पिछली कथा में हमने सत्यवती के पुत्र वेदव्यास द्वारा कुरुवंशी रानियों अम्बिका एवं अम्बालिका एवं एक दासी से नियोग के माध्यम से एक-एक पुत्र उत्पन्न करने की कथा की चर्चा की थी।
अम्बा के गर्भ से उत्पन्न पुत्र नेत्रहीन होने पर भी बड़ा बलशाली था। इसलिए उसका नाम धृतराष्ट्र रखा गया। अम्बालिका के गर्भ से उत्पन्न पुत्र पाण्डु रोग से ग्रस्त था इसलिए उसका नाम पाण्डु रखा गया। पाण्डु का अर्थ पीला होता है। दासी के गर्भ से उत्पन्न पुत्र अत्यंत धीर-गंभीर, वेदों एवं विभिन्न शास्त्रों का ज्ञाता तथा धर्म का मर्मज्ञ था। उसका नाम विदुर रखा गया। हिन्दू संस्कृति में विदुर को आदर से धर्मात्मा विदुर कहा जाता है।
जब तक वे बालक बड़े हुए तब तक भीष्म ही माता सत्यवती के परामर्श के अनुसार हस्तिनापुर राज्य का संचालन करते रहे। जब वेदव्यास द्वारा नियोग से उत्पन्न तीनों पुत्र बड़े हुए तो राज्य सिंहासन पर किसे बिठाया जाए, इस प्रश्न को लेकर मंथन आरम्भ हुआ। चूंकि अम्बिका का पुत्र धृतराष्ट्र नेत्रहीन था इसलिए उसे राजा बनने के योग्य नहीं माना गया। दासी पुत्र को राजा बनाने की परम्परा नहीं थी। इसलिए पाण्डु रोग से ग्रस्त पाण्डु को ही राजा बनने का अधिकारी माना गया।
यहाँ यह प्रश्न उठना स्वाभाविक है कि धृतराष्ट्र तथा पाण्डु तो महर्षि वेदव्यास की संतान थे। फिर वे चंद्रवंशी राजसिंहासन के उत्तराधिकारी कैसे हुए! धृतराष्ट्र, पाण्डु तथा विदुर एक ही पिता की संतान थे, फिर भी उनमें से धृतराष्ट्र एवं पाण्डु को राजकुमार तथा विदुर को दासीपुत्र क्यों माना गया।
इस प्रश्न का उत्तर आर्यों की सांस्कृतिक परम्परा में छिपा हुआ है। वस्तुतः किसी भी बालक के दो प्रकार के माता-पिता हो सकते हैं, पहले वे जो उस बालक को जन्म देते हैं और दूसरे वे जो उस बालक का पालन-पोषण करते हैं। यदि हम इसे उदाहरणों के माध्यम से समझना चाहें तो हमें शकुंतला का उदाहरण लेना होगा।
शकुंतला के पिता विश्वामित्र थे किंतु उसका पालन कण्व ऋषि ने किया था इसलिए वह कण्व की पुत्री मानी गई न कि विश्वामित्र की। इसी प्रकार निषाद-कन्या सत्यवती के पुत्र वेदव्यास का लालन-पालन पराशर मुनि के आश्रम में हुआ इसलिए वेदव्यास को ब्राह्मण माना गया जबकि उसी धीमर कन्या सत्यवती के पुत्रों चित्रांगद एवं विचित्रवीर्य का लालन-पालन राजा शांतनु के महलों में हुआ था, इसलिए चित्रांगद एवं विचित्रवीर्य को क्षत्रिय राजकुमार माना गया।
इसी प्रकार सत्यवती तथा उसके भाई मत्स्यराज का जन्म एक ही माता के गर्भ से हुआ था और वे एक ही पिता राजा सुधन्वा की संतान थे किंतु सत्यवती का पालन-पोषण एक निषाद के घर में हुआ इसलिए उसे निषादपुत्री माना गया जबकि उसके भाई मत्स्यराज का पालन-पोषण राजा सुधन्वा के महलों में हुआ इसलिए उसे राजपुत्र माना गया।
इसी प्रकार नियोग प्रथा में भी यह प्रावधान था कि पति की मृत्यु के बाद किसी स्त्री द्वारा अपने कुल को चलाने के लिए नियोग से प्राप्त पुत्र उस स्त्री के मृत-पति के कुल को चलाता था तथा उसी का नाम पाता था क्योंकि उस पुत्र का पालन अपनी माता के मृत-पति के घर में होता था।
चूंकि धृतराष्ट्र एवं पाण्डु का पालन-पोषण अम्बिका एवं अम्बालिका के मृत-पति विचित्रवीर्य के महलों में हुआ था इसलिए धृतराष्ट्र एवं पाण्डु विचित्रवीर्य के पुत्र माने गए। उन्हें वे सभी अधिकार प्राप्त हुए जो उन्हें विचित्रवीर्य के पुत्र के रूप में मिलने चाहिए थे।
चूंकि विदुर का लालन-पालन अम्बालिका की दासी के घर में हुआ था इसलिए विदुर को दासी पुत्र माना गया। अतः आर्य परम्परा के अनुसार राजकुमार पाण्डु को राज्य का योग्य उत्तराधिकारी माना गया।
चूंकि धृतराष्ट्र और पाण्डु युवा हो चुके थे इस कारण भीष्म के समक्ष एक बार पुनः राजकुमारों के विवाह का वही प्रश्न आ खड़ा हुआ जो विचित्रवीर्य के समय में उत्पन्न हुआ था। जब भीष्म ने सुना कि गांधार नरेश की पुत्री गांधारी ने भगवान शिव को प्रसन्न करके सौ पुत्रों की माता होने का वरदान प्राप्त किया है तो भीष्म ने धृतराष्ट्र का विवाह गांधारी से करने का निर्णय लिया।
जब भीष्म ने गांधार नरेश के पास धृतराष्ट्र तथा गांधारी के विवाह का प्रस्ताव भिजवाया तो गांधार नरेश विचलित हो गया। वह अपनी पुत्री का विवाह नेत्रहीन राजकुमार के साथ नहीं करना चाहता था किंतु उस काल में भूण्डल पर शांतनुपुत्र भीष्म का प्रभाव इतना बढ़ा-चढ़ा हुआ था कि गांधार नरेश के लिए मना करना संभव नहीं था। अतः गांधार नरेश ने अपने पुत्र शकुनि को आदेश दिया कि वह राजकुमारी गांधारी को सम्मान के साथ हस्तिनापुर छोड़ आए।
जब गांधारी का भाई शकुनि अपनी बहिन को लेकर हस्तिनापुर आया तो हस्तिनापुर के वैभव को देखकर चकित रह गया। शकुनि ने अपनी बहिन का विवाह धृतराष्ट्र के साथ कर दिया तथा वह स्वयं भी अपनी बहिन के साथ हस्तिनापुर में ही रह गया।
इसी प्रकार यदुवंशी नरेश शूरसेन की पुत्री पृथा बड़ी सुंदर थी। वसुदेवजी पृथा के भाई थे। शूरसेन ने पृथा को अपनी संतानहीन फुफेरे भाई कुंतिभोज को दे दिया था। इस कारण पृथा को कुंती भी कहा जाता था। वह अत्यंत सात्विक प्रवृत्ति की राजकुमारी थी। जब कुंतिभोज ने कुंती के लिए स्वयंवर का आयोजन किया तो भीष्म अपने भतीजे महाराज पाण्डु को अपने साथ लेकर इस स्वयंवर में पहुंचा।
जब स्वयंवर में हस्तिनापुर से आए भीष्म तथा महाराज पाण्डु का परिचय दिया गया तो राजकुमारी कुंती ने महाराज पाण्डु को अपने पति के रूप में चुन लिया। कुछ समय पश्चात् देवव्रत भीष्म ने मद्र देश की राजधानी को घेर लिया। इस पर मद्रनरेश शल्य ने अपनी बहिन माद्री का विवाह महाराज पाण्डु के साथ कर दिया।
इस प्रकार शांतनु-पुत्र भीष्म के प्रभाव से चंद्रवंशी राजकुमारों धृतराष्ट्र और पाण्डु के विवाह भारतवर्ष के उत्तम राजकुलों की कन्याओं से हो गया। कुछ समय पश्चात् भीष्म ने राजा देवक की परम सुंदरी युवा दासी का विवाह विदुरजी के साथ करवा दिया।
-डॉ. मोहनलाल गुप्ता