मुहम्मद बिन तुगलक ने दक्षिण भारत में स्थाई अधिकार बनाए रखने के लिए अपनी राजधानी को दिल्ली से देवगिरि स्थानांतरित कर दिया किंतु लोगों के असहयोग के कारण उसे अपनी राजधानी को फिर से दिल्ली में लाना पड़ा।
इस योजना से राज्यकोष का बहुत सा धन व्यय हो गया क्योंकि इस कार्य के लिए दिल्ली से देवगिरि तक सड़कों का निर्माण एवं मरम्मत कार्य करवाए गए तथा देवगिरि में बहुत से महलों, मकानों, गलियों एवं बाजारों आदि का निर्माण करवाया गया। राजकोष के रीत जाने पर सुल्तान ने सोने-चांदी की मुद्राओं के स्थान पर ताँबे की संकेत मुद्राएँ चलाईं। संकेत मुद्राओं का विचार मन में आने से पहले मुहम्मद बिन तुगलक ने भिन्न-भिन्न प्रकार की मुद्राएँ ढलवाईं थीं जो कला की दृष्टि से बड़ी सुन्दर थीं। उसने दीनार नामक स्वर्ण मुद्रा चलाई तथा अदली नामक रजत-मुद्रा का पुनरुद्धार किया।
अब ऐसी मुद्राएं ढालने के लिए सुल्तान के पास पर्याप्त सोना-चांदी नहीं था। इसलिए उसने ताँबे की संकेत मुद्राएँ चलाईं। इतिहासकारों का मानना है कि उन दिनों न केवल भारतवर्ष में, अपितु सम्पूर्ण विश्व में चाँदी की कमी अनुभव की जा रही थी। चाँदी की मुद्रा के अभाव में लोगों को व्यापार तथा लेन-देन में बड़ी असुविधा हो रही थी। इस असुविधा को दूर करने के लिए ही मुहम्मद तुगलक ने ताँबे की मुद्रा चलाने की योजना बनाई थी।
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कुछ इतिहासकारों के अनुसार मुहम्मद ने ताम्बे की मुद्राएं इसलिए चलाईं क्योंकि उसे नई योजनाएँ बनाने का व्यसन था। वह सदैव नई-नई योजनाओं की कल्पना किया करता था। कुछ इतिहासकारों के अनुसार मुहम्मद बिन तुगलक सांकेतिक मुद्रा चलाकर ख्याति प्राप्त करना चाहता था। वह अपने नवीन कृत्यों द्वारा अपनी बुद्धिमत्ता का परिचय देना चाहता था तथा इतिहास में अपना नाम अमर करना चाहता था।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार मुहम्मद बिन तुगलक ने अपने रिक्त कोष को भरने के लिए यह योजना बनाई। विद्रोहों को दबाने, अकाल-पीड़ितों की सहायता करने, नई योजनाओं को कार्यान्वित करने, नवीन भवनों का निर्माण करने तथा मुक्त-हस्त से पुरस्कार देने से राजकोष रिक्त हो गया था और सुल्तान बड़े आर्थिक संकट में पड़ गया था। इस आर्थिक संकट को दूर करने के लिए सुल्तान ने संकेत मुद्रा के चलाने की योजना बनाई।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार मुहम्मद बिन तुगलक अस्थिर विचारों का व्यक्ति था।
जब उसने देखा कि चीन, फारस आदि देशों में संकेत मुद्रा का प्रचलन है, तब उसने भी अपने राज्य में संकेत मुद्रा चलाने की आज्ञा दी।
कुछ इतिहासकारों के अनुसार मुहम्मद बिन तुगलक विश्व-विजय की कामना से प्रेरित था और इस ध्येय की पूर्ति के लिए उसे एक विशाल सेना की आवश्यकता थी जिसके व्यय के लिए धन आवश्यक था। अतः सुल्तान ने संकेत मुद्रा की योजना बनाई।
