भारतीय दर्शन परम्परा ऋग्वेद के प्राकट्य से आरम्भ होती है। सनातन धर्म की मान्यता है कि वेद समस्त विद्याओं की पुस्तक है। अर्थात् वेद जो कि चार संहिताओं में संकलित है, दर्शन नामक विद्या की भी मूल पुस्तक है। वेदों के दर्शन में किसी तरह का विरोधाभास नहीं है। वेदों का दर्शन ही उपनिषदों का आधार बना।
उपनिषदों के काल से भारतीय दर्शन परम्परा में परस्पर विरोधी विचारों का प्रवाह हुआ ताकि वेदों में प्रस्तुत दर्शन के मूल संदेश को समझा जा सके। यही कारण है कि भारतीय धर्म, अध्यात्म एवं दार्शनिक चिंतन में दो परस्पर विरोधी धाराएं अत्यंत प्राचीन काल से विकसित हो पाईं। इनमे से पहली धारा है- वैचारिक कट्टरता एवं दूसरी धारा है- सहिष्णुता।
एकमात्र अपने ही मत तथा अपने ही इष्टदेव में सर्वोच्च आस्था रखे जाने के कारण भारतवर्ष में धार्मिक संप्रदायवाद प्रारम्भ से ही विद्यमान रहा है। अपने गुरु के वचनों को ब्रह्म-वाक्य मानकर केवल उन्हीं के द्वारा उच्चारित शब्दों को ही स्वीकार करना भारतीय संप्रदायवाद की विशेषता रही है।
दूसरी ओर भारत भूमि पर समय-समय पर ऐसी दिव्य विभूतियों का अवतरण हुआ जिन्होंने सांप्रदायिक संकीर्णता को नकार कर जनकल्याण एवं राष्ट्रकल्याण को प्रधानता देते हुए सांप्रदायिक समन्वय को अपनाया तथा भारतीय संस्कृति को नवीन दिशा प्रदान की।
भारतीय दर्शन परम्परा षड्दर्शन के रूप में प्रकट हुई। दर्शन के ये समस्त छः अंग अर्थात् सांख्य, योग, न्याय, मीमांसा, वेदांत और वैशेषिक; पूर्णतः आस्तिक हैं अर्थात् वे वेदों को प्रामाणिक मानते हैं। मीमांसा को छोड़कर अन्य सभी दर्शन ईश्वर की सत्ता को स्वीकार करते हैं।
इतनी सारी मूलभूत समानताओं के उपरांत भी भारतीय दर्शन परम्परा में बाह्य विरोधों तथा अध्यात्मिक धरातल पर प्रकट होने वाली अन्तमुर्खी समन्वयवादी प्रतिक्रियाओं के निरंतर प्रवाह से भारतीय अध्यात्म में अद्वैतवाद, विशिष्टाद्वैतवाद, द्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद और शुद्धाद्वैतवाद जैसे विलक्षण दार्शनिक सिद्धांतांे एवं मान्यताओं की प्रतिष्ठापना हुई।
भारतीय दार्शनिक सिद्धांतों के प्रकट होने का एक सुनिश्चित क्रम रहा। ईसा पूर्व 6 हजार साल पहले ऋग्वेद का प्राकट्य हुआ। ईसा पूर्व 1000 से लेकर ईसा पूर्व 600 तक उपनिषदों का दर्शन सामने आया। ईस्वी पूर्व 6ठी शताब्दी में उपनिषदों के विरोध में बौद्धों का शून्यवाद प्रकट हुआ। भारतीय दर्शन परम्परा में विरोधी तत्वों का समावेश यहीं से आरम्भ हुआ।
शून्यवाद की प्रतिक्रिया में ईस्वी 8वीं शताब्दी में शंकराचार्य का अद्धैतवाद प्रकट हुआ। शंकर के अद्वैतवाद की प्रतिक्रिया में ईस्वी 11वीं शताब्दी से लेकर ईस्वी 16वीं शताब्दी की अवधि में विशिष्टाद्वैतवाद, द्वैतवाद, द्वैताद्वैतवाद और शुद्धाद्वैतवाद प्रकट हुए।
रामानुजाचार्य (ईस्वी 11-12वीं शताब्दी) ने विशिष्टाद्वैतवाद की, माध्वाचार्य (ईस्वी 13वीं वींशताब्दी) ने द्वैतवाद की, निम्बार्काचार्य (ईस्वी 12-13वीं शती) ने द्वैताद्वैतवाद की और वल्लभाचार्य (ईस्वी 15-16वीं शताब्दी) ने शुद्धाद्वैतवाद की स्थापना की।
शंकराचार्य के मायावाद और रहस्यवाद के सिद्धांतों को काटने के लिये रामानुजाचार्य तथा माध्वाचार्य ने विष्णु-भक्ति का प्रचार किया। निम्बार्काचार्य ने राधा और कृष्ण की भक्ति का प्रचार किया एवं वल्लभाचार्य ने भगवान कृष्ण के बाल स्वरूप की उपासना को ईश भक्ति का साधन बनाया।
विभिन्न दार्शनिक सिद्धांतों के प्रतिपादकों का भारतीय जनमानस में कितना गहरा आदर है, इसका अनुमान इस बात से लगाया जा सकता है कि रामानुजाचार्य को भगवान् संकर्षण का अवतार माना जाता है। मध्वाचार्य को वायुदेव का, निम्बार्काचार्य को भगवान के प्रिय आयुध सुदर्शन चक्र का तथा वल्लभाचार्य को अग्निदेव का अवतार माना जाता है।
रामानुजाचार्य द्वारा प्रतिपादित विशिष्टाद्वैतवाद को समझने के लिये अन्य मतों का भी संक्षिप्त परिचय होना आवश्यक है।
शून्यवाद
बौद्धों ने जगत् तथा ईश्वर की सत्ता को नकार दिया और संपूर्ण जगत को दुखमय मानकर शून्य को ही परम तत्व मान लिया। उनके अनुसार परम तत्व न सत् है, न असत् है, न सत् और असत् दोनों है और न दोनों से भिन्न ही है। इस प्रकार वह इन चारों कोटियों से विलक्षण तत्व है। वह अलक्षण है। इसी को शून्यवाद तथा प्रतीत्यसमुत्पाद भी कहा जाता है। इस प्रकार बौद्धों के अनुसार ब्रह्म और जगत् दोनों ही असत्य हैं।
अद्वैतवाद
शंकराचार्य का अद्वैतवाद समस्त दार्शनिक जगत को एक अनुपम देन है। इसके प्रतिपादन का उद्देश्य शून्यवाद का खण्डन करके प्राचीन आस्तिक दर्शन की पुर्नस्थापना करना था। यहाँ इस बात को समझा जाना आवश्यक है कि अद्वैतवाद का प्राकट्य केवल बौद्धों के शून्यवाद की प्रतिक्रिया में नहीं हुआ अपितु इसकी हुंकार में इस्लाम का मार्ग रोकने की प्रबल अभीप्सा दिखायी पड़ती है।
अद्वैतवाद के अनुसार निर्गुण ब्रह्म ही सर्वोच्च परमार्थ तत्व है। वह अद्वैत, निर्विशेष, चिन्मात्र तथा निरुपाधि है। इस प्रकार निर्गुण ब्रह्म ही पूर्ण एवं एकमात्र सत्य है। ब्रह्म निर्गुण है किंतु शून्य नहीं है। आत्मा और ब्रह्म दोनों में कोई अंतर नहीं है। जो कुछ जीव में है, वही जगत् में है।
शंकर के मत को मायावाद भी कहा जाता है। शंकर के अनुसार माया ईश्वर की शक्ति है तथा व्यवहारिक है। शंकर द्वारा प्रतिपादित मत का सर्वाधिक खण्डन-मण्डन हुआ। इसमें श्रद्धा रखने वालों ने शंकर को आदि जगत् गुरु कहा तो इसका खण्डन करने वालों ने शंकर को प्रच्छन्न बौद्ध तक कह डाला। दूसरे शब्दों में शंकराचार्य के अनुसार ब्रह्म सत्य है, जगत् मिथ्या है।
विशिष्टाद्वैतवाद
रामानुज का वेदांत दर्शन विशिष्टाद्वैत के नाम से प्रसिद्ध है। भारतीय दर्शन परम्परा में यह दर्शन श्री संप्रदाय भी कहलाता है। रामानुजाचार्य के अनुसार तीन परम् मूल तत्व- चित्, अचित् और ईश्वर हैं। ईश्वर तो प्रधान अंगी है तथा चित् और अचित् उसके दो विशेषण अथवा अंग हैं। इसलिये यह मत ‘विशिष्ट-अद्वैत वाद’ कहलाता है।
शंकर के अद्वैतवाद के विरुद्ध, रामानुज ने ब्रह्म को जीव से भिन्न माना है परंतु साथ ही उन्होंने द्वैतवाद का खण्डन भी किया है। उनके अनुसार कारण रूप ब्रह्म से जीव जगत् अनन्य है। इस कारण इन दोनों में अभेद है।
रामानुज के अनुसार जीव ब्रह्म का अंश है किंतु जीव ब्रह्म नहीं है क्योंकि यदि यह मान लिया जाये कि जीव ब्रह्म है तो जीव के समस्त दोष ब्रह्म पर भी लागू हो जाते हैं। इस कारण जीव और ब्रह्म में अभेद भी है और भेद भी है। इस भेद-अभेद की व्याख्या को रामानुज यहाँ पर आकर समाप्त करते हैं कि ब्रह्म और जीव का अभेद मुख्य है तथा भेद गौण। इस कारण ब्रह्म और जीव में अभेद है किंतु वह विशिष्ट प्रकार का अद्वैत है।
द्वैतवाद
मध्वाचार्य ने बारहवीं शताब्दी ईस्वी में ब्रह्मसूत्र की व्याख्या की तथा उसके आधार पर शंकर के अद्वैत सिद्धांत का खण्डन करके द्वैतवाद का सिद्धांत प्रतिपादित किया। माध्वाचार्य केे दार्शनिक मत को ‘द्वैतवाद’ कहते हैं।
माध्वाचार्य के मत में पाँच भेदों को आधार माना जाता है- जीव-ईश्वर, जीव-जीव, जीव-जगत्, ईश्वर-जगत्, जगत्-जगत्। इनमें भेद स्वतः सिद्ध है। भेद के बिना वस्तु की स्थिति असंभव है।
माध्वाचार्य के अनुसार जगत् और जीव ईश्वर से पृथक् हैं किंतु ईश्वर द्वारा नियंत्रित हैं। सगुण ईश्वर जगत् का स्रष्टा, पालक और संहारक है। ईश्वर द्वारा नियंत्रित होने पर भी ‘जीव’ अपने कर्म का कर्त्ता और फल का भोक्ता है। ईश्वर में नित्य-प्रेम ही भक्ति है जिससे जीव मुक्त होकर, ईश्वर के समीप स्थित होकर, आनन्दभोग करता है। भौतिक जगत् ईश्वर के अधीन है और ईश्वर की इच्छा से ही सृष्टि और प्रलय में यह क्रमशः स्थूल और सूक्ष्म अवस्था में स्थित होता है।
द्वैताद्वैतवाद
भारतीय दर्शन परम्परा में निम्बार्क ने भी रामानुज की भांति ब्रह्म और जीव के बीच भेद और अभेद दोनों तरह का सम्बन्ध स्वीकार किया है। मध्वाचार्य भी रामानुज की भांति भेद और अभेद दोनों को ही वास्तविक माना है किंतु जहाँ निम्बार्क के लिये ब्रह्म और जीव के मध्य भेद और अभेद का स्तर एक ही है वहीं रामानुज के लिये अभेद प्रमुख है और भेद गौण।
शुद्धाद्वैतवाद
भारतीय दर्शन परम्परा में प्रतिष्ठित इस मत के अनुसार ब्रह्म शुद्ध है तथा ब्रह्म में से जीव और जगत् उत्पन्न हुए हैं। इस कारण जीव भी शुद्ध है, जगत भी शुद्ध है और इसी कारण उनका अद्वैत भी शुद्ध है। इसी मान्यता के कारण इस मत को ‘शुद्ध-अद्वैत वाद’ कहते हैं।
भारतीय दर्शन परम्परा का यह सिद्धांत मानता है कि ईश्वर, जीव तथा जगत में कोई अंतर नहीं है किंतु माया नामक शक्ति के कारण ब्रह्म, जीव और जगत् से भिन्न प्रतीत होता है। अर्थात् ब्रह्म भी सत्य है, जगत् भी सत्य है।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता