकाधिकार रहा। पुलीकट, कासिम बाजार, पटना, बेलसर, नाजपट्टम तथा कोचीन में उनके मुख्य कारखाने थे। अरब वाले, जो पहले इस व्यापार में बहुत भाग लेते थे, अब भारत के साथ होने वाले समुद्री व्यापार से लगभग पूरी तरह हटा दिये गये।

विदेशी यात्रियों के वर्णनों में तथा समकालीन भारतीय साहित्य में भारत के आन्तरिक व्यापार की जानकारी मिलती है। प्रत्येक नगर में एक बाजार होता था। नियत अंतरालों पर समीपवर्ती गाँवों तथा कस्बों से पर्याप्त लोग तथा व्यापारी इन बाजारों में आते थे और खूब व्यापार होता था। फेरी लगाकर माल बेचने वाले तथा अन्य प्रकार के व्यापारी बहुत थे जो उपभोक्ताओं की जरूरतें पूरी करते थे। राजपूताने के बनजारे हर प्रकार की चीजें जैसे अनाज, चीनी, मक्खन तथा नमक बैलगाड़ियों पर लादकर एक स्थान से दूसरे स्थान तक ले जाते थे। कई बार ये काफिले 40,000 बैलों के हो जाते थे। अन्य व्यापारी भी समूहों में विचरण करते थे। वे मुल्तान, लाहौर और दिल्ली जैसी बड़ी राजधानियों के बाजारों से व्यापार करते थे।

उत्तर भारत में व्यापार गुजरातियों तथा मारवाड़ी बनियों के द्वारा एवं दक्षिण में चेतियों के द्वारा होता था। कुछ चलती-फिरती दुकानें होती थीं, जो घोड़े की पीठ पर लगाई जाती थीं। महत्त्वपूर्ण वस्तुओं का व्यापार नगर की मंडियों में होता था। बड़े पैमाने का व्यापार कुछ विशेष वर्ग तक सीमित था। भारत के महत्त्वपूर्ण व्यापारी गुजराती और मुल्तानी थे। विदेशों से आने वाले मुसलमान व्यापारियों को खुरासानी कहा जाता था। ये देश के समस्त भागों में व्यापार करते थे। बड़े-बड़े उद्योगों पर दलालों का दबदबा था।

परिवहन के साधन

मुगल काल में परिवहन के दो प्रमुख साधन थे। व्यापारिक माल प्रायः सड़कों से ले जाया जाता था। उस काल की सड़कें कच्चे मार्ग से अधिक नहीं होती थीं जिनके दोनों ओर छायादार पेड़ होते थे। यात्रियों की सुविधा के लिए स्थान-स्थान पर सराय तथा विश्रामगृह बनाये जाते थे तथा पशुओं के लिए पेयजल की व्यवस्था की जाती थी। यात्रियों को मार्ग दिखाने की सुविधा के लिए छोटी-छोटी अटारी अथवा मीनारें बनी हुई थीं। राजपूताने के भाट भी खतरनाक सड़कों पर काफिलों का मार्गदर्शन तथा सुरक्षा करते थे और उनसे पारिश्रमिक लेते थे। व्यापारिक माल के परिवहन का दूसरा माध्यम नदी थी, जो अपेक्षाकृत सस्ता था। आगरा से मुल्तान के लिए गाड़ी भाड़ा दो रुपये प्रति मन था, जबकि मुल्तान से सिंध का नाव का भाड़ा डेढ़ रुपये प्रति मन था। काश्मीर, बंगाल, सिंध तथा पंजाब में अधिकांश माल नदी मार्ग से ले जाया जाता था। लगभग समस्त बड़ी नदियों, विशेषकर गंगा, यमुना तथा झेलम से पर्याप्त परिवहन होता था। राल्फ फिच (1513-31 ई.) ने 180 नावों के बेड़े में आगरा से बंगाल तक की यात्रा की थी। थट्टा से लाहौर तक जाने में 6-7 सप्ताह का समय लगता था, जबकि वापसी यात्रा में केवल 18 दिन लगते थे।

आन्तरिक व्यापार पर अधिकारियों द्वारा स्थान-स्थान पर चुँगी ली जाती थी, उनके विभिन्न नाम- तमगा अथवा जाकट आदि होते थे। चुँगी के अतिरिक्त समस्त बड़े बाजारों तथा बन्दरगाहों पर भी लगभग ढाई प्रतिशत शुल्क देना पड़ता था। व्यापार को प्रभावित करने वाला दूसरा पहलू सड़कों पर सुरक्षा की व्यवस्था थी। मुगल बादशाहों ने सड़कों को सुरक्षित बनाने के लिये कई उपाय किये और डाकू तथा लुटेरों को कठोर दण्ड देने की व्यवस्था की परन्तु व्यापारियों में फिर भी भय बना रहता था। इस कारण वे काफिलों में शस्त्रों एवं रक्षकों सहित यात्रा करते थे।

अन्तर-प्रादेशिक व्यापार

मौर्य काल से ही भारत के विभिन्न प्रदेशों के बीच अन्तर-प्रादेशिक व्यापार होता आया था। मुगल काल में भी यह व्यापार थोड़ी बहुत बाधाओं के साथ चलता रहा।

बंगाल

मुगल काल में बंगाल से चावल, चीनी तथा मक्खन आदि खाद्य सामग्री, समुद्री मार्ग से कोरोमंडल, केपकामरिन होते हुए कराची तक भेजी जाती थी। बंगाल से गुजरात को चीनी तथा दक्षिण भारत को गेहूँ भेजा जाता था।

बिहार

मुगल काल में पटना एक प्रसिद्ध व्यापारिक नगर था। पटना से देश के विभिन्न भागों को चावल और रेशम भेजा जाता था जिसके बदले में पटना को देश के विभिन्न भागों से गेहॅँू, चीनी तथा अफीम प्राप्त होती थी।

आगरा

आगरा विभिन्न प्रकार की वस्तुओं के आयात एवं निर्यात के लिए प्रसिद्ध केन्द्र था। यह बंगाल और पटना से कच्ची सिल्क तथा चीनी और पूर्वी सूबों से चावल, गेहूँ तथा मक्खन का आयात करता था। आगरा, देश तथा विदेशों में उत्तम प्रकार के नीले रंग के लिए बहुत प्रसिद्ध था। इसके समीपवर्ती क्षेत्रों, जैसे- हिंदुआन, बयाना, पंचूना, बिसौर तथा खानवा में गेहूँ की उपज होती थी। यहाँ से गेहूँ भारत के समस्त बन्दरगाहों तथा विदेशों को भेजा जाता था। यूरोपीय यात्री राल्फ फिच ने लिखा है- ‘आगरा एक विशाल नगर है। यह लन्दन से भी बड़ा और घना बसा हुआ है। इसके बाजार व्यापारियों से परिपूर्ण रहते हैं।’

लाहौर तथा मुल्तान

उत्तर-पश्चिमी भारत का सबसे बड़ा नगर लाहौर था। उसके बाद मुलतान का नम्बर आता था। काबुल, कांधार तथा फारस से होने वाला समस्त व्यापार मुल्तान तथा लाहौर से होकर होता था। इस कारण मुल्तान और लाहौर व्यापार के महत्त्वपूर्ण केन्द्र बन गये थे। मुल्तान चीनी, अफीम, सूती माल, गंधक तथा ऊँटों के लिए प्रसिद्ध था। लाहौर दरियों के लिए प्रसिद्ध था। फादर माँन्सेरेट ने लाहौर का वर्णन करते हुए लिखा है- ‘सम्पन्नता, जनसंख्या और क्षेत्रफल की दृष्टि से लाहौर, एशिया अथवा यूरोप के किसी नगर की तुलना में बड़ा है, जहाँ के बाजारों में सम्पूर्ण एशिया के व्यापारियों की भीड़ रहती है। इसकी आबादी इतनी अधिक है कि इसकी गलियों में लोग एक-दूसरे से भिड़ते हुए चलते हैं।’ एडवर्ड टैरी ने लिखा है- ‘लाहौर पंजाब का मुख्य नगर है। यह बहुत विशाल है जो व्यक्तियों एवं सामग्रियों से परिपूर्ण है। यह भारत में सबसे बड़ा और प्रसिद्ध व्यापारिक नगर है।’

गुजरात

गुजरात मुगल काल में भी वाणिज्य का बड़ा केन्द्र बना रहा। प्राकृतिक संसाधनों तथा वाणिज्य ने इसे भारत का धनी सूबा बना दिया। यह कपड़े की बुनाई का बड़ा केन्द्र था। गुजरात में तैयार किये गये कपड़ों के थान गुजरात के मुख्य बन्दरगाह कैंबे द्वारा दक्षिण-पूर्व एशिया तथा भारत के दूसरे भागों, विशेषकर आगरा को भेजे जाते थे। गुजरात में मालवा और अजमेर से गेहूँ तथा दक्षिणी राज्यों एवं मलाबार से चावल मँगवाया जाता था। गुजरात से आगरा तथा केरल को रूई तथा सूत्री वस्त्र और थट्टा को तम्बाकू भेजा जाता था। गुजरात के प्रमुख नगर कैंबे के बारे में बारबोसा ने लिखा है- ‘यह एक बड़ा और भव्य नगर है जिसमें अधिक व्यापारी और पूँजीपति लोग रहते हैं- दोनों हिन्दू और मुसलमान।यहाँ नाना प्रकार के यन्त्र सम्बन्धी निपुण शिल्पकार हैं।’ कैंबे गुजरात का प्रसिद्ध बन्दरगाह भी था, जहाँ से समुद्री व्यापार होता था। गुजरात में बने हुए कपड़े का निर्यात इसी बन्दरगाह से होता था। अहमदाबाद भी गुजरात का एक अन्य प्रसिद्ध नगर था।

बीदर

बीदर, जो लगभग एक शताब्दी तक बहमनी राज्य की राजधानी था, आंतरिक व्यापार का महत्त्वपूर्ण बाजार था। यह बाजार बूँटेदार कपड़े तथा सोने और रत्न जड़ित आभूषणों के लिए प्रसिद्ध थे। बीदर का बूँटेदार कपड़ा बिदरी वेयर के नाम से प्रसिद्ध था। जो ताँबे, सीस तथा रांगे का सम्मिश्रण होता था तथा सोने तथा आभूषणों से जड़ित होता था।

सिंध

मुगलकाल में सिंध से गेहूँ, जौ, सूती कपड़े तथा घोड़े, भारत के विभिन्न भागों में भेजे जाते थे। इनके बदले में भारत के विभिन्न भागों से सिंध को चावल, चीनी, गन्ना, इमारती लकड़ी तथा मसाले भेजे जाते थे। सिंध में काश्मीर, गुजरात, रावलपिंडी तथा लद्दाख से नमक मंगवाया जाता था तथा भारत के विभिन्न भागों से अच्छे चावल,  चौड़े वस्त्र, गेहूँ, दवाएँ, चीनी, आम, लोहा, ताँबा, पीतल के बर्तन, शीशे का सामान, सोना, चाँदी तथा विलास की सामग्रियाँ भी मँगवाये जाते थे। सिंध से आगरा तथा अन्य स्थानों को शॉल, ऊन तथा शोरा निर्यात किया जाता था।

केरल एवं मलाबार

केरल काली मिर्चों का निर्यात करता था तथा उसके बदले में अफीम का आयात करता था। पुलीकट का छपा हुआ कपड़ा बहुत बढ़िया होता था जो गुजरात तथा मलाबार तट को भेजा जाता था। गुजरात तथा मलाबार के बीच काफी व्यापार होता था। विजयनगर मलाबार से नारियल, इलायची तथा अन्य मसाले, कीमती पत्थर, मोम तथा लोहा, खजूर तथा चीनी का आयात करता था।

कोरोमण्डल तथा विजयनगर

दक्षिण में विजयनगर प्रसिद्ध व्यापारिक केन्द्र था। कारोमण्डल तथा विजयनगर का तटवर्ती व्यापार मलाबार के व्यापारी चलाते थे। यहाँ आयात की जाने वाली चीजों में रंगीन कपड़े, धातु, गुलाबजल, अफीम, चंदन की लकड़ी, मूंगा , पारा, केसर, कपूर, सिन्दूर, कस्तूरी, सुपारी, नारियल, काली मिर्च, खजूर, चीनी, कैंबे का कपड़ा तथा घोड़े सम्मिलित थे। यहाँ से चावल और कपड़े का निर्यात होता था। 15वीं शताब्दी के आरंभिक वर्षों में भटकल के दक्षिणी बन्दरगाह तथा विजयनगर में बहुमूल्य पत्थर की बड़ी मांग थी, वह दक्षिणी राज्यों से हीरे, और भुज तथा कायल से मोती, पेगु और लंका से दूसरे महँगे पत्थरों का आयात करता था। विजयनगर के व्यापारी पुलीकट से बर्मी लाल रत्न तथा कस्तूरी लाते थे। विजयनगर में मलाबार से काली मिर्च मँगवाई जाती थी।

वाणिज्य एवं व्यापार के अन्य प्रमुख केन्द्र

मुगल काल में अजमेर, राजपूताने का प्रसिद्ध नगर था। यहाँ से मलाबार तथा अन्य स्थानों को गेहूँ भेजा जाता था। इनके अलावा जौनपुर, बुरहानपुर, लखनऊ, खैराबाद आदि भी प्रसिद्ध व्यापारिक नगरीय केन्द्र थे। दक्षिण भारत में गोलकुण्डा एक महत्त्वपूर्ण वाणिज्यिक नगर था जिसका गोआ, मछलीपट्टम और सूरत के बन्दरगाहों से सीधा सम्पर्क था।

निष्कर्ष

मुगलकालीन भारत में अन्तर्राज्यीय और अन्तर्राष्ट्रीय दोनों प्रकार के व्यापार उन्नत अवस्था में थे। स्थल और जलमार्ग द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक सामान जाता करता था। ह्नेनसांग ने भी अपने यात्रा-वर्णन में लिखा है कि सड़कों द्वारा एक स्थान से दूसरे स्थान तक सामाना आया-जाया करता था। स्वयं ह्नेनसांग ने एक व्यापारिक जहाज से यात्रा की थी। उज्जैन, कन्नौज, पाटलिपुत्र (पटना), मथुरा, अयोध्या और काशी व्यापारिक दृष्टि से अत्यन्त महत्त्वपूर्ण नगर थे। मध्य एशिया, चीन, अरब और तिब्बत से बहुत पहले से व्यापार किया जाता था। बाह्य देशों से व्यापार थलमार्ग और सामुद्रिक मार्ग से होता था। ताम्रलिप्ति भी प्रसिद्ध बंदरगाह था जिसके विषय में ह्नेनसांग ने लिखा है कि इस बंदरगाह में व्यापार की वस्तुएँ एकत्रित रहती थीं। इस काल में उद्योग काफी विकसित थे। इन उद्योगों द्वारा उत्पादित माल विदेशों को निर्यात होता था। यहाँ से निर्यात होने वाली प्रमुख वस्तुओं में चन्दन की लकड़ी, नारियल, चीनी, कपड़ा, मलमल, हाथी-दाँत, मोती और बहुमूल्य पत्थर आदि थे। यहाँ आयात की जाने वाली वस्तुओं में शराब, घोड़े, खजूर, पोस्तीन, मूँगा और रेशमी कपड़े होते थे। इस प्रकार देश की आर्थिक स्थिति अत्यन्त सुड़ौल एवं विकसित थी।

इस अध्याय में भारत के अन्तर्प्रादेशिक आंतरिक व्यापार का अत्यंत संक्षिप्त वर्णन किया गया है। विस्तृत वर्णन करना सम्भव नहीं है, क्योंकि देश के विभिन्न भागों के बीच विशेषकर प्रांतीय राजधानियों एवं विभिन्न राज्यों की राजधानियों के बीच बहुत बड़े पैमाने पर व्यापार होता था। 

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