प्रारम्भ में लोगों को संकेत मुद्रा से बड़ी सुविधा हुई परन्तु बाद में लोगों को आशंका हुई कि सरकार ने चाँदी की मुद्राओं का अपहरण करने के लिए यह योजना चलाई है। सरकार जनता से चाँदी की मुद्राएँ लेकर अपने राजकोष में भर लेगी और इनके स्थान पर ताँबे की मुद्राएँ प्रयुक्त होंगी। इस आशंका का परिणाम यह हुआ कि लोगों ने चाँदी तथा सोने की मुद्राओं को छिपा दिया तथा केवल ताँबे की मुद्राओं को व्यवहार में लाने लगे। स्वर्णकारों ने अपने घरों में टकसालें बना लीं और ताँबे की नकली मुद्राएं ढालने लगे। जियाउद्दीन बरनी ने लिखा है कि प्रत्येक हिन्दू का घर टकसाल बन गया।
इसका परिणाम यह हुआ कि ताम्बे की मुद्राओं में अत्यन्त दु्रतगति से वृद्धि होने लगी। लोगों की ऐसी मनोवृत्ति हो गई कि देने के समय वे ताँबे की मुद्रा देना चाहते थे और लेने के समय चाँदी अथवा सोेने की मुद्रा प्राप्त करने का प्रयत्न करने लगे। इस मनोवृत्ति का व्यापार पर बुरा प्रभाव पड़ा। व्यापारियों ने तांबे की मुद्रा के बदले सामान देना बन्द कर दिया।
ऐसी स्थिति में सरकार का हस्तक्षेप करना अनिवार्य हो गया। फलतः सुल्तान ने यह आदेश निकाल दिया कि संकेत मुद्रा का प्रयोग बन्द कर दिया जाय और जिसके पास ताँबे की मुद्राएँ हो, उनके बदले में वे सोने-चाँदी की मुद्राएँ ले लें। इस घोषणा का परिणाम यह हुआ कि सरकारी खजाने में ताँबे की मुद्राओं के ढेर लग गए तथा राजकोष से रहा-सहा सोना-चांदी भी निकल गया।
जब सुल्तान को इस बात की जानकारी हुई तो उसने अपनी सेना को आदेश दिया कि वह लोगों के घरों की तलाशी ले तथा जहाँ कहीं भी सोने-चांदी की मुद्राएं मिलें, उन्हें छीनकर शाही खजाने में जमा करवा दे। इस आदेश की तत्काल पालना हुई। तुगलक के हजारों सैनिक दिल्ली की गलियों में छा गए। उन्होंने घर-घर जाकर तलाशी ली। लोगों को मारा-पीटा और सड़कों पर घसीटा गया ताकि वे धरती में छिपाई गई सोने-चांदी की मुद्राओं के बारे में बता दें। बहुत से लोग मार डाले गए और किसी के पास कुछ नहीं बचा। जनता फिर से कंगाल हो गई।
मुस्लिम प्रजा की बजाय हिन्दू प्रजा को इन अत्याचारों का अधिक शिकार होना पड़ा क्योंकि मुस्लिम प्रजा के पास कहने के लिए था कि उन्हें यह धन सुल्तानों द्वारा ईनाम के रूप में दिया गया जबकि हिंदुओं को तो धन संग्रहण करना मना था!
इतिहासकारों ने मुहम्मद बिन तुगलक द्वारा चलाई गई संकेत मुद्रा की तीव्र आलोचना की है और उस पर पागल होने का आरोप लगाया है परन्तु वास्तव में यह योजना मुहम्मद बिन तुगलक के पागलपन की नहीं, वरन् उसकी बुद्धिमता की परिचायक है। चीन तथा फारस में पहले से ही संकेत मुद्रा चल रही थी। आधुनिक काल में भी पूरे विश्व में संकेत मुद्रा का प्रचलन है।
चौदहवीं शताब्दी के भारत में संकेत मुद्रा का असफल हो जाना अवश्यम्भावी था क्योंकि साधारण जनता के लिए चांदी और ताँबे में बहुत अंतर था। वह संकेत मुद्रा विनिमय के महत्त्व को नहीं समझ सकी। यह योजना इसलिए भी असफल हो गई क्योंकि सरकार ने सुनारों को ताम्बे की मुद्रा ढालने से नहीं रोका।
सुल्तान को चाहिए था कि वह टकसाल पर राज्य का एकाधिकार रखता और ऐसी व्यवस्था करता जिससे लोग अपने घरों में संकेत मुद्रा को नहीं ढाल पाते। अतः हम इस निष्कर्ष पर पहुँचते हैं कि सुल्तान की योजना गलत नहीं थी अपितु उसके कार्यान्वयन का ढंग गलत था तथा लोगों ने नकली मुद्राएं ढाल कर इस योजना को विफल कर दिया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता