गुजरात के एक हिन्दू ने जो कि कुछ ही समय पहले मुसलमान बना था, अंतिम खिलजी सुल्तान मुबारक खाँ की हत्या करके नासिरुद्दीन खुसरोशाह के नाम से सुल्तान बन गया किंतु तुर्की अमीर उसे निम्न जाति का कहकर उसे पसंद नहीं करते थे।
कुछ इतिहासकारों ने नासिरुद्दीन खुसरोशाह को बरवार जाति का बताया है जो बैस राजपूतों की एक शाखा थी। आजादी के समय गौण्ड क्षेत्र में बरवार जाति बड़ी संख्या में निवास करती थी जिन्हें अंग्रेजों ने ‘जुरायम पेशा कौम’ घोषित कर रखा था। आजादी के बाद इन्हें समाज की मुख्य धारा में लिया गया। वर्तमान समय में ये लोग सम्पूर्ण उत्तरी भारत में निवास करते हैं। कुछ इतिहासकारों ने नासिरुद्दीन खुसरोशाह को परवारी जाति का बताया है। कुछ लोगों का अनुमान है कि वह रेवारी जाति का था। कुछ इतिहासकारों ने लिखा है कि वह भारवार अथवा गड़रिया नामक नीची समझे जाने वाली जाति का गुजराती हिन्दू था।
इस प्रकार नासिरुद्दीन खुसरोशाह की जाति के बारे में अलग-अलग राय प्रकट की जाती है किंतु अनुमान होता है कि वह गुजरात में रहने वाली रैवारी जाति का था। यह जाति आज भी बड़ी संख्या में गुजरात में निवास करती है। यह मूलतः चरवाहा जाति है तथा रैवारी शब्द का उद्भव भी चरवाहा से हुआ है। हालांकि मुस्लिम इतिहासकारों ने उसे नीची हिन्दू जाति का बताया है किंतु भारतीय समाज में परम्परागत रूप से रैबारी को उच्च एवं सर्वण जाति माना जाता है। संभवतः मुस्लिम इतिहासकारों ने नासिरुद्दीन खुसरोशाह को नीचा दिखाने के लिए उसे नीची जाति का हिन्दू लिखा है।
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नासिरूद्दीन खुसरोशाह ने अपने उन साथियों को ऊँचे पद देकर अपनी स्थिति को मजबूत बनाने का प्रयास किया जिहोंने नासिरुद्दीन खुसरोशाह को तख्त प्राप्त करने में सहयोग किया था। उसने पुराने अमीरों को उनके पदों पर रहने देकर और उन्हें नई पदवियां देकर प्रसन्न करने का प्रयास किया। नासिरुद्दीन खुसरोशाह को शेख निजामुद्दीन औलिया का नैतिक समर्थन प्राप्त हो गया परन्तु तुर्की अमीर उसे पसंद नहीं करते थे क्योंकि खुसरो मूलतः हिन्दू था तथा कुछ ही समय पहले मुसलमान बना था। इसलिए तुर्की अमीरों को वह सुल्तान के रूप में स्वीकार नहीं था।
खुसरोशाह हिन्दुओं में भी निम्न समझे जाने वाले वर्ग से था। इसलिए स्वयं को उच्च रक्त वंश का समझने वाले तुर्की अमीर उसे सुल्तान स्वीकार करने में अपनी तौहीन समझते थे। खुसरोशाह हिन्दुओं के साथ विशेष सहानुभूति दिखाता था और अपने सम्बन्धियों को शासन में उच्च पद देता था। खुसरो ने कुछ तुर्की अमीरों को अपमानित किया था। इससे वे भी उसके प्रबल विरोधी थे। इन सब कारणों से तुर्की अमीरों ने खुसरो पर आरोप लगाया कि वह आधा हिन्दू है तथा शाही महलों में मूर्तिपूजा को प्रोत्साहन देता है। वस्तुतः खुसरो के बहुत से सम्बन्धी अब भी हिन्दू थे और वे महलों में रहकर मूर्ति पूजा करते थे।
वस्तुतः तुर्की अमीरों को यह भय था कि यदि खुसरो शाह का राज्य जम गया तो भारत से तुर्की अमीरों का पत्ता साफ होने में अधिक समय नहीं लगेगा। इससे पहले भी जब इमादुद्दीन रेहानी नामक एक भारतीय मुसलमान ने दिल्ली सल्तनत के प्रधानमंत्री का पद प्राप्त किया था तब तुर्की अमीरों ने उसे केवल एक साल के भीतर ही नष्ट कर दिया था।
यह दूसरा अवसर था जब किसी भारतीय मुसलमान ने शासन में ऊंचा उठने का प्रयास किया था। इसलिए कुछ तुर्की अमीरों एवं मलिकों ने नारा बुलंद किया कि हिन्दुस्तान में इस्लाम खतरे में है। जियाउद्दीन बरनी भी एक तुर्की अमीर था। उसने खुसरोशाह की बड़ी कटु आलोचना एवं निंदा की है और यह दिखाने का प्रयास किया है कि खुसरो शाह मूर्तिपूजक, आधा हिन्दू, दुष्ट एवं जनता में अलोकप्रिय था।
जियाउद्दीन बरनी ने लिखा है- ‘खुसरोशाह बरवारों अथवा परवारी हिन्दुओं की सहायता से अलाई तथा कुतुबी तख्त पर बैठ गया। अपने सिंहासनारोहण के पांच ही दिन के भीतर उस तुच्छ तथा पतित ने महल में मूर्तिपूजा प्रारम्भ कर दी। उसके राज्य में बरवार अधिकार सम्पन्न हो गए। पश्चाताप की अग्नि तथा अत्याचार की लपट आकाश तक पहुंचने लगी। बरवार तथा हिन्दुओं ने अपने अधिकार के नशे में कुरान का कुर्सी के स्थान पर प्रयोग करना प्रारम्भ कर दिया। मस्जिद की ताकों में मूर्तियां रख दी गईं और मूर्तिपूजा होने लगी। उसका राज्याभिषेक होने से तथा बरवारों और हिन्दुओं के अधिकार सम्पन्न हो जाने से कुफ्र तथा काफिरी के नियमों को उन्नति प्राप्त होने लगी। खुसरो खाँ ने इस उद्देश्य से कि बरवारों तथा हिन्दुओं को विशेष अधिकार प्राप्त हो जाएं और अत्यधिक हिन्दू उसके सहायक बन जाएं, खजाना लुटाना तथा धन-सम्पत्ति बांटना प्रारम्भ कर दिया। हिन्दू समस्त इस्लामी राज्य में उत्पात मचा रहे थे। वे खुशियां मनाते और इस बात पर प्रसन्न होते थे कि देहली में पुनः हिन्दुओं का राज्य स्थापित हो गया है। इस्लामी राज्य का अंत हो गया है।’
इब्नबतूता ने लिखा है- ‘खुसरो खाँ ने गोहत्या का निषेध कर दिया क्योंकि हिन्दू धर्म में इसकी मनाही थी।’
निजामुद्दीन अहमद ने लिखा है- ‘उसके राज्य में मस्जिदों का विनाश सामान्य हो गया।’
निःसंदेह जियाउद्दीन बरनी, इब्नबतूता एवं निजामुद्दीन अहमद के कथन अतिश्योक्तिपूर्ण हैं क्योंकि गैर-तुर्की अमीरों में खुसरोशाह काफी लोकप्रिय था और वे अमीर चाहते थे कि दिल्ली सल्तनत में तुर्की अमीरों का एकाधिकार समाप्त हो और भारत के मुसलमान ही दिल्ली का तख्त संभालें। यहाँ तक कि उस काल का प्रमुख सूफी दरवेश निजामुद्दीन औलिया भी खुसरोशाह के शासन को अच्छा समझता था और उसके पक्ष में था।
किशोरीसरन लाल ने लिखा है- ‘यह सत्य है कि कुछ बरवारियों ने महल के भीतर मूर्तियों की पूजा की और कुरान की प्रतियों को फाड़ा। उन्हें ज्ञात था कि मुस्लिम विजेताओं ने मंदिर तोड़े थे और धार्मिक पुस्तकें जलाई थीं। अतः बरवारी लोग मुसलमानों से भी वैसा बर्ताव कर रहे थे और सिंहासन प्राप्त करने में सुल्तान पर जो अनुग्रह उन्होंने किया था, उनके कारण सुल्तान ने उनके कार्यों में हस्तक्षेप नहीं किया। वास्तव में इस बात का एक भी उदाहरण नहीं मिलता कि नासिरुद्दीन खुसरो इस्लाम विरोधी था। फिर भी तुर्की अमीरों ने उसके बारे में जमकर दुष्प्रचार किया कि वह इस्लाम विरोधी है। यह स्थिति लगभग दो महीने तक रही।’
तुर्की अमीरों की बेचैनी का लाभ उठाने के लिए दिपालपुर के हाकिम गाजी मलिक ने खुसरोशाह के विरुद्ध मोर्चा खोला। उसने अन्य हाकिमों को भड़काकर उन्हें अपने पक्ष में संगठित करने का प्रयास आरम्भ कर दिया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